चंबल से ग्राउंड रिपोर्ट: बीहड़ के इन उजड़ते गांवों के पीछे क्या है वजह ?

कटीली झाड़ियों के बीच ऊँचे टीलों पर बसे घुरा और पूंछरी गाँव में अब गिनती के घर बचे हैं। उजड़ने के कगार पर पहुंच चुके बीहड़ के इन दो गाँव की मुश्किलें देखकर आप यहां उजड़ रहे सैकड़ों गाँव के उजड़ने की वजह का आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं।

Neetu SinghNeetu Singh   21 July 2020 2:45 AM GMT

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जसवंतनगर (इटावा)। कभी नदियों की बाढ़ तो कभी जंगल की सुलगती आग से बीहड़ के लोगों में हमेशा दहशत रहती है। इन प्राकृतिक आपदाओं एवं सरकार की अनदेखी की वजह से बीहड़ी गाँव तेजी से उजड़ रहे हैं।

कोरोना फुट प्रिंट सीरीज में गाँव कनेक्शन की टीम कोरोनाकाल में चंबल से सटे बीहड़ के उन कई गाँव में पहुंची जहां अब गिनती के घर ही बचे हैं। वीरान हो चुके इन गाँव की कहानियां यहाँ के बुजुर्ग बताते हैं।

दोपहर में पेड़ की छाँव में चारपाई पर सुस्ता रहे घुरा गाँव के अस्सी वर्षीय हुब्बालाल गाँव कनेक्शन की टीम को अपने गाँव के उजड़ने की वजह बताते हैं, "सरकार की कोई योजना आयी है ये तो हम जब बाजार जाते हैं तो सुन लेते हैं, पर वो योजना हमारे गाँव में कभी आयेगी इसकी हमें कोई उम्मीद नहीं रहती।"

इस गाँव के लोग गाँव छोड़कर बाहर क्यों जा रहे? इस पर हुब्बालाल बोले, "एक तो गाँव में कोई साधन-सुविधा नहीं है। दूसरा साल 1978 में तेज यमुना (यमुना नदी की बाढ़) आ गयी, पूरा गाँव बह गया। तब कुछ लोग गाँव छोड़कर बाहर चले गये, जो बचे उन्होंने दोबारा से घर बनाया। सन 2,000 में बहुत भीषण आग लग गयी फिर सब खत्म हो गया। दोबारा से घर 10-12 परिवारों ने ही बनाया बाकी सब चले गये।"

ये हैं शोभाराम, जिनका आरोप है कि इन्हें अबतक सरकार की किसी योजना का कोई लाभ नहीं मिला.

हुब्बालाल अपने घर की मिट्टी की गिरी पड़ी दीवार की तरफ इशारा करते हुए उदासी से बोले, "कोई नहीं रहना चाहता ऐसे घरों में, हम यहां गरीबियत में पड़े हैं। गरीबियत का मतलब यही है कि इसी गाँव में रह जाओ, समय व्यतीत कर रहे हैं यहाँ बस। यहां से जाएं तो जाएं कहाँ? पैसा होता तो हम भी शहर चले जाते।"

कटीली झाड़ियों के बीच ऊँचे टीले पर बसे घुरा गाँव में आज से 20 साल पहले 60-70 घर थे लेकिन अब इस गाँव में केवल 10-12 घर बचे हैं। इस गाँव से डेढ़ दो किलोमीटर दूर पूंछरी गाँव हैं जहाँ 15-20 साल पहले 250 लोगों की आबादी थी, अभी इस गाँव में केवल 60 लोग बचे हैं। उजड़ने के कगार पर पहुंच चुके बीहड़ के इन दो गाँव की मुश्किलें देखकर आप इनके उजड़ने की वजह का आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं।

ये गाँव सरकार की उपेक्षा एवं प्राकृतिक आपदाओं का हमेशा से शिकार रहे हैं। चंबल से सटे इन बीहड़ गाँव में पहले वर्षों तक डकैतों का कहर रहा और अब दुर्गम रास्ते होने की वजह से इन गांवों तक मूलभूत सुविधाएं नहीं पहुंच सकीं। अभी भी आगजनी और बाढ़ से लोगों के मन में हमेशा दहशत रहती है।

