चीन समझ जाएगा मोदी और नेहरू का अन्तर

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चीन समझ जाएगा मोदी और नेहरू का अन्तरgaonconnection

चीन ने अनेक देशों की समुद्री सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए दक्षिण चीन सागर में कब्जा जमा रखा है। अन्तर्राष्ट्रीय अदालत ने इस कब्जे को अवैध करार दिया है। इससे दूसरे देशों के साथ ही तेल और गैस की खोज में भारत के व्यापारिक हितों की रक्षा होगी। चीन की समझ में आ रहा होगा कि नेहरू भावावेष में रिश्ते बनाते और बिगाड़ते थे लेकिन मोदी ठंडे दिमाग से सोच विचार कर आगे बढ़ते हैं। नेहरू का हिन्दी चीनी भाई-भाई का नारा जितनी गर्मजोशी से लगा था उतनी ही रफ्तार से ठंडा हो गया था। उसके बाद भारत और चीन का 1962 में युद्ध हुआ जिसमें भारत ने बहुत कुछ गंवाया।

ब्रुक्स की रिपोर्ट को एक पत्रकार मैक्सवेल ने लीक करके भारतीय राजनीति में हलचल मचा दिया। इस रिपोर्ट को भारत सरकार ने बड़ी जतन से पचास साल से दबाकर रखा था। छुपाने के अनेक कारण बताए जाते रहे जैसे गोपनीयता भंग होगी, भारतीय जन मानस का मनोबल गिरेगा आदि। सच यह है कि नेहरू का ग्राफ रसातल में चला जाता। यह देशहित में होगा कि पराजय के कारणों को उजागर करती हुई इस रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए जिससे भविष्य में वही गलतियां दोहराई न जाए।

 हमें ठीक प्रकार याद है कि जब चीनी सेनाएं हमारी सीमा में घुस रही थीं तो नेहरू ने श्रीलंका की यात्रा पर जाते हुए कहा था चीनी सेनाओं को खदेड़ दो और वे चले गए थे। शायद उन्हें अपनी सेना की तैयारी में कमियों का अन्दाज़ नहीं था। पचास के दशक में जनरल के एम करियप्पा ने अनेक बार कहा था कि हमारी सरहद तक रसद और रक्षा उपकरण भेजने के लिए सड़के नहीं हैं। इस बात को ना तो रक्षा मंत्री मेनन ने और ना ही प्रधानमंत्री नेहरू ने गम्भीरता से लिया था।  हद तो तब हो गई जब अख़बारों में छपा कि ऑर्डिनेंस फैिक्ट्रयों में काफ़ी परकोलेटर बन रहे थे। इस सब के होते हुए सेना की कमान जनरल कौल को सौंपी गई जिन्हें युद्धक्षेत्र का अनुभव ही नहीं था। 

चीन के हाथों भारत की पराजय और अपमान के बाद देश में बहुत आक्रोश था क्योंकि हम हारे थे कौल की अनुभव हीनता, हथियारों की कमी, वायुसेना का प्रयोग न करने और सड़कों के अभाव के कारण। सैनिकों की बहादुरी में कमी नहीं थी क्योंकि किसी सैनिक ने पीठ पर गोली नहीं खाई थी। मेनन ने अपना त्यागपत्र दिया और नेहरू ने स्वीकार कर लिया। नेहरू की जगह यदि लाल बहादुर शास्त्री होते तो उन्होंने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए त्यागपत्र दे दिया होता परन्तु नेहरू ने मेनन का त्यागपत्र स्वीकार करना पर्याप्त समझा। 

 नेहरू ने मुसीबत को न्योता उसी दिन दे दिया था जब उन्होंने तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग स्वीकार कर लिया था। पहले हमारी सरहदों के बीच तिब्बत पड़ता था अब दोनों देशों की सरहदें सट गई थी‍ं। उधर नेहरू की नीतियों के कारण पचास के दशक में कृषि को नजरअन्दाज किया गया था और हमारा देश धीरे-धीरे भुखमरी की ओर बढ़ रहा था जो 1966-67 तक आ ही गई। इसके विपरीत चीन जो हमसे एक साल बाद आजाद हुआ था, भुखमरी से दूर हटता गया। नेहरू ने अमेरिका को नकारा था और मोदी ने स्वीकारा है। समय बताएगा सही क्या है।

चीन के साथ हमारे सम्बन्धों के दो पक्ष हैं, एक तो हम आर्थिक रूप से चीन से पिछड़ क्यों गए और दूसरा हम 1962 के युद्ध में चीन से हार क्यों गए। पहले का उत्तर आसान है। हमने महात्मा गांधी का रास्ता छोड़कर ग्रामस्वराज को भुला दिया और चीन ने माओ का रास्ता पकड़कर गाँवों को समृद्ध बनाया। विकास का नेहरू मॉडल फेल हो गया जिसे त्यागने में भी बहुत देर की गई। विकास के मोदी मॉडल का परिणाम तो बाद में पता चलेगा लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के मामले में तो बेहतर लग रहा है। 

 

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