जन्मदिन विशेष : पंजाबी साहित्य की रूमानी शख्सियत अमृता प्रीतम

Anulata Raj NairAnulata Raj Nair   31 Aug 2018 6:04 AM GMT

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जन्मदिन विशेष :  पंजाबी साहित्य की रूमानी शख्सियत अमृता प्रीतमअमृता प्रीतम 

मैं तुम्हें फिर मिलूंगी...इमरोज़ ठीक ही कहते हैं कि उसने जिस्म छोड़ा है,साथ नहीं छोड़ा।

ये सच है कि कुछ रूहें जिस्म से जान निकल जाने के बाद भी आबाद रहती हैं और मोहब्बत करने वालों के दिलों में अपना ठिकाना बना लेती हैं।

हिंदी और पंजाबी साहित्य की ऐसी ही एक बेहद रूमानी शख्सियत थीं जो जितनी खूबसूरत थीं उससे कहीं ज़्यादा हसीं और ज़हीन थे उनके शब्द - "अमृता प्रीतम"
अमृता,जिन्होंने कच्ची उम्र से ही अपने सपनों की इबारत लिखनी शुरू कर दी थी, जिंदगी के सफ़्हे पर रोशनाई कभी जिगर का खून था तो कभी आँसू। याने अमृता ने जो भी लिखा पूरी तरह डूब कर लिखा था।

वो ख़ुद कहती हैं-"मेरा सोलहवां वर्ष आज भी मेरे हर वर्ष में शामिल है",शायद इसीलिए उनकी नज़्में और कहानियाँ प्रेम को इतनी पूर्णता से, सच्चाई से परिभाषित कर पाती हैं।

अमृता अपने समय से बहुत आगे की सोच रखने वाली लेखिका थीं। अपनी आत्मकथा में उन्होंने ख़ुद लिखा है कि "मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी और क्या उपन्यास, मैं जानती हूं, एक नाजायज बच्चे की तरह हैं। जानती हूं, एक नाजायज बच्चे की किस्मत इसकी किस्मत है और इसे सारी उम्र अपने साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगतने हैं।


अमृता के मुक्त व्यक्तित्व को उस वक्त का न समाज पचा पाया था न साहित्य जगत। लेकिन अमृता ने न कभी अपने आप को बदला न अपनी कलम को रोकने की कोशिश की। शायद इसलिए वो अमृता कहलाईं।

उनकी एक नज़्म इस बात की गवाही भी देती है-

आज मैंने
अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा
गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की
दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की,
हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, यह एक वर है
और जहाँ भी
आज़ाद रूह की झलक पड़े
— समझना वह मेरा घर है।

अमृता प्रीतम पंजाब (पकिस्तान) के गुजरांवालां में 31 अगस्त 1919 को पैदा हुईं थीं। माता थीं राज बीबी और पिता नंद साधु। नंद ख़ुद "पियूष" उपनाम से धार्मिक कविताएँ लिखते थे इसलिए बेटी का नाम उन्होंने "अमृत" रखा।

उनकी नज़्में पढ़ने पर भी लगता है कि वाकई शायद ईश्वर ने उन्हें गढ़ते हुए मिट्टी भी शहद और अमृत से गूंथी होगी।

अंधेरे का कोई पार नही
मेले के शोर में भी खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह जैसे धूप का एक टुकड़ा।

माँ की मौत के बाद पिता को फिर वैराग्य अपनी ओर खींचने लगा मगर अमृता का मोह उन्हें संसार से जोड़े रखता।अमृता कभी-कभी रो पड़ती थीं कि वे पिता को स्वीकार थीं या नहीं...अपना अस्तित्व एक ही समय में उन्हें चाहा और अनचाहा लगता था।


पिता की ख़ुशी के लिए वो लिखती रहीं मगर माँ के बाद उनकी ईश्वर से आस्था उठ गयी थी और वो धार्मिक लेखन छोड़ के चोरी-चोरी रूमानी कविताएँ लिखने लगीं।

अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में उन्होंने लिखा है कि उन दिनों उन्होंने अपने मन में एक काल्पनिक प्रेमी "राजन" को बैठा लिया था और वे उसके सपने देखतीं थीं। अमृता का पहला काव्य संकलन "अमृत लहरें" बाज़ार में आया तब वे सिर्फ सोलह साल की थीं।

अमृता का मन एक पंछी की तरह था जो उड़ना चाहता था खुले आसमान में,एकदम स्वच्छंद,मगर एक तीखा दर्द लिए...ये दर्द उनकी कविताओं में खुल के नज़र आता है।

