बिहार की तस्वीर: महामारी, गरीबी, बाढ़ की तबाही और बंधुआ मजदूरी

बिहार भारत का सबसे अधिक बाढ़ ग्रस्त राज्य है। हर साल लाखों लोगों को विस्थापित करने के अलावा बार-बार आने वाली बाढ़ मानव तस्करी में भी योगदान देती है। एक गरीब परिवार बाढ़ राहत शिविरों में कई महीने बिताते हैं। यहां उनके बच्चों को 'नौकरी' के लिए फुसलाया जाता है। गाँव कनेक्शन ऐसे कई बच्चों से मिला और उन्होंने इस बारे में हम से काफी कुछ साझा किया।

Rahul JhaRahul Jha   30 April 2022 6:25 AM GMT

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बिहार की तस्वीर: महामारी, गरीबी, बाढ़ की तबाही और बंधुआ मजदूरी

दिल्ली के एक होटल में बाल मजदूरी करता बिहार का एक छोटा बच्चा। (फोटो: अभिनव आनंद

सहरसा/पूर्णिया/सुपौल (बिहार)। बिहार भारत का सबसे अधिक बाढ़ ग्रस्त राज्य। एक ऐसा राज्य जहां हजारों लोग हर साल बाढ़ के कारण विस्थापित होते हैं। इसी राज्य में सुपौल ज़िले के पकड़ी गाँव में हिमांशु एक छोटे से ठेले पर सब्जियां बेचता है। हिमांशु भी इन्हीं हज़ारों विस्थापितों में से एक हैं। लेकिन, फिर भी वह खुद को भाग्यशाली मानता है।

18 वर्षीय हिमांशु गांव कनेक्शन को बताते हैं, "जुलाई 2018 में बाढ़ आने के बाद मैं कोसी नदी के किनारे सरकारी राहत कैंप में अपने परिवार के साथ रह रहा था। वहां से कुछ एजेंट मुझे लुधियाना में कपड़े के कारखाने पर काम करने के लिए ले गए।"

हिमांशु आगे कहता हैं, "वहां मुझसे दिन में कई घंटे काम करवाया जाता था और बदले में सिर्फ खाना और रहने की जगह दी जाती थी। यहां बिहार में मां को हर महीने 3500 रुपए भेज दिए जाते थे।" उस घटना को याद कर वह आज भी सदमे में जान पड़ता है। उसके मालिक उसे घर जाने ही नहीं देते थे। दो से अधिक वर्ष गुज़र जाने के बाद अक्टूबर 2020 में, जब हिमांशु ने इसका विरोध किया तो उसके लिए ट्रेन का टिकट लाया गया और उसे घर भेज दिया गया। संतोष भरी सांस लेकर वह कहता है, "अब मैं अपने गांव में रहता हूं और यहीं एक छोटी सी सब्जी की दुकान चलाता हूं।"

सुपौल जिला के पकड़ी गाँव के 18 वर्षीय हिमांशु अब सब्जियां बेचते हैं। (फोटो: राहुल कुमार गौरव

बिहार भारत का सबसे अधिक बाढ़ ग्रस्त राज्य है, जिसके 38 ज़िलों में से 28 ज़िले बार-बार बाढ़ से प्रभावित होते रहते हैं। लगातार आती बाढ़ और उसके साथ घोर गरीबी के चलते गाँव वाले, खासकर छोटे बच्चे, किशोर और उनके माता-पिता बाल मज़दूरी के व्यवसाय में लगे लोगों के लिए एक आसान लक्ष्य बन जाते हैं। पिछले 2 सालों में कोविड महामारी ने बाल मज़दूरी और बाल तस्करी के मामलों को और बढ़ा दिया है। क्योंकि, इस दौरान लोगों की आजीविका छिन गई है।

राज्य के बाल कल्याण संगठन, समाज कल्याण विभाग और बाल संरक्षण इकाई के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, जुलाई 2020 से सितंबर 2020 के बीच बिहार के लगभग 250 बच्चों को इन सब से बचाया गया है।

राज्य के श्रम संसाधन विभाग के अनुसार, 2020-21 में 466 बाल मजदूरों को बचाया गया था। वहीं पिछले साल 2019-20 में यह संख्या 750 थी। 2018-19 में कुल 1,045 बच्चों को बचाया गया था। (जिनमें से 750 अकेले सुपौल ज़िले के थे।)