इन क्षेत्रों में खेती के लिए पानी नहीं, बच्चों की पढ़ाई के लिए स्कूल नहीं, इलाज के लिए कमसेकम 20 किलोमीटर दूर अस्पताल है। इन गाँव में लोग शादी करने से कतराते हैं। अगर एक बार बाढ़ आ गयी तो तीन चार महीने एक जगह ही फंसे रह जायेंगे। जंगलों में आग लग गयी तो हफ्तों बुझती नहीं। जिंदगी से जद्दोजहद कर रहे यहाँ के लोग साल दर साल गाँव छोड़कर चले जाते हैं, धीरे-धीरे ऐसे ही गाँव के गाँव उजड़ रहे हैं।

'बीहड़ में साइकिल' किताब के अनुसार प्रसिद्ध चंबल घाटी के जिलों में लगभग 10 प्रतिशत गाँव सूने हो चुके हैं।

पूंछरी गाँव में ये बाबा कई साल से अकेले एक झोपड़ी में खुद खाना बनाकर खाते हैं.

कोरोनाकाल में इन गांवों में चहल-पहल तो है पर इनकी मुश्किलें भी कम नहीं हैं। क्योंकि यहाँ रोजगार का कोई साधन नहीं है जिस वजह से हर घर से कोई न कोई बाहर कमाता है जिससे घर का खर्चा चल सके, पर लॉकडाउन में सब अपने-अपने गाँव वापस आ गये हैं। इनके पास जो जमा पूंजी थी वो खत्म हो गयी। अब इनके लिए एक-एक दिन काटना भारी पड़ रहा है।

बीहड़ क्षेत्र के लोगों की रोजी-रोटी कैसे चलती है? इस पर हुब्बालाल बोले, "सब भगवान भरोसे है। थोड़ी बहुत खेती है पर पानी का कोई साधन नहीं है, साल में बरसात के पानी से एक फसल ही होती है, अगर बाढ़ आ गयी तो वो भी बह जाती है। दो तीन बकरियां हैं, एक भैंस है, बस यही कमाई का साधन है। पेट भरने का इंतजाम खुद करना पड़ता हैं, हम सरकार के भरोसे नहीं रहते हैं।"

इटावा जिला मुख्यालय से लगभग 40 किलोमीटर दूर जसवंतनगर ब्लॉक के घुरा गाँव में मिट्टी के बने इन घरों की जर्जर दीवारें कभी भी गिर सकती हैं। छाँव के लिए इन मिट्टी की दीवारों पर छप्पर रखे हुए हैं। घर के अन्दर कोई जंगली जानवर न घुस जाए इसलिए इन घरों के चारो तरफ कटीली झाड़ियां रखी हैं। इस गाँव में कुछ-कुछ दूरी पर घर बने हैं, ये ज्यादातर जर्जर स्थिति में हैं जो कभी भी गिर सकते हैं।

पूनम गिरे पड़े घर के सामने अपने बच्चों के साथ.

नल पर पानी भर रहीं पांच महीने की गर्भवती पूनम कुमारी (30 वर्ष) सरकारी योजनाओं की परते खोलती हैं, "पांचवां महीना चल रहा है न कोई जांच हुई मेरी, न टीका लगा। पंजीरी साल में दो तीन बार मिल जाए तो बड़ी बात है। आंगनवाड़ी कहती आई नहीं तो अब कौन देखने जाए। बीहड़ के गाँव में सरकार की कोई योजना नहीं आती। घर देख लीजिए चलकर मेरा, पूरा गिरा पड़ा है पर आवास नहीं मिला।"

ऊपर टीले पर पूनम का मिट्टी का घर पूरी तरह से गिर चुका है। एक छोटा सा कमरा है जिसमें रसोई के कुछ बर्तन रखे हैं और जमीन पर बिछौना बिछा है। पूनम छोटे कमरे की तरफ देखकर बोली, "बस यही है जो है, जब पानी बरसता है बच्चों को यहाँ लिटा देते हैं, हम आदमी औरत बैठे रहते हैं जब पानी बंद होता है तब बाहर लेटते हैं।" पूनम के घर की तरह ही इस गाँव के लगभग सभी घर थे।