सपने- जैसे कई भट्टियाँ हैं
हर भट्टी में आग झोंकता हुआ
मेरा इश्क़ मज़दूरी करता है

तेरा मिलना ऐसे होता है
जैसे कोई हथेली पर
एक वक़्त की रोजी रख दे।

अमृता का विवाह सरदार प्रीतम सिंह से हुआ और वे दो बच्चों की माँ बनीं। पति के साथ ज्यादा दिन नहीं निभी लेकिन प्रीतम नाम उनके साथ जुड़ा रहा।

बात अमृता की हो और साहिर का ज़िक्र न आये ये मुमकिन नहीं।
साहिर लुधयानवी साहब से उनकी मुलाक़ात लोपोकी गांव से लौटते हुए किसी काफिले में हुई,इस काफिले में साहिर के सिवा वो सबको जानती थीं मगर उनकी नज़र साहिर पर ही अटक गयी।
उन्होंने ख़ुद लिखा कि वो साहिर के साए में उनके पीछे पीछे चलती रहीं और उन्हें एहसास हुआ कि –"मैं ज़रूर उनके साए में चलती रही हूँ,शायद पिछले जन्म से।"

साहिर से वो इश्क, वो दीवानगी जो एक साए से शुरू हुई, उनके साथ ताउम्र रही मगर सिर्फ एक साया बनकर।

अमृता को साहिर से इश्क़ बंटवारे से पहले,हिन्दुस्तान आने के पहले हुआ। अमृता देहरादून होते हुए दिल्ली आ बसीं और साहिर बम्बई(मुंबई) चले गए मगर सम्मेलनों,समागमों और ख़तोकिताबत के ज़रिये वे हमेशा जुड़े रहे।अमृता साहिर को ख़त लिखतीं और हर ख़त एक नज़्म होती।उनका इश्क़ किसी मुक्कमल रिश्ते की शक्ल तो न ले सका मगर दोनों की तरफ से नज्मों और कविताओं का अनमोल खज़ाना दुनिया को दे गया।

इमरोज़ कहते हैं कि इतने लम्बे सफ़र के दौरान साहिर नज़्म से बेहतरीन नज़्म तक पहुंचे,अमृता कविता से बेहतरीन कविता तक पहुँचीं,मगर ये जिंदगी तक नहीं पहुंचे।अमृता ने इसे ख़ामोशी के हसीं रिश्ते का नाम दिया।

आसमान जब भी रात का
और रौशनी का रिश्ता जोड़ते हैं
सितारे मुबारकबाद देते हैं
क्यों सोचती हूँ मैं
अगर कहीं...
मैं, जो तेरी कुछ नहीं लगती!

यदि अमृता को जानना है, तो हमें उनके भीतर झांकना होगा उनकी नज्मों और कहानियों की खिड़की से। अमृता की नज्मों में जादू है,उन्हें पढ़ते हुए एक तिलस्म सा तारी हो जाता है।

यूँ तो अमृता मोहब्बत करने वाले दिलों की मलिका हैं मगर उनकी कविताओं में सिर्फ इश्क़ या रूमानियत ही नहीं थी। उन्होंने समाज और दुनिया को बेहद करीब से देखा और उसका दर्द अपनी संवेदनशील कलम से पन्नों पर उतारा। बंटवारे का दर्द उन्होंने खुद भुगता है और अपनी आत्मकथा
"रसीदी टिकट" में उन्होंने लिखा-मैंने लाशें देखीं,लाशों जैसे लोग देखे थे। अपने दिल्ली के सफ़र के दौरान बाहर की वीरानियाँ देख उन्हें वारिस शाह की पंक्तियाँ याद आयीं जिनमें उन्होंने हीर का दुःख लिखा था -भला मोए ते बिछड़े कौन मेले (जो मर चुके हैं,बिछड़ चुके है उनसे कौन मिलन कराये...)
अमृता को लगा आज एक हीर नहीं पंजाब की लाखों बेटियां रो रही हैं, इनके दुःख को कौन गायेगा...और तब उन्होंने वारिस शाह को संबोधित करके अपनी कांपती कलम से लिखा-

अज्ज आक्खां वारिस शाह नूं किते कबरां बिच्चों बोल
ते अज्ज किताबे-इश्क दा कोई अगला वर्क खोल...
इक्क रोई सी धी पंजाब दी,तू लिख लिख मारे बैन
अज्ज लक्खां धीयां रोंदियां,तैनू वारिस शाह नु कहन...


