भौतिक प्रगति और सांस्कृतिक परम्परा में सामंजस्य चाहिए

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भौतिक प्रगति और सांस्कृतिक परम्परा में सामंजस्य चाहिएgaonconnection

जादी के बाद बहुत तरक्की हुई है। जहां पगडंडियां और गलियारे थे वहां पक्की सड़कें बन गई हैं, जहां रोशनी के लिए सरसों के तेल के दिए या मिट्टी तेल की कुप्पी जलती थी वहां बिजली के बल्ब चमक रहे हैं, सिंचाई के लिए जहां कुओं से पानी निकालने के लिए बैलों से चलाए जाने वाले रहट या पुर का प्रयोग होता था आज नहरें और नलकूप बने हैं, हर गाँव में स्कूल और हर इलाके में दवाई इलाज की सुविधा है, जहां पंद्रह दिन में चिट्ठी पहुंचती थी वहां एक मिनट में मोबाइल फोन से बात हो जाती है, जहां 12 किलोमीटर पर रेल या बस मिलती थी आज दरवाजे पर सवारी साधन मौजूद है। इस प्रगति का सुख तभी भोग सकेंगे जब हमारा तन स्वस्थ और मन शान्त होगा। लेकिन भौतिक तरक्की ने जीवनशैली बदल दी है।

पुराने समय में किसान दूध, घी, मट्ठा का खूब सेवन करता था, सूर्योदय के पहले उठता था और गाय, बैल, भैंस की सेवा करता था, खेतों में हल लेकर जाता और दिनभर मेहनत करता था, खेतों में गोबर की खाद डालता था, खेतों के लिए यूरिया और खाने के लिए डालडा नहीं थे। अब गाँवों का सारा दूध शहरों को चला जाता है और गाँवों में बच्चे चाय पीते हैं । विज्ञान की भाषा में कहें तो गाँवों मे पहले की अपेक्षा अब आधी केलोरी अर्थात आधी ऊर्जा भी प्रति व्यक्ति नहीं मिलती। आज तो गाँवों में एक तो जानवर ही कम हो रहे है क्योंकि चरागाह समाप्त हो रहे हैं फिर किसान का लालच बच्चों के मुंह से दूध छीनता है।

पुराने समय में सभी लोग जल्दी सोते और जल्दी उठते थे, नौजवान लोग खेलते थे कबड्डी, खेा-खो, कोंडरा और कुश्ती जिनमें पैसा नहीं लगता था परन्तु शरीर पसीने से तर हो जाता था, मधुमेह का डर नहीं। अब खेल तो हैं लेकिन महंगे जिन्हें गरीब आदमी खेल नहीं सकता। इसका परिणाम यह हुआ है कि गाँवों में भी शहरों की बीमारियां जैसे मधुमेह, ब्लडप्रेशर, एड्स-एचआइवी, कैंसर, और पेट की अनेक असाध्य बीमारियां फैल रही हैं। पहले रेशेदार अनाज जैसे चना, जौ, छिलके वाली दालें और सब्जियां खूब प्रयोग में आती थीं अब गाँवों में भी नौजवानों में नूडल, बर्गर और चिप्स खूब प्रचलित हो रहे हैं जो पेट की बीमारियों के कारण बनते हैं । 

गाँवों में बैल तो बचे नहीं इसलिए लगातार मुफ्त में मिलने वाली यांत्रिक ऊर्जा को भूल सा गए हैं। अब बैलों की जरूरत ही नहीं रह गई। छोटे से छोटा किसान भी किराए के ट्रैक्टर से काम चलाता है। सामान ढोने के साधन बदल चुके हैं और अब वह ऊर्जा जो डीजल, पेट्रोल और बिजली की मोहताज नहीं थी, उपलब्ध नहीं है। शायद हम भूल रहे हैं कि पृथ्वी के अन्दर का पेट्रोलियम जिससे पेट्रोल, डीजल और मिट्टी का तेल बनता है अनुमानतः 150 साल में समाप्त हो जाएगा यदि नई खोज न हुई । इसी प्रकार कोयला जिससे बिजली बनती है वह भी हमेशा नहीं रहने वाला है।

पहले शहरों में और अब गाँवों में रेडियो तो किसी कोने में दुबक कर बैठ गया और टीवी अकड़ कर चौपाल में बैठा है। परन्तु हमारे ग्रामीण नौजवान उस टीवी पर देखते क्या हैं? सिनेमा, नाच-गाने और पांच दिन तक समय बर्बाद करने वाला क्रिकेट मैच न कि एक घंटे वाला फुटबाल या हाकी। बुजुर्ग लोग तो शायद समाचार देखते होंगे परन्तु नौजवानों की रुचि अलग है।  

शहरवालों की तरह गाँव का आदमी भी जल्दी से जल्दी पैसा कमाना चाहता है। दुधारू जानवरों को इंजेक्शन लगाकर ज्यादा दूध निकालना चाहता है और खेतों में अंग्रेजी खाद डालकर जल्दी ही अधिक फसल उगाना चाहता है। उसे ज्ञान नहीं कि इन सब के भयानक नतीजे सामने आ रहे हैं। शहरों के समझदार लोग आर्गेनिक सब्जियां और फल ढूंढ़ते हैं अर्थात जिनमें अंग्रेजी खाद का प्रयोग न हुआ हो। इंजेक्शन द्वारा निकाले गए दूध का सेवन करके पुरुषों का पुरुषत्व तो चला ही जायगा, अस्तित्व भी खतरे में पड़ेगा। गाँवों का आर्थिक उतावलापन पूरे देश के लिए घातक होगा।

आवश्यकता इस बात की है कि नई बातों को विवेक पूर्वक स्वीकार किया जाए, आंख मूंद कर नहीं। समाचार माध्यमों से जो जानकारियां मिलती रहती हैं वो नई नई खोजों पर आधारित होती हैं। जहां विज्ञान के चमत्कारों से लाभ उठाने की आवश्यकता है वहीं गाँव से नाता बनाए रखते हुए गाँवों में जानकारियां बांटने की भी आवष्यकता है। विदेशी को स्वदेशानुकूल और पुरातन को युगानूकूल बनाकर स्वीकारने की आवश्यकता है।  

 

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