बुंदेलखंड लाइव: सूखी रोटी भी इनके लिए लग्जरी है, दूरदराज के गांवों की कड़वी हकीकत दिखाती 14 साल की एक लड़की

भारत के गांवों की कड़वी हकीकत दिखाती 14 साल की एक लड़की, इस लड़की के नजरिए से देखिए देश के लाखों लोग किस हाल में हैं, सूखी रोटी खाते ये बच्चे भारत का भविष्य हैं। भारत के हजारों गांव की दर्द को दिखाता ये गांव...

Arvind ShuklaArvind Shukla   29 Jun 2020 4:12 AM GMT

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मई की उस तपती दुपहरी में लॉकडाउन के सन्नाटे के बीच जब मैं अपनी टीम के साथ खैरपुरा गांव पहुंचा तो पहली नजर सामने खड़ी 7-8 साल की बच्ची पर गई। वो हाथ में ली सूखी रोटी तोड़-तोड़कर खा रही थी, नजदीक जाकर देखा तो रोटियों के बीच आम की एक फांकी (अचार) थी, ये अचार बिल्कुल सादा था, जैसे उममें सिर्फ मसाले की जगह नमक डाला गया था। जैसे वो बच्ची भोजन के नाम पर सूखी रोटियां खा रही थी।

उससे चंद कदम पर एक दूसरी बच्ची भी सूखी रोटी खा रही थी, लेकिन न तो उसकी रोटियों में अचार था और ना ही उसके शरीर पर कपड़े। हमारा कैमरा देखने के लिए कई बच्चे और बड़े लोग अपने घरों से बाहर आ गए थे, इनमें से कई लोगों के हाथ में सूखी रोटियां थीं।

बुंदेलखंड में ललितपुर जिले के खैरपुरा गांव की वो बच्चियां जिनसे गांव कनेक्शन टीम की सबसे पहले मुलाकात हुई। फोटो- यश सचदेव

कोविड-19 के चलते हुए लॉकडाउन से जब देश के बाकी हिस्सों की तरह बुंदेलखंड के हाईवे और सड़कों पर प्रवासी ही नजर आ रहे थे, गांव कनेक्शन की टीम अपनी सीरीज #CoronaFootprint के तहत बुंदेलखंड में लॉकडाउन के इंपैक्ट पर स्टोरी कर रही थी। हमारी कोशिश थी ये जानने की थी कि बुंदेलखंड वापस आने वाले प्रवासी आखिर पलायन क्यों करते हैं? साथ ही गांवों की दशा भी देखनी थी, जिन गांवों तक पहुंचने के लिए मजदूर और कामगार हजारों किलोमीटर पैदल, साइकिल और दूसरे जरियों से जद्दोजहद कर पहुंच रहे हैं।

Read in English COVID19 lockdown: In remote villages, people survive on just dry rotis

रौशनी (14 वर्ष) अपने गांव की वो दूसरी लड़की जो पढ़ने के लिए स्कूल जाती है। फोटो- यश सचदेव

हमारी टीम अपनी यात्रा के तीसरे दिन बुंदेलखंड में यूपी के हिस्से वाले ललितपुर जिले में मडावरा ब्लॉक की जलंधर ग्राम पंचायत के खैरपुरा गांव में थी। ये गांव दिल्ली से करीब 650 किलोमीटर दूर, मध्य प्रदेश की सीमा पर बसा है। गांव में ज्यादातर लोग सहरिया जनजाति के हैं जो जंगल से लकड़ी लाकर बेचते हैं। कुछ लोग महुआ और तेंदु पत्ता का भी काम करते हैं। आजीविका के नाम पर जंगल और मजदूरी के बाद पलायन आखिरी विकल्प है।

शुरुआत में कुछ लड़कियों और बच्चों के हाथ में सूखी रोटी देखकर लगा कि हमें बहुत अच्छे विजुअल मिल रहे हैं, कैमरा संभाल रहे यश सचदेवा से जल्दी इन्हें कैद करने को कहा, लेकिन जैसे जैसे गांव के अंदर जाता गया, अच्छे विजुअल मिलने की खुशी जाती रही। असली भारत की असली तस्वीर खुश होने वाली बिल्कुल नहीं थी। इसी बीच हमारी मुलाकात 14 साल की रौशनी से हुई। वह अपने खपरैल के घर के बाहर छप्पर के नीचे बैठकर खाना खा रही थी। खाने के नाम पर वही सूखी रोटी और अचार ही था।

"हमारा तो रोज का खाना ऐसा ही होता है सर, कभी नमक तो कभी अचार से रोटी खाते हैं। हमारा क्या हमारे पूरे गांव में सब लोग ऐसे ही खाते हैं, सब बहुत गरीब हैं ना।" रौशनी ने खाने के बारे में पूछने पर बताया।