जसवंतनगर ब्लॉक में 56 ग्राम पंचायते हैं। भौगोलिक दृष्टिकोण से इस क्षेत्र के गाँव के रास्ते अत्यंत दुर्गम हैं जिस वजह से इन गांवों तक कोई सरकारी कर्मचारी पहुंच नहीं पाता। बीहड़ी इलाका अधिक होने के कारण यहां के लोग सरकार की योजनाओं से कोसों दूर हैं।

ये स्थिति सिर्फ चंबल से सटे इटावा जिले की नहीं है बल्कि पूरे चंबल क्षेत्र में सैकड़ों गाँव की स्थिति इस गाँव से मिलती जुलती है। परेशानियों से हारकर यहां के लोग लोग गाँव त्यागने को मजबूर हो जाते हैं। पूरी तरह से खाली हो चुके इन गाँव को राजस्व विभाग की फ़ाइल में 'बेचिराग गाँव' के नाम से दर्ज कर लिया जाता है।

चंबल के बीहड़ में साइकिल से लगभग 2,800 किलोमीटर की यात्रा करने वाले शाह आलम ने 'बीहड़ में साइकिल' नाम की एक किताब लिखी है जिसमें उन्होंने चंबल क्षेत्र के दर्द को उकेरा है। इस किताब में आजादी आंदोलन के गुमनाम योद्धाओं की दिलचस्प गाथा से लेकर चंबल के डाकुओं तक के कई किस्से दर्ज हैं। इस किताब में उजड़ते गाँव की क्या वजह है? इसका जिक्र इस किताब के एक अध्याय जिसका शीर्षक 'चंबल: जहाँ गाँव भी चलते हैं' में विस्तृत वर्णन है।

शाह आलम चंबल के उजड़ते गाँव की वजह बताते हैं, "अपनी यात्रा के दौरान हम कई ऐसे गाँव में गये हैं जहाँ पर कुछ एक लोग ही अब बचे हैं। जिसकी मुख्य वजह है असुविधाएं। इन गांवों तक सरकारी योजनाएं पहुंच ही नहीं पातीं। किसी गाँव में बिजली नहीं तो कहीं सड़कें नहीं। किसी के पास राशनकार्ड नहीं तो कहीं साल में दो तीन बार ही राशन मिलता है। इलाज के लिए अस्पताल 20-30 किलोमीटर दूर है, कई जगह स्कूल तो हैं पर मास्टर पढ़ाने कभी-कभार ही आते हैं।"

पूंछरी गाँव के ग्रामीण जहाँ खड़े हैं बरसात में इस रास्ते से निकलना इनके लिए दूभर होता है.

चंबल घाटी में डकैतों की कहानियां आपने सिनेमाई ग्लैमर में 'पान सिंह तोमर' से लेकर 'सोन चिड़िया' और चंबल की कसम जैसी फिल्मों के जरिये देखी होंगी। इन फिल्मों से इतर यहाँ के लोगों की रोजमर्रा के जीवन की तकलीफें सत्ता के गलियारों से कोसों दूर हैं। जिन गांवों में सरकारी योजनाएं पहुंची भी हैं उसका क्रियान्वयन कैसे हो रहा है इसकी जवाबदेही के लिए इन गाँव में सरकारी अफसर कभी पहुंचे ही नहीं।

गाँव कनेक्शन की टीम को देखकर पूंछरी गाँव के बलराम सिंह (35 वर्ष) बोले, "अपनी 35 साल की उम्र में पहली बार यहाँ कोई मीडिया देखा है। आजतक इस गाँव में न कोई अधिकारी आया न मीडिया। हम तो आपको धन्यवाद कहते हैं जो आपने हमारे गाँव की सुध ली।"

बलराम सिंह गाँव में बने प्राथमिक स्कूल की बिल्डिंग की ओर इशारा करते हुए बोले, "ये नाम का स्कूल केवल बना है। शिक्षा जीरो है, स्कूल महीने में बहुत कम खुलता है। मिडडे मील बनता नहीं है। नौ गाँव की हमारी ग्राम पंचायत है, वोटों की संख्या हमारे यहाँ बहुत कम है इसलिए किसी राजनैतिक पार्टी का कोई ध्यान नहीं जाता। यहाँ पड़े हैं, जीवन काट रहे हैं।"

