पढ़िए हमारे पाठक अंशुल कृष्णा की दो कविताएं

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पढ़िए हमारे पाठक अंशुल कृष्णा की दो कविताएंअंशुल कृष्णा की कविताएं

1. खुद को खत्म करने की तैयारी

जब मैं इस दुनिया में आया
तो खून से नहाया हुआ,
मैं कुछ 3 किलो का था ,
ऐसा मेरी माँ कहती है ,
फिर मुझे कब नहलाया गया,
कब एक नाम दे दिया गया ,
और कब उसके पीछे एक जाति लगा दी गयी,
मुझे कुछ पता ही न चला,
मैं अब हिन्दू ,ब्राह्मण ,हो चुका था ,
हिन्दू ,जो मुसलमानों से अलग था,
ब्राह्मण ,जो दलित नहीं था ,
ये सब मेरे साथ ही के और देवताओं के साथ भी हुआ ,
जो मेरी ही तरह उसी अस्पताल में ,ख़ून से नहाए हुए ,
पहली बार जब आये होंगे इस दुनिया में
तो तीन किलो के ही रहे होंगे ,
ऐसा मैंने अन्दाजा लगाया ,
अब वो भी मुसलमान ,बरेलबी होंगे,
जो हिन्दू से अलग होंगे,
जो देवबंदी नहीं होंगे,
इन सब शब्दो की हेरा फेरी में ,
एक सच जो था वो ये है कि,
जब तक संभाला होश मैंने ,
हम बंट चुके थे ,
आधे आधे,
चौथाई ,चौथाई ,
नहीं ,नहीं ,दरअसल हम इतने बंट चुके थे,
कि हम बचे ही नहीं थे,
मगर ये सारा दोष ,
उस तीन किलो के देवता बच्चे का तो नहीं था न ??
और दोष मेरी माँ का भी नहीं था ,
तो फिर कौन है खलनायक इस कहानी का,
कौन बनेगा नायक इस कहानी का ??
कौन करेगा खात्मा खलनायक का ,
शायद कोई नहीं ,क्योंकि सभी खलनायक हैं ,
और सभी नायक भी ,
हम खुद ही खुद को खत्म करने की तैयारी में लगे हुए हैं

2 . बदतमीज कविताएं

कुछ कविताएं बड़ी ही बदतमीज होतीं हैं !!

वे नहीं नांचती किसी बादशाह की महफ़िल में बांधकर घुंघरू , नहीं झुकतीं किसी तानशाह के सामने ...
किसी शहंशाह की शान में अपनी कुर्बानी भी नामंजूर होती है उन्हें !!
कुछ कविताएं अश्लील होतीं हैं !!

वे दिखा देतीं है उस बहशी नजर को
जो किसी मासूम बच्ची के जिस्म नोचने के मंसूबे तैयार कर रही होती है
वे दिखा देती हैं रात को किसी फुटपाथ पर लेटे तारों को तकते मासूम बच्चे बच्चों के भूखे पेट को !!
कुछ कविताएं बदचलन होतीं हैं
जिनमें अमीरजादों की काली करतूतों का जिक्र भी होता है और अपना जिस्म परोसती औरत की सिसकियाँ भी
जिनमें सड़क किनारे खड़े भिखारी का कीचड़ से सना चेहरा भी होता है और पीठ में समाता हुआ पेट भी

कुछ कविताएं कविताएं ही नहीं होती
क्योंकि
उनमें तुकबंदियाँ नहीं होतीं ,
लय नहीं होतीं ,संगीत नहीं होता ,
रस ,अलंकार ,छंद से भी वे बाकिफ नहीं होतीं
वे कविता होने के किसी पैमाने पर खरी नहीं उतरतीं

वे होती हैं सफेद मवाद
कवि के उन जख्मों का ,
जो उसे
जिंदगीं से ,समाज से
तोहफे में मिले होतें हैं

  

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