अच्छा आखिरी बार तुम्हारे घर में दाल चावल रोटी सब्जी एक साथ कब बनी थी? इस सवाल का जवाब देने से पहले उसने मुंह का कौर खत्म किया, खटिया के नीचे रखा पानी और फिर जो कहा उस पर एक आम शहरी आदमी को एक बारगी विश्वास करना मुश्किल हो जाए।

"ठीक से तो याद नहीं लेकिन करीब एक महीना हो गया, जब दाल रोटी और चावल एक साथ बना था, सब्जी, सब्जी उस दिन भी नहीं बनी थी।"

14 साल की एक लड़की का खाना कैसा होना चाहिए? शरीर में आते हार्मोनल बदलावों के बीच कई डाइट चार्ट आपने शायद पढ़े या सुने होंगे। इतनी कैलोरी, इतना फाइबर, पोषण युक्त खाना, हरी सब्जियां, हेल्थ हाईजीन जैसे शब्द आज तक रौशनी के गांव पहुंचे ही नहीं थे।


रौशनी के मुताबिक उनके गांव में 160-170 घर हैं, जिनमें लगभग हर घर लड़कियां होंगी लेकिन पढ़ने सिर्फ वो और उसकी बहन जाते हैं, बाकि लड़कियां घर के काम और जंगल से लकड़ियां लाने का काम करती हैं।

ललितपुर जिले की जलंधर ग्राम पंचायत में खैरपुरा, बरौंदा, नीमटौरिया समेत 4 गांव आते हैं। खैरपुरा सहरिया आदिवासी बाहुल्य गांव है। ग्राम पंचायत में दो आंगनबाड़ी केंद्र, जिनके मुताबिक यहां पर 3 माह से 6 वर्ष के पंजीकृत बच्चे 206 हैं, 24 महिलाएं गर्भवती हैं, 71 किशोरियां हैं। जबकि धात्री महिलाओं की संख्या 20 है। आंगनबाड़ी के रजिस्टर्ड के मुताबिक सभी को सरकार की योजनाओं के मुताबिक पूरा लाभ मिल रहा है, लेकिन रौशनी कुछ और कहती हैं।

"हमारे गांव में न कोई अधिकारी आता है, न नेता। आशा बहु भी बस चक्कर लगाकर चली जाती है, वो सिर्फ कुछ लोगों के यहां जाती हैं। कई लोग ( बड़े लोग, कर्मचारी- अधिकारी) इसलिए भी हमसे बात नहीं करते क्योंकि हम लोग फटे पुराने, गंदे कपड़ों में रहते हैं।"

जैसे-जैसे रौशनी बोलती जा रही थी, सरकारी योजनाओं की धरातल पर पोल खुलती जा रही थी, रौशनी बताती है, उनके गांव में एक सरकारी स्कूल है, लेकिन वो गांव से दूर जंगल में बना दिया गया है। जहां छोटे बच्चे जाते हैं, जो जाते हैं उन्हें पढ़ाया नहीं जाता।

"हमारे यहां के जो बच्चे स्कूल जाते हैं, वो स्कूल में या तो खेलते रहते हैं, या फिर मास्टर साहब उन्हें ढोरो (जानवरों) की तरह एक कमरे में बंद कर देते हैं और खुद बातें करते रहते हैं। बच्चों को से कुछ नहीं मिलता। न किताब न कॉप न बैग, पढ़ाया भी नहीं जाता।"

रौशनी का गांव प्रेमचंद की कहानियां सा गांव लगता है, इन गांवों तक जैसे विकास की रौशनी नहीं पहुंची हैं, सरकारी योजनाएं यहां तक पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ जाती हैं। गांव में ज्यादातर घर कच्चे हैं, कुछ घरों में गाय और बकरियां भी नजर आती हैं। गांव के लोग उम्र से पहले बुजुर्ग दिखते हैं।

45 साल की केसर के तीन बच्चे हैं। शर्तों के साथ लॉकडाउन में बाजार खुल गए थे (20 मई) थे, लेकिन उन्हें इसकी जानकारी नहीं, इसलिए वो लकड़ियां लेकर बाकी दो महीनों की मडवरा (नजदीकी कस्बा) नहीं गई थीं। केसर के मुताबिक सरकार से मुफ्त राशन मिल रहा है, (गेहूं, चावल के साथ एक किलो चना) लेकिन इतने में घर का गुजारा नहीं होता। वह सरकार से मिले चने को पीसकर बनाए गए बेसन को पानी में भिगोकर एक खास डिश (व्यंजन) बनाती हैं, वो उस दिन उसे चाटकर रोटी खा रही थी।