बिहार में लापता बच्चों की संख्या भी काफ़ी ज़्यादा है। देश में लापता बच्चों की संख्या में यह तीसरा स्थान रखता है। इस मामले में हमेशा वृद्धि दर्ज़ की गई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा दर्ज़ किया गया है कि 2016 में लापता बच्चों की संख्या 4817 थी। यही संख्या 2017 में बढ़कर 5547 हो गई और 2018 में यह 6950 तक पहुंच गई।

सहरसा ज़िले में महिषी गाँव के रोहित ने गांव कनेक्शन को बताया, "मुझे अच्छे से याद है, यह 2019 की बात है। बाढ़ राहत शिविर जहां हम रह थे, वहीं काम करने वाले कुछ लोग मेरे पिता से मिले। उन्होंने मेरे पिता को इस बात के लिए राज़ी कर लिया कि मैं चंडीगढ़ जाकर काम करूं।" 17 वर्षीय रोहित याद करते हुए कहते हैं, "मेरे साथ 7 अन्य लड़के भी चंडीगढ़ गए थे। वहां हमें 15 दिन तक सिलाई का प्रशिक्षण दिया गया।"

रोहित कहते हैं कि उन्हें एक दिन में करीब 12 घंटे काम पर लगाया जाता था। वे आगे कहते हैं, "हमें सोने के लिए एक बिस्तर और दिन में तीन बार का खाना मिलता था। महीने के 7000 रूपये सीधे मेरे पिता को भेज दिए जाते थे,और मुझे महीने के हज़ार रुपए मिलते थे। रोहित ने वहां करीब डेढ़ साल काम किया। फिर वह वापस घर लौट आए। लेकिन वे बताते हैं कि उनके गांव के चार अन्य लड़के अभी भी वहीं कार्य कर रहे हैं।

रोहित और हिमांशु कई हज़ारों के बीच में से सिर्फ दो उदाहरण भर है, जो लालच का शिकार बन गए। विशेषज्ञ कहते हैं कि बार-बार आती बाढ़ और कमरतोड़ गरीबी युवाओं को बाल श्रम में धकेलने के मुख्य कारण हैं।


सुपौल स्थित एक गैर-लाभकारी संस्था ग्राम्यशील के संस्थापक चंद्रशेखर झा ने गांव कनेक्शन को बताया," युवाओं को बिहार छोड़कर दूसरी जगह कारखानों पर काम करने के लिए लालच देना कोई असामान्य बात नहीं है। हज़ारों परिवार जो बाढ़ में अपने घर और जमीन खो देते हैं, वह सरकारी राहत शिविरों में रहने को मजबूर है। वह पांच- छह महीने तक वहीं रहते हैं।"

चंद्रशेखर गांव कनेक्शन को आगे बताते हैं, "और, ये उन लोगों की नजरों में आसान लक्ष्य बन जाते हैं जिनमें इन्हें पैसा कमाने की संभावना दिखती हैं। सहानुभूति और दया की आड़ में यह बेईमान एजेंट इन बच्चों के परिवारवालों को राज़ी करने की कोशिश करते हैं। वह उन्हें समझाते हैं कि उनके बच्चे यदि काम पर लग जाएंगे तो उनके लिए अच्छा होगा। इसके एवज में उनकी अच्छे से देखभाल की जाएगी और अच्छी तरह से खिलाया-पिलाया जाएगा। इससे परिवार पर बोझ भी कम होगा क्योंकि उन्हें भी पैसा दिया जाएगा।"

उनके अनुसार बिचौलिए ख़ासतौर पर उन बच्चों पर नज़र रखते हैं जो बाढ़ के कहर से बचने की आपाधापी में अपने माता- पिता से अलग हो गए हैं। वह आगे बताते हैं कि इसके लिए राहत शिविर उनके निशाने पर होते हैं।

बार-बार आती बाढ़ के साथ बढ़ता बाल श्रम

नीति आयोग के अनुसार देश का सबसे गरीब राज्य होने के कारण बिहार में काफ़ी गरीबी फैली हुई है। सुपौल ज़िले में मुसर्निया गांव के 62 वर्षीय निवासी मनोज पासवान ने गांव कनेक्शन को बताया," आधा साल तो लोग सरकारी राहत शिविर में ही बिताते हैं। आमतौर पर गांव के पुरुष दूसरे राज्यों में काम करने के लिए जाते हैं। ऐसे में महिलाएं और बच्चे पीछे छूट जाते हैं। इन्हें तस्करों से ज्यादा खतरा है।"

