चंबल से ग्राउंड रिपोर्ट- 'सरकार हमें अपने क्षेत्र में सिर्फ रोजगार दे मुफ्त में कुछ भी नहीं चाहिए'

चंबल के बीहड़ों में वर्षों बाद अपने गाँव लौटे हजारों प्रवासी मजदूरों की मनोदशा को समझने के लिए #CoronaFootprint सीरीज में गाँव कनेक्शन की टीम बीते एक सप्ताह में चंबल से सटे यूपी, राजस्थान और मध्यप्रदेश के उन गांवों में पहुंची जहाँ ये मजदूर लॉकडाउन में अपने गाँव को लौटे थे। सदियों से इन बीहड़ों में डकैतों का कहर रहा है। प्रवासियों को अब फिर जिंदा रहने का डर सता रहा है, डाकुओं से नहीं बेरोजगारी से ... चंबल से पढ़िए ग्राउंड रिपोर्ट

Neetu SinghNeetu Singh   20 Jun 2020 6:45 AM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo

नीतू सिंह/सुयश साजिदा

इटावा/धौलपुर/मुरैना (चंबल)। वर्षों से सुनसान पसरे बीहड़ों के गांवों में इन दिनों चहल-पहल है। रोजी-रोटी की तलाश में जो मजदूर कई साल पहले गाँव से पलायन कर चुके थे अब वो अपनी चौखट पर वापस आ गये हैं। लंबे अरसे से पलायन की वजह से जहाँ एक तरफ इन मजदूरों को सरकार की तमाम योजनाओं का लाभ नहीं मिलता वहीं दूसरी तरफ इनके पास गाँव में रोजगार का कोई संसाधन नहीं है। अभी सरकारी कोटे से मिल रहे राशन को यह कितने दिन तक खाएंगे? यह चिंता अब इन्हें बेचैन कर रही है।

उबड़-खाबड़ रास्तों के बीच ऊँचे टीलों पर बसे गढ़िया मुलू सिंह गाँव में दोपहर करीब एक बजे पीपल के पेड़ की छाँव में बैठे कई युवा और बुजुर्ग सुस्ता रहे थे। कुछ देर में यहाँ 50 से ज्यादा लोग इकट्ठा हो गये। इस भीड़ में शामिल 60 वर्षीय हरबिलास 25 साल बाद अपने इस गाँव में 23 मार्च को वापस आये थे। जमीन और आसपास रोजगार के साधन न होने की वजह से इनका पूरा परिवार पलायन कर गया था।

चंबल के कैथोली गाँव में 50 फीसदी लोग खुद खाना बनाकर खाते हैं क्योंकि इनकी शादी नहीं हुई है.

राजस्थान से लौटे हरबिलास बताते हैं, "यहाँ आसपास कोई काम धंधा नहीं है। मजदूरी भी नहीं मिलती। खेती है नहीं हमारे पास। पेट पालने के लिए 25 साल पहले गाँव छोड़ दिए थे। कुछ दिन आगरा रहे, अब 13 साल से झालाबाड़ में कमा-खा रहे हैं। घर से बाहर बहुत दिक्कतें हैं। अगर अपने ही क्षेत्र में हमें रोजगार मिले तो शायद हममे से कोई भी बाहर न जाए।"

अगर यहाँ रोजगार न मिला तो आप क्या करेंगे? इस सवाल के जबाव में हरबिलास बोले, "रोजगार नहीं मिला तो वापस जाना हमारी मजबूरी होगी। जहां काम करता था वहां से अभी तक कोई फोन नहीं आया। पता नहीं कब फैक्ट्री खुलेगी और कब काम मिलेगा?" सरकार यहीं छोटे कारखाने खोले जिससे हम लोगों को बाहर न जाना पड़े। बाहर जाने का किसका मन करता है पर क्या करें मजबूरी है?"

