बजट की राष्ट्रनीति होनी चाहिए, उसमें राजनीति नहीं

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बजट की राष्ट्रनीति होनी चाहिए, उसमें राजनीति नहींgaonconnection

आजकल विभिन्न प्रान्तों के वित्त मंत्रियों के साथ देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली की बैठक चल रही है जिसमें एक समान सेवा कर के मसविदे पर निर्णय होना है। अभी भी आम राय नहीं बन सकी है। वास्तव में सेवा कर एक मुद्दा है लेकिन ऐसे अनेक विषय हैं जिनपर आम राय बननी चाहिए। हमारे बजट प्रावधान बहुसंख्यक आबादी के लिए होने चाहिए जो 70 प्रतिशत है और गाँवों में रहती है लेकिन हमारा बजट कहने को तो आम बजट होता है परन्तु मुट्ठीभर धन्नासेठों के लिए होता है।  

पुराने समय में बजट प्रस्तावों से आर्थिक राष्ट्रनीति का खुलासा होता था जिसकी साल भर प्रतीक्षा रहती थी परन्तु अब वह नीति निर्धारक दस्तावेज नहीं रहा। साल भर आर्थिक अध्यादेश आते रहते हैं। सरकारें बदलने के साथ ही बजट की राजनीति बदलती रहती है परन्तु कोई राष्ट्रनीति नहीं बन पाई है। 

जवाहर लाल नेहरू के जमाने में अधिकतम कर 90 प्रतिशत से भी अधिक था जिससे कर चोरी और काले धन का जन्म हुआ। मौजूदा कर प्रणाली में वेतनभोगी कर्मचारियों की आयकर गणना आसान है। परन्तु एक वकील, इंजीनियर, डॉक्टर, सोने-चांदी का व्यापारी, पुलिस अधिकारी अथवा एमपी, एमएलए या मंत्री जब फार्म हाउस बनाकर खेती की कमाई से करोड़ों रुपया दिखाता है तो उसे खेती की आय पर कोई टैक्स नहीं देना होगा। जब खेती की आय को कर मुक्त किया गया था तब खेती अलाभकर थी, अब ऐसा नहीं है। 

इसी प्रकार की व्यवस्था डेरी, पोल्ट्री, हार्टीकल्चर और मछली पालन में है। इन व्यवसायों में भी धनी लोगों का लाभ है और इनसे होने वाली आय भी टैक्स दायरे से बाहर है। बिहार के एक नेता ने अपनी करोड़ों रुपए की आय को 40 गायों से हुई आमदनी बताई थी। बहुत पहले हरियाणा के और विगत वर्षों में हिमाचल के नेताओं ने अपनी अथाह सम्पदा को बगीचों की आमदनी बताकर टैक्स बचाया है। पैसा तो पैसा होता है चाहे नौकरी से आए अथवा व्यापार से या फिर खेती से। ना जाने किन कारणों से हमारे राजनेता कर-निर्धारण में भी सेकुलर यानी एक समान कानून नहीं लाना चाहते। 

यह ठीक है कि खेती और अन्य व्यवसायों की आमदनी पर टैक्स लगाने में कुछ प्रशासनिक कठिनाइयां होंगी जैसे आय-व्यय का आकलन और अनिश्चित मौसम के प्रभाव। यह कठिनाई तो दुकानदारों और अन्य व्यापारियों पर भी लागू हो सकती है परन्तु उनके मामले में टैक्स गणना के तरीके निकाले गए हैं। यह काम सरल हो सकता है यदि खेती आदि पर टैक्स वसूली की व्यवस्था प्रान्तों में आयकर विभाग बनाकर उनके हाथ में दे दी जाए जिससे प्रान्तों को उनके विकास के लिए धन उपलब्ध होता रहेगा। आज वोट बैंक के जमाने में बजट में राजनीति तो हो रही है परन्तु बजट की राष्ट्रनीति नहीं है। 

यदि उद्योग और खेती तथा शहर और गाँव के हिसाब से बजट में आवंटन हो तो विकास को सेकुलर और वैज्ञानिक आधार मिल सकता है। विविध कामों के लिए धन का आवंटन करते समय यदि इस बात पर विचार हो कि किसानों के बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके, किसानों को समय पर खाद, पानी और बिजली उचित दामों पर मिलती रहे, रोजगार के अवसर मिलें और उनके घर से सही दाम पर पैदावार उठा ली जाए तो किसानों के बैंक कर्जे माफ करने, उन्हें मुफ्त में बिजली देने, उनको खैरात बांटने की आवश्यकता नहीं होगी। हालत यह है कि शिक्षा में एकरूपता लाने के अदालती फैसले भी हमारी सरकारें लागू नहीं करवा पातीं। 

इसी प्रकार रेल बजट में रेलगाड़ी में बैठने के लिए देश की 70 प्रतिशत आबादी के लिए जगह की चिन्ता पहले होनी चाहिए। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार में 1977 में देश के रेलमंत्री प्रोफेसर मधु दंडवते हुए थे उन्होंने अपने समय में राष्ट्रनीति के तहत जितनी नई गाड़ियां चलवाईं सब जनता गाड़ियां थीं। उनके बाद के रेल मंत्रियों ने यह नीति छोड़ दी और अमीरों की सेवा में लग गए। बजट प्रावधान ऐसे हों कि उसमें आर्थिक योगदान तो यथाशक्ति हो परन्तु देश के धन का उपयोग सब के लिए हो। जीएसटी लागू होने से कुछ समानता तो आएगी लेकिन उसके बाद भी बहुत असमानताएं और विसंगतियां दूर करनी होंगी। समग्र चिन्तन की आवश्यकता है।

 

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