एक ग्रामीण ने बताया कि बाढ़ प्रभावित लोग जो इन राहत शिविरों में रहने को मजबूर है, इनका आसान शिकार बनते हैं। यहां ना तो सरकारी अधिकारी और ना ही पुलिस गश्त लगाती है।

मानव तस्करी के इर्द-गिर्द कई आपराधिक गतिविधियां भी जुड़ी हुई है। इनमें यौन कार्य, बंधुआ मज़दूरी और लोगों को घरेलू नौकर बनाना शामिल है। केंद्रीय सरकार के एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक यह संख्या काफी परेशान करने वाले हैं।

बिहार में, 2017 में मानव तस्करी से जुड़े 121 मामले दर्ज हैं। यह आंकड़े 2018 में बढ़कर 179 हो गए। इसकी जानकारी राज्यमंत्री (गृह मंत्रालय) ने दी। 2019 के आंकड़े एनसीआरबी की वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं हैं। वहीं 2020 में कोविड-19 महामारी के चलते लोगों के इधर उधर जाने पर प्रतिबंधित था। बावजूद इसके जुलाई 2020 और सितंबर 2020 के बीच बिहार के करीब 250 बच्चों को दूसरी जगहों से छुड़ाया गया। गांव कनेक्शन ने इस रेस्क्यू ऑपरेशन की सूचना दी थी।

इन मामलों के जानकार कहते हैं कि यह आंकड़े तो कुछ भी नहीं इसके पीछे पूरा एक गोरखधंधा है।

गैर लाभकारी संस्था ग्राम विकास परिषद को 2008 की विनाशकारी कोसी बाढ़ त्रासदी के बाद मानव तस्करी, बाल श्रम और बाल विवाह के विरोध में किए अपने बेहतरीन कार्य के लिए जाना जाता है। इस संस्था की अध्यक्ष हेमलता पांडे ने गांव कनेक्शन को बताया,"2017 और 2019 के बीच मैंने खुद 33 लोगों को गिरफ्तार किया। ये नाबालिक लड़कियों को फुसला कर उत्तर प्रदेश और हरियाणा ले जा रहे थे।"

वह आगे कहती है," हमारे पास जो आंकड़े उपलब्ध है वह तो पहाड़ की चोटी देखने के समान है। यहां ज़मीन पर जो हो रहा है वह और भी ज़्यादा खराब है।"

मानव तस्करी

स्थानीय कार्यकर्ताओं का कहना है कि बिहार के कोसी क्षेत्र में सिर्फ बाल श्रम ही नहीं, मानव अंगों का व्यापार और यौन तस्करी भी बड़े पैमाने पर हो रही है। भारत और नेपाल सीमा पर स्थित गांव मुख्य रूप से इसके 'हॉटस्पॉट' हैं।

जुलाई 2021 में, पूर्णिया जिले में फुलवरिया गाँव के रंजीत मलिक ने कथित तौर पर अपनी 11 वर्षीय बेटी काजल को उत्तर प्रदेश में गोंडा के एक 20 वर्षीय पुरुष को बेच दिया।

इस कहानी को कवर करने वाले पूर्णिया के पत्रकार बृजेश सिंह ने गांव कनेक्शन को बताया, "काजल की मां को उनकी बेटी के लिए 50,000 रुपये और चावल और गेहूं के दो बोरे दिए गए थे।" इस मामले की शिकायत थाने में की गई। लेकिन, काजल का आज तक पता नहीं चल पाया है। थाने के मुखिया ने इस मामले में गांव कनेक्शन से बात करने से इनकार कर दिया।

पूर्णिया जिला के फुलवरिया गांव में जुलाई 2021 में ग्यारह वर्षीय काजल की शादी यूपी के गोंडा के रहने वाले 20 वर्षीय युवक के साथ करा दी गयी थी। फोटो: ब्रजेश सिंह

सुपौल के पकड़ी गांव की सैंतालीस वर्षीय गुड़िया, जिसकी छह बेटियां और दो बेटे हैं, ने गांव कनेक्शन को 2018 में हुई अपनी एक बेटी की 'शादी' के बारे में बताया। वह कहती हैं," अपना रहन सहन सुधारने के लिए मुझे वेडिंग पार्टी ने 70000 रुपय दिए।