इस कालजयी कविता ने उन्हें बाद में शोहरत की नयी ऊंचाइयां दी मगर जब ये लिखी गयी थी तब पंजाब में कई पत्र-पत्रिकाओं ने उन पर तोहमतें लगाई।यहाँ तक कि इस कविता के ख़िलाफ़ कई कविताएँ लिखी गयीं।

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अमृता औरत के दिल को बखूबी समझती थीं और अपने एहसासों को अपनी कहानियों में बेहद सुन्दर लफ़्ज़ों में लिखा।
उन्होंने जलियांवालाबाग़, देशप्रेम, राजनीति, किसान, मजदूर, फिरकापरस्ती, गुरुदेव, लेनिन, वियतनाम जैसे विषयों पर कविताएँ लिखीं।
अपने छियासी साल के जीवन में उन्होंने सत्तर साल लेखन करते हुए बिताये।
उन्होंने 28 उपन्यास,18 पद्य संकलन,कई लघु कथायें, आत्मकथा और संस्मरण लिखे।
वे पहली महिला थीं जिन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया,1957 में "सुनहरे" के लिए।

1969 में पद्मश्री,2004 में पद्मविभूषण,1982 में "कागज़ ते केनवस" के लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ अवार्ड मिला। शान्तिनिकेतन जैसे कई प्रसिद्द विश्वविद्यालयों ने उन्हें डी.लिट की मानद उपाधी से नवाजा।
गज़ब की कल्पनाशीलता और अद्भुत अभिव्यक्ति सामर्थ्य थी अमृता में। जबकि अपनी मानसिक स्थिति को समझने और सम्हालने के लिए उन दिनों वे साइकेट्रिस्ट से भी मिलती थीं और उसे बताने के लिए अपने सपनों को कागज़ पर लिख लेते थीं...जो बाद में "काला गुलाब" किताब में छपे।

मेरी रात जाग रही है
तेरा ख़याल सो गया.....
तेरे इश्क की पाक किताब
कितनी दर्दनाक है
आज मैंने इंतज़ार का सफ़ा
इसमें से फाड़ दिया.....

अमृता की नज्मों की तरह उनकी कहानियाँ भी ह्रदय को हौले से छू कर भी झकझोर दिए जाने का दम रखती हैं.

"पिंजर" उनका सबसे प्रसिद्द उपन्यास है, "पूरो" का किरदार पाठकों के दिल के भीतर नश्तर सा चुभ जाता है। उनके एक उपन्यास "धरती सागर और सीपियाँ" पर फिल्म बनी कादम्बिनी,1975 में। उस फिल्म के लिए उन्होंने एक गीत दिया जो दरअसल उन्होंने 1960 में इमरोज़ से पहली बार मिलने पर लिखा था-

"अम्बर की एक पाक सुराही,बादल का एक जाम उठाकर
घूँट चांदनी पी है हमने,बात कुफ्र की की है हमने"

अमृता जी की कहानियों के पात्र इसने सजीव होते थे कि यकीन करना मुश्किल था कि उन पात्रों को उन्होंने खुद नहीं जिया है,हालांकि उनका मानना था कि कई पात्र चेतन या अचेतन मन से उनकी आस-पास की जिंदगियों से जुड़े थे।

उनकी एक कहानी "नागमणि" जो "36 चक' नाम से भी छपी,उसकी नायिका अलका का चरित्र अमृता जी को खुद के सबसे ज्यादा करीब लगता है।

साहिर के ज़िक्र से इब्तेदा हुई तो इन्तहा इमरोज़ के ज़िक्र से ही होगी....
अमृता ने अपने जीवन का ज़्यादातर वक्त इमरोज़ के साथ बिताया।इमरोज़-एक बेहतरीन इंसान और जानेमाने चित्रकार हैं।अमृता ने अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में इमरोज़ का ज़िक्र एक अल्लाह के बन्दे की तरह किया है,जिसने हँसते हुए उनका हाथ थामा और चल पड़ा बिना कोई सवाल किये।

और इमरोज़ कहते हैं-

अमृता- आखर आखर कविता
कविता कविता ज़िन्दगी...

31 अक्टूबर 2005,दिल्ली में अमृता ने आख़री सांस ली....
"वे मैं तिड़के घड़े दा पानी,कल तक नइ रहना..."तब से अब तक वो बसी हैं मोहब्बत करने वालों की साँसों में खुशबू बन कर।

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