"लॉकडाउन खुलेगा तो हम लोगों को मजदूरी मिलेगी नहीं तो हम लोग भूखों मरेंगे, क्योंकि जंगल से लकड़ी लाने का काम बंद है, मजदूरी मिल नहीं रही। सरकार से कोई पैसा (जनधन और रसोई गैस) खातों में नहीं आया, क्योंकि हमारा खाता बंद है, कई बार प्रधान से कहा लेकिन वो सुनते नहीं।'

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जलंधर ग्राम पंचायत में 323 पात्र गृहस्थी हैं, जिनके जरिए 1109 लोगों को लाभ हो रहा। लोगों के पास अंत्योदय के 90 कार्ड हैं, जिससे 230 लोगों को लाभ हो रहा। कुल मिलाकर 413 लोगों के पास राशन कार्ड है, जिससे लाभार्थियों की संख्या 1339 तक पहुंचती है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक गांव की आबादी 1941 है, जिसमें 340 एससी (अनुसूचित जाति) और 447 एसटी (अनुसूचित जनजाति) हैं। निर्वाचन नामवाली 2020 की वोटर लिस्ट के मुताबिक 1329 मतदाता है। अब राशन कार्ड की संख्या देखें तो लाभार्थी ज्यादा है। यानी ये गांव अति पिछड़ा और तभी सरकार सभी गरीबों को राशन दे रही।

"हमारे गांव (खैरपुरा) में ज्यादातर लोगों के कार्ड बने हैं लेकिन सबको मुफ्त का राशन नहीं मिलता। कई बार हम लोगों को सड़ा हुआ गेहूं चावल और चना दिया जाता है, जैसे हम लोग जानवर हैं। उन्हें लगता है ये गरीब हैं, पढ़े लिखे हैं नहीं तो इन्हें क्या समझ आएगा लेकिन क्या हम लोगों का अच्छा खाने का अधिकार नहीं।" रौशनी सवाल उठाती हैं।

देश भर में सार्वजनिक राशन वितरण प्रणाली (पीडीएस) में पारदर्शिता लाने के लिए आधार आधारित व्वयस्था की गई है। लाभार्थी को जाकर अंगूठा लगाना होता है तब राशन मिलता है, लेकिन इस नई व्यवस्था में हजारों लोगों के नाम राशन लिस्ट से कट गया। ऐसे लोगों को लॉकडाउन में काफी मुश्किलें हुईं। यूपी सरकार ने कहा था कि बिना राशन कार्ड वाले गरीबों को भी राशन दिया जाए, लेकिन कोटेदारों ने जमीन पर इस आदेश पर अमल नहीं किया। जिससे खैरपुरा में कई लोगों को राशन नहीं मिला।

अपना गांव और वहां की गरीबी दिखाते हए रौशनी सरकारी योजनाओं की नाकामी और अधिकारियों की उदासीनता पर लगातार बोलती हैं।

"मैंने सुना है मोदी जी ऊपर से गरीबों के लिए काफी कुछ भेज रहे हैं, लेकिन कुछ लोग हम जैसे गरीबों तक वो सुविधाएं पहुंचने नहीं देते।" रौशनी कहती हैं।

गांव के बीच से निकली सड़क के दूसरे तरफ भी कई घर हैं। एक पेड़ के नीचे डाल पर साड़ी का झूला पड़ा है, बच्चा सो रहा है। वहीं पास में खड़ी महिला से रौशनी परिचय करती है, ये मेरी भाभी हैं सुनीता, इनके चार बच्चे थे, दो पहले वाले जिंदा है, लेकिन बाद में दो बार गर्भवती हुई लेकिन बच्चे नहीं बचे।

सुनीता के मुताबिक उनका दो बार गर्भपात हो गया। डॉक्टरों ने कहा कि तुम बहुत कमजोर हो, इसलिए ऐसा हुआ। गांव में काम न मिलने पर सुनीता कुछ समय पहले मजदूरी के लिए अपने पति के साथ गोवा चली गई थीं। वह गर्भावस्था के दौरान काम करती थीं। इसी दौरान उन्हें पेटदर्द हुआ। डॉक्टर के पास गईं, लेकिन अल्ट्रसाउंड के 600 रुपए मांगे गए जो उनके पास नहीं थे। कुछ दवाएं लेकर वापस अपने कमरे पर आ गईं। कुछ दिन बाद फिर दर्द उठा, इस बार 1000 रुपए की जरूरत थी, पैसे फिर उनके पास नहीं थे, और फिर दर्द के बीच उनका गर्भपात हो गया।