पैसों का आदान-प्रदान हुआ और यह शादी भी हुई। लेकिन, गांव में किसी ने पुलिस को खबर कर दी। उन्होंने दुल्हन के घरवालों को शादी से रोक दिया। 15 साल की इस लड़की को छुड़ा लिया गया जबकि हरियाणा के जींद ज़िले के 33 वर्षीय युवक को हिरासत में ले लिया। यह लड़की अपनी मां के पास वापस लौट गई है।

सुपौल के कुनौली गांव के एक सामाजिक कार्यकर्ता और व्यावसायी अनुराग गुप्ता कहते हैं," इस क्षेत्र में मानव तस्करी का एक बड़ा तंत्र फैला हुआ है।सीमांचल, मिथिलांचल और कोसी की गरीब लड़कियों को बराबर निशाना बनाया जाता है।" वह आगे बताते हैं, इन्हें नौकरी का झांसा दिया जाता है। फिर इन्हें यौन कार्यों के लिए खरीदा और बेचा जाता है। सीमावर्ती इलाकों में खासतौर से महिलाओं, युवा लड़कियों और शिशुओं की मानव तस्करी का गोरखधंधा एक गंभीर समस्या के रूप में फैल रहा है।


वे कहते हैं, "तस्कर उन युवा लड़कियों के माता-पिता को निशाना बनाते हैं जो गरीब हैं। वह उन्हें उनकी बेटी के लिए अच्छा वर दिलाने और पैसों के लिए ललचाते हैं और फिर लड़की को लेकर चले जाते हैं।

बाल श्रम और मानव तस्करी को संबोधित करना

पूर्व आईपीएस अधिकारी राकेश कुमार मिश्रा ने सुपौल में मानव तस्करी का मुकाबला करने के लिए कई वर्षों तक कार्य किया है। वे कहते हैं कि 2009 में बिहार सरकार द्वारा बाल तस्करों से छुड़ाए गए बच्चों को बचाने, बहाल करने और शिक्षित करने के लिए एक प्रस्ताव तैयार किया गया था।

उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, 'राज्य के शिक्षा विभाग के साथ समाज कल्याण विभाग ने अनाथ बच्चों की देखभाल के लिए परिवारों को एक हजार रुपये महीने का भुगतान किया था।" उन्होंने कहा, "पीड़ितों को बचाने और पुनर्वास में कम से कम सत्रह विभाग शामिल हैं। इसके बावजूद गरीबी और बेरोजगारी जारी है और पैसे के लिए मासूम जिंदगी बेच दी जाती है।"

हालांकि हेमलता पांडे के मुताबिक इससे कुछ खास हासिल नहीं हो रहा है. "सरकार ने बचाए गए बच्चों के लिए सुपौल में दस से बारह 'चाइल्ड फ्रेंडली' केंद्र खोले हैं जहाँ उन्हें शिक्षित और पोषित किया जाना चाहिए। लेकिन इन केंद्रों में असल मे कुछ भी नहीं हो रहा है।"

सुपौल के बभंगवां गांव के सामाजिक कार्यकर्ता अमोद कुमार कहते हैं कि 2008 में हुई कोसी त्रासदी के बाद सरकार द्वारा एक योजना बनाने की कोशिश की गई। इसमें मानव तस्करी को रोकना भी शामिल था।

अमोद कुमार गांव कनेक्शन को बताते हैं,"पुलिस ने एक मानव तस्करी रोधी इकाई स्थापित की है। ऐसा नहीं है कि इस गोरखधंधे को रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। लेकिन मानव तस्करी की बुराइयों और सामाजिक और व्यवहारिक परिवर्तन के बिना सभी योजनाएं और प्रस्ताव विफल हो जाएंगे।"

भागलपुर चाइल्डलाइन संगठन के समन्वयक अमल कुमार ने बताया," कई मामलों में बच्चे गरीबी से बचने के लिए अपने घरों से भाग जाते हैं। शायद माता-पिता द्वारा शारीरिक शोषण या ठीक से पढ़ाई ना कर पाने के कारण भी वे यह कदम उठाते हैं।" उन्होंने कहा, "यह ज़रूरी है कि मानव तस्करों से सख्ती से निपटा जाए। लेकिन, माता-पिता और समाज को भी बच्चों के प्रति अधिक सजग होने और सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है।"

वह आगे कहते हैं, "यह हर एक नागरिक की भी ज़िम्मेदारी है कि अपने आसपास बच्चों के साथ हो रही किसी भी संदिग्ध गतिविधि के बारे में वे तुरंत 1098 पर सूचना दें।

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