अपने ही क्षेत्र में रोजगार की मांग करने वाले बीहड़ क्षेत्र के हरबिलास पहले शख्स नहीं हैं। गाँव कनेक्शन की टीम बीते एक सप्ताह चंबल से सटे यूपी, राजस्थान और मध्यप्रदेश के उन गांवों में पहुंची जहाँ कोरोना संक्रमण के दौरान हजारों की संख्या में मजदूर वापस लौटे हैं। बीहड़ के इन गांवों के दर्जनों प्रवासी मजदूरों की पीड़ा हरबिलास से मिलती जुलती है। यहाँ के लोग छोटे उद्योगों की मांग कर रहे हैं जिससे उन्हें पुन: पलायन न करना पड़े।


लॉकडाउन में जब 23 लाख प्रवासी मजदूर यूपी लौटे थे तब राज्य सरकार ने एक सर्वे किया था जिसमें 77 फीसदी मजदूरों ने यह कहा था कि वह वापस नहीं जाना चाहते हैं, वो यूपी में ही रहकर काम करना चाहते हैं। लॉकडाउन के दौरान देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 35 लाख से ज्यादा प्रवासी मजदूर दूसरे राज्यों और शहरों से वापस लौटे हैं। कोरोना संक्रमण के चलते लॉकडाउन के दौरान गांवों में रोजगार को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार की ओर से मनरेगा में एक लाख करोड़ से ज्यादा बजट का जारी किया गया है। इसमें वर्ष 2020-21 के लिए जारी 61,500 करोड़ रुपए के अलावा 40,000 करोड़ का अतिरिक्त बजट दिया गया है ताकि अपने गाँव को लौटे प्रवासी मजदूरों को मनरेगा में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये जा सकें।

पर सरकार के इस बजट का बीहड़ के लोगों पर कोई ख़ास असर नहीं दिख रहा है। इटावा जिला मुख्यालय से लगभग 32 किलोमीटर दूर बीहड़-चंबल क्षेत्र में बसे बढ़पुरा ब्लॉक के मिहौली ग्राम पंचायत के गढ़िया मुलू सिंह गाँव के अलकेश सिंह यह बताते हुए अपने आंसुओं को रोक नहीं पाए कि कैसे दूसरे राज्यों से उन्हें खदेड़कर भगाया गया है? अलकेश सिंह (40 वर्ष) जब यह बता रहे थे तब आसपास एकदम सन्नाटा पसर गया, "जिन राज्यों में हम कमाने जाते हैं वहां से हमें खदेड़कर भगाया जाता है। अपमान किसे बर्दाश्त होता है? भूखे-प्यासे पैदल चलके, पुलिस के डंडे खाये तब कहीं जाकर ये लोग (प्रवासी मजदूर) गाँव पहुंचे हैं। उस शहर में कैसे जाने का मन करेगा? पर मजबूरी जो न कराए वो कम है।"

गढ़िया मुलू सिंह गाँव के लोगों ने गाँव से जुड़ी कई समस्याएं बताई.

उस भीड़ में पलायन के दर्द को बताते हुए अलकेश लगातार रोए जा रहे थे, वहां खड़े कई लोगों की आखों में आंसू आ गये, सब खामोश थे। अलकेश उदास मन से बता रहे थे, "अभी तो दो तीन महीने सरकार की तरफ से सबको फ्री में राशन मिल रहा है पर इससे कबतक काम चलेगा? सरकार हमें हमारे क्षेत्र में सिर्फ रोजगार दे मुफ्त में कुछ भी नहीं चाहिए। हम मेहनती लोग हैं रोजगार का परमानेंट साधन मिल जाएगा पूरा जीवन काट लेंगे,"

ग्रामीणों के मुताबिक मिहौली ग्राम पंचायत में ऐसा कोई घर नहीं है जिस घर का कोई व्यक्ति बाहर रोजी-रोटी कमाने के लिए न रहता हो। इस ग्राम पंचायत में बीते ढाई तीन महीने में लगभग 400 मजदूर वापस आये हैं। कोरोनाकाल में इटावा जिले के बीहड़ क्षेत्र के जसवंतनगर, चकरनगर, बढ़पुरा ब्लॉक के 100 ग्राम पंचायतों में 7,000 मजदूर केवल ट्रेन से आये हैं। जो पैदल या दूसरे साधनों से आये हैं उनका कोई आंकड़ा कहीं दर्ज नहीं है।

कोविड-19 के दौरान आठ करोड़ प्रवासी मजदूर वापस लौटे हैं ये आंकड़े राज्य सरकारों से मिले डेटा के आधार पर जुटाए गये हैं। यह पहला मौका है जब राज्य सरकारों ने प्रवासी मजदूरों का आंकड़ा खुद दिया है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह घोषणा की है कि सरकार आठ करोड़ प्रवासी मज़दूरों के लिए अगले दो महीने तक खाने का इंतजाम कर रही है जिसके लिए 3500 करोड़ रुपये की राशि का एलान किया है। पर बीहड़ के इन गांवों में इन योजनाओं का कोई ख़ास असर नहीं दिख रहा है।