"वे (डॉक्टर- नर्स ) कहते हैं कि तुम खूब हरी-हरी सब्जी खाओ, लेकिन हरी सब्जी नहीं मिली। गांव में भाटा (बैंगन) रोटी या नमक रोटी मिलती है। गर्भावस्था के दौरान दूध, घी, हरी सब्जी चाहिए, लेकिन वो कहा मिलता है। पहले के दो बच्चों के दौरान टीके लगे थे, लेकिन बाद में कुछ नहीं हुआ, विटामिन तक की गोलियां तक नहीं मिलीं।' सुनीता, गांवों में पोषण और स्वास्थ्य सेवाओं की एक और कड़वी हकीकत बताती हैं।

अपनी भाभी की बात को आगे बढ़ाते हुए रौशनी सवाल करती हैं- नमक रोटी खाकर पोषण कैसे मिलेगा सर?

रौशनी कहती हैं, "आशा बहू हमसे बात तक नहीं करती, टीका कब लगेगा? वो तो हमारे पास ही नहीं आना चाहती, वो दूर ही दूर रहती हैं, कोई हमें छुए नहीं, धूल माटी लगी है। हमारे गांव के बगल में नीमटोरिया गांव है, वहां भी सहरिया रहते हैं, उनके साथ भी ऐसा ही होता है।"

खैरपुरा से कुछ किलोमीटर दूर जलधंर गांव है। ये गांव, पंचायत के गांव से बिल्कुल अलग है। ज्यादातर घर पक्के हैं, खपरैल लगभग सभी घरों में है। घर भी रंगे पुते हैं। यहां ऊंचे टीले पर प्रधान का घर दो मंजिला घर है। घर के बाहर लोहे का बड़ा सा गेट लगा है, अंदर एसयूवी गाड़ी भी खडी है। मौजूदा प्रधान दीपा सिंह हैं, उनके पति भी प्रधान थे, लेकिन परधानी सही मायने में उनके बेटे वैभव सिंह चलाते हैं।

सहरिया आदिवासियों की समस्या बताने पर ग्राम प्रधान दीपा सिंह कहती हैं, "राशन सबको मिलता था, लेकिन वो अंगूठा लगने लगा है तो कुछ लोगों को दिक्कत है। हम लोगों ने कोटेदार को कई बार कहा है कि सबको फ्री में राशन दो, लेकिन कोटेदार कहता है जिसका फिंगर (थंब इंप्रेशन) नहीं लगा, उसे नहीं देंगे । वो दो महीने का अंगूठा लगवाता है लेकिन एक महीने का राशन बांटता है।"

प्रधान के पास के कई अधिकार हैं, जिसके तहत वो गरीबों की बेहतरी और पंचायत के विकास के लिए काम कर सकती हैं। इसके अलावा गांव कनेक्शन ने उसने मरनेगा में काम न मिलने की लोगों की शिकायत के बारे में बताया, जिस पर ग्राम प्रधान दीपा सिंह ने 'इतनी' जानकारी होने से इनकार कर दिया। पीछे खड़े उनके बेटे वैभव सिंह की तरफ वो देखती हैं।


जलधंर और खैरपुरा गांव एक ही ग्राम पंचायत के हिस्सा हैं लेकिन दोनों के रहन-सहन में बहुत अंतर है? इस सवाल के जवाब में वैभव कहते हैं, "ये लोग पढ़े लिखे हैं, जानकारी भी नहीं है। दारूवारी भी पीते हैं। अब सरकारी स्कूलों में जैसी व्यवस्थाएं होती हैं वो होती है।"

शौचालय, आवास, मनरेगा समेत कई काम प्रधान के जिम्मे होते हैं वो मैनेज करा सकते हैं? इस सवाल के जवाब में वैभव कहते हैं, " मनरेगा में 30-40 लोगों को रोजकाम देते हैं, बाकी ये लोग काम करने कहीं जाते नहीं, दूसरा जनता काम है कि वो आरोप लगाती रहती है।'

अपना काम करके हम लोग दूसरी खबर की तलाश में चल पड़े थे, लेकिन कानों में रौशनी के शब्द गूंज रहे थे,

"सर आज हम बहुत खुश हैं, कम से कम किसी ने आकर हमसे बात तो की। वर्ना सब दूर से दुत्कारते हैं"

गांव कनेक्शन ने रौशनी से वादा किया है उन्हें गांव कनेक्शन की नागरिक पत्रकारिता (कम्युनिटी जर्नलिस्ट) से जोड़ा जाएगा, उन्हें ग्रामीण पत्रकार बनाने के लिए ट्रेनिंग दिलवाई जाएगी ताकि वो इसी तरह अपने गांव की आवाज बन सकें।

रिपोर्टिंग सहयोग- अरविंद परमार, यश सचदेव

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