पुण्यतिथि विशेष : अमृतलाल नागर का एक ख़त... जो उन्होंने उपेंद्र नाथ अश्क को लिखा था

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पुण्यतिथि विशेष : अमृतलाल नागर का एक ख़त... जो उन्होंने उपेंद्र नाथ अश्क को लिखा थाउपेंद्र नाथ अश्क व अमृत लाल नागर

अमृतलाल नागर का जन्म 17 अगस्त 1916 को हुआ था। नागर हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। इन्होंने नाटक, रेडियोनाटक, रिपोर्ताज, निबन्ध, संस्मरण, अनुवाद, बाल साहित्य आदि के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन्हें साहित्य जगत में उपन्यासकार के रूप में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त हुई यही नहीं उनका हास्य-व्यंग्य लेखन कम महत्वपूर्ण नहीं है। नागर 23 फरवरी 1990 को इस दुनिया को अलविदा को कह चले।

आज उनके पुण्यतिथि के अवसर पर पढ़िए उनका उनके दोस्त डॉ. उपेंद्र नाथ अश्क को 1 जून 1973 को लिखा गया एक ख़त -

अश्क भाई,

पिछले डेढ़ माह से जितनी जल्दी-जल्दी हाई ब्लड प्रेशर का शिकार हुआ, उस तरह यदि कुछ और पहले से होता तो सीना तानकर कहता कि दोषी मैं नहीं, मेरी बीमारी है। इस स्थिति में बस यही कह सकता हूं कि ऐ बाबा-ए अदम्य, मेरे बड़े भाई, मिलने पर मुझे दो जूते मारकर अपना क्रोध शांत कर लेना। अपने महाआलस्य और निकम्मेपन के इस लंबे दौर का बयान क्या करूं, खुद ही अपने से ही नफरत सी हो गई है। आलस के दौर तो अक्सर आते रहते हैं, पर इतनी लंबी अवधि तक कभी अल्प -प्राण नहीं रहा। भीतर वाला जानता है कि मेरी यह दुर्दशा अस्थायी है। स्रोत पाने के लिए धरती फोड़ते-फोड़ते अब जो कंकड़ की सख्त चट निकल आई है तो मन ने घबराकर सुस्ताने का बहाना साध रखा है। खैर, अपने पौत्र के नाम की तरह मेरी सुगतिशीलता भी अदम्य है, जल्दी ही जीत जाऊंगा।

मुंह देखा न मानना, तुम्हारा ख़त मुझे सबसे अधिक प्यारा लगा। इसका एक मात्र कारण यही है कि 'मानस का हंस' पर तुमसे पत्र पाने की आशा मैंने नहीं की थी। वह पत्र प्रकाशन को भेजने की इच्छा भी अब तक मेरे निकम्मेपन के कारण ही प्रतिफलित नहीं हुई। अब हो जाएगी। तुमसे भी अधिक नीलाभ और दूधनाथ सिंह की प्रशंसा मुझे अपने लिए कीमती लगी। यह साबित करता है कि मेरी स्पिरिट गलत नहीं है। तुमने यह बात सही लिखी है कि राम माने कर्तव्य। यह कर्तव्यवरायणता ही मेरी राम-भक्ति है। मेरा राम बिल्कुल गैबी नहीं है और जितना कुछ है भी उसे यथार्थ के धरातल पर लाकर उजागर में देखना चाहता हूं। यही तो मेरा संघर्ष है।

तुमने अपना उपन्यास लिखना छोड़कर मानस का हंस पढ़ा और खास करके अपने सृजनात्मक अहम की प्रबलता के समय भी उसे पढ़ कर केवल सराहा ही नहीं, बल्कि मुझे पत्र भी लिखा, यह तुम्हारी निश्छल उदार-प्रकृति का स्पष्ट प्रमाण है। राम करे तुम्हारी कर्मसिद्धियां और तुम्हारा यश दिनों दिन बढ़े। भाभी जुलजुल, बूढ़-सुहागन और तुम जुलजुल बूढ़ सुहागे हो।

बेटे, बहुओं और उनके आयुष्मान नन्हें-मुन्नों को हार्दिक शुभाशीष। तुम्हे और भाभी को सप्रेम नमस्कार।

सदा तुम्हारा

अमृत लाल नागर

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