"इस बार ऐसे हालात बने हैं जिस वजह से हममे से कोई भी दूसरे राज्य में कमाने नहीं जाना चाहता है पर सरकार जब हमें यहाँ रोजगार देगी तभी यह संभव होगा। बीहड़ों के गाँव में कोई सुध लेने नहीं आता तो योजनायें कहां से आयेंगी? कर्ज लेकर खर्चा चला रहे हैं पर कबतक ऐसा चलेगा?", ये बताते हुए सतेन्द्र सिंह (33 वर्ष) चिंतित थे। ये 12 साल से दिल्ली में प्राइवेट फैक्ट्री में काम करते हैं इनकी कमाई से ही पूरे परिवार का खर्चा चलता है।

सतेन्द्र ने बताया, "अगर हमलोग बाहर कमाने नहीं गये तो घर का चूल्हा जलना मुश्किल हो जाएगा। जो थोड़ी बहुत खेती है उसमें पानी की किल्लत की वजह से साल में एक ही फसल होती है। कई बार फसल कटाई के समय बाढ़ आ जाती है और पूरी फसल बह जाती है। हर बार सबको मुआवजा मिल जाए ये जरूरी नहीं है। ऐसे में अगर बाहर जाकर कमाएंगे नहीं तो परिवार का खर्चा कैसे चलेगा।"

इस गाँव में कई सालों बाद इतनी चहलकदमी हुई है। कुछ लोग तो बहुत सालों बाद गाँव वापस आये हैं। लेकिन फिर भी किसी के चेहरे पर खुशी नहीं है सब अपनी रोजी-रोटी को लेकर चिंतित हैं। जबसे ये गाँव आये हैं खाली बैठे हैं वापस इन्हें काम पर कब बुलाया जाएगा इसका इन्हें कोई अंदाजा नहीं है।

अलकेश के पास मजदूरों की समस्या बताने के लिए बहुत कुछ था। वो बोले, "हम बीहड़ गाँव के लोग केवल टीबी में देख लेते हैं, अखबार में पढ़ लेते हैं और रेडियो में सुन लेते हैं कि सरकार की कोई नई योजना शुरू हुई है पर उसका लाभ हमें कभी नहीं मिलता। इन गांवों में पहले डाकुओं का ऐसा कहर रहा है कि विकास के नाम पर यहाँ कुछ नहीं पहुंचा। आज भी हमारे गाँव में मास्टर, डॉक्टर, पुलिस कोई भी आने को तैयार नहीं होता।"

"पेट पालने के लिए यहाँ कुछ है नहीं, बाहर जाना मजबूरी है। सरकार को इस समय गाँव की तरफ ज्यादा ध्यान देना चाहिए सिर्फ राशन बांटने से कुछ नहीं होने वाला है। हम पहाड़ी गाँव के लोग लकड़ी काटकर बेचें तो अपराध है. मजदूरी मिलती नहीं। मनरेगा में ज्यादा काम कुछ होता नहीं. यहाँ हम जैसे-तैसे जी तो सकते हैं पर खुश नहीं रह सकते, " अलकेश ने अपनी बात जारी रखी, "सरकार रोजगार का हमें परमानेंट साधन दिलाये तभी यहाँ के लोगों का कुछ भला होगा। क्या-क्या समस्या बतायें? मुश्किलें इतनी हैं कि एक चिट्ठी भर जायेगी।"

बीहड़ के गांवों में बेरोजगारी है एक बड़ी समस्या.

यहाँ के बीहड़ों से डाकूओं के प्रमुख गिरोहों का सफाया बीते 20-25 सालों में तो हुआ है पर इनका जीवन अभी भी दुश्वारियों भरा है। अब यहाँ डाकुओं की दहशत तो नहीं बची है पर जीवकोपार्जन के लिए मुश्किलें अभी भी कम नहीं हुई हैं। इन क्षेत्रों में लोगों का पलायन करना मजबूरी है क्योंकि यहाँ रोजगार का कोई संसाधन नहीं है। जिनके पास जमीने हैं वो धीरे-धीरे बीहड़ में तब्दील होती जा रही हैं। जो जमीने अभी बची हैं उनमें केवल बरसात के पानी से ही फसल होती है, वो भी अगर फसल की कटाई के समय बाढ़ आ गयी तो हजारों बीघा तैयार फसल किसानों की बर्बाद हो जाती है।

चंबल क्षेत्र में समस्याओं से जूझते कुछ इलाके हैं जिसमें उत्तर प्रदेश का 12.30 लाख हेक्टेयर क्षेत्र , मध्य प्रदेश का सात लाख हेक्टेयर क्षेत्र और राजस्थान का 4.52 लाख हेक्टेयर क्षेत्र आता है। यहाँ तीन दशकों में 10 फीसदी गांव पूरी तरह से बीहड़ों में समा गए हैं। बीहड़ो के बढ़ते कटावा से मध्य प्रदेश के ग्रामीण खासे परेशान हैं। मुरैना, भिंड ओर श्योपुर के 1043 गांव तबाह हो चले हैं।

चंबल के लोगों की रोजी-रोटी में पशुपालन का है महत्वपूर्ण योगदान.

मध्यप्रदेश के मुरैना जिले के जौरा गाँव के रहने वाले सतीश मिश्रा (50 वर्ष) अपने यहाँ पलायन की बड़ी वजह बताते हैं, "अगर लोग बाहर कमाने नहीं जायेंगे तो खायेंगे क्या? तीस साल पहले यहाँ शक्कर मील लगी थी जिससे बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लोगों को रोजगार मिल सके। पिछले दस साल से वो भी बंद पड़ी है। कोरोना की वजह से तीन महीने से लोग बिलकुल खाली बैठे हैं अगर ये मील चल जाए तो लोगों को यहीं रोजगार मिल सकता है।"

"यहाँ छोटे-छोटे उद्योग लगने चाहिए जिससे यहाँ का पलायन बढ़ी संख्या में रोका जा सके। नदी के किनारे बसे गाँव में सरकार की तरफ से मजबूत बंधा लगाया जाए जिससे पानी ऊपर न चढ़ सके और किसानो की फसल नष्ट न हो। सुविधाएं न होने की वजह से गाँव के गाँव उजड़ते जा रहे हैं। जो लोग अभी वापस आये हैं उन फैक्ट्रियों से अभी उन्हें बुलावा नहीं आया है, डर भी है अगर वापस गये तो कहीं फिर से न भागना पड़े, " सतीश मिश्रा ने प्रवासी मजदूरों की मुश्किलें बताईं।

धौलपुर जिले के लुहारी गाँव के मनोज कुमार ने बताया कि गाँव में नहीं है रोजगार के कोई साधन.

गाँव लौटे प्रवासी मजदूरों को रोजगार मिल सके इसके लिए केंद्र सरकार ने गांवों में रोजगार को बढ़ावा देने के लिए मनरेगा के साथ-साथ 'जल जीवन मिशन' के तहत राज्यों को बड़ी धनराशि जारी कर दी है। इस मिशन के जरिये सभी राज्य गाँव लौटे प्रवासी मजदूरों को रोजगार उपलब्ध करा सकेंगे। कोरोना संकट के समय में इस मिशन के तहत वर्ष 2020-21 में राज्यों को 30,000 करोड़ रुपये का बजट उपलब्ध कराया जा रहा है। इससे 14.8 करोड़ ग्रामीण परिवारों के घरों में पाइप के जरिये पानी पहुँचाने की योजना है। इससे लॉकडाउन की वजह से लाखों की संख्या में अपने गांवों को लौटे प्रवासी मजदूरों को रोजगार मिल सकेगा।

सरकार की इन तमाम घोषणाओं से चंबल के लोग पूरी तरह से बेखबर हैं। राजस्थान के धौलपुर जिले के लुहारी गाँव के रहने वाले मनोज कुमार (28 वर्ष) भोपाल में नौकरी करते हैं। मनोज बताते हैं, "गाँव में कोई काम नहीं है, मनरेगा से गाँव में किसको-किसको रोजगार मिलेगा? क्या मनरेगा के काम से हर महीने की रोजी-रोटी चल सकती है? मजदूरों के लिए सरकार क्या कर रही हैं जबतक हमें उसका लाभ नहीं मिलेगा हम कैसे जानेगे कि हमारे लिए कोई योजना भी बनी है।"


   

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.