पूंछरी गाँव से लगभग 20 किलोमीटर दूर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। इस गाँव के लिए जो ढलानदार रास्ता जाता है वो ऊँची पहाड़ियों को काटकर बना है। बरसात में इस रास्ते में पूरा पानी भर जाता है जिस वजह से ये लोग दो तीन महीने कहीं आवाजाही नहीं कर पाते।

"देश 70 के दशक में पहुंच गया है लेकिन हमारे गाँव में कोई विकास नहीं हुआ। 15-20 किलोमीटर तक कोई साधन नहीं चलता, अगर खुद के पास कोई साधन नहीं है तो अस्पताल बच्चों को पैदल लेकर ही जाना पड़ता है। इतने में कोई मरे तो मर जाए पर कोई सुध लेने वाला नहीं है," सर पर लकड़ी का गट्ठर रखे मुन्नालाल (60 वर्ष) बोले।

जंगल से जलाने के लिए लकड़ी लाते मुन्नालाल.

गाँव के अन्दर एक गड्डे नुमा रास्ता था जिसमें कीचड़ था, उस रास्ते के बारे में बलराम बोले, "बरसात में घुटनों तक घुसकर इसे पार करते हैं तब कहीं जाकर निकल पाते हैं। कितनी बार प्रधान को बोला और बड़े अधिकारियों को एप्लीकेशन लिखकर दी पर कोई सुनवाई नहीं। पहले सालों डकैतों के भय में रहे। अब डकैत तो नहीं बचे लेकिन सरकार का भी कोई ध्यान नहीं है।"

अपने गिरे बड़े जर्जर घर को शोभाराम (82 वर्ष) गाँव कनेक्शन की टीम को बड़ी उम्मीद से दिखा रहे थे, "उमर गुजर गयी इसी में, बीहड़ के गाँव की कौन सुध लेता है? यहां मरो या जियो किसी को कोई लेना-देना नहीं। हमारी इतनी उम्र हो गयी है हमें अब तक सरकार की किसी योजना का कोई लाभ नहीं मिला है। कुछ नहीं तो राशनकार्ड ही बन जाता। अगर गाँव वाले हमारी मदद न करें हम तो अबतक भूखों ही मर जाते।"

यहाँ के लोग बताते हैं कि बीहड़ के गाँव एकदम से खाली नहीं होते हैं। बारिश से पहले ही धरती बहने लगती है फिर बारिश होते ही ये दरारें चौड़ी होती जाती हैं। ऐसे में लोग अप्रभावित इलाकों की ओर भागने लगते हैं, पहले से भीड़ भरे उन इलाकों में भार बढ़ जाता है। कुछ लोग वापस आते हैं तो कुछ लोग शहर में मेहनत मजदूरी करके अपनी गुजर बसर करने लगते हैं। ऐसे धीरे-धीरे गाँव खत्म होते जाते हैं।

जूली देवी ने कहा, "हमारे दोनों बच्चों को आजतक पंजीरी नहीं मिली"

अपने दो छोटे बच्चों के सर पर हाथ सहलाते हुए जूली देवी (32 वर्ष) बोलीं, "हमारे तो दो बच्चे इतने बड़े हो गये पर हमें कभी पंजीरी नहीं मिली। हमें नहीं पता ये पंजीरी मिलती भी है या नहीं। पंजीरी तो दूर की बात है जो जरूरी चीजें हैं वहीं नहीं हम लोगों के पास। हमारा घर देखिए टूटा पड़ा है। नहाने के लिए जमुना (युमना नदी) में जाते हैं, पिछली साल 18-20 साल का एक लड़का नहाने में डूब गया था।"

"हम लोग जंगल में कैसे जीवन काट रहे हैं ये हमलोग ही जानते हैं। जंगल से निकलकर कभी बाहर की दुनिया नहीं देखी है। जंगल में भूखे रहो चाहें प्यासे, मरो या जियो कोई देखने वाला नहीं है। जंगल में क्या कमाई है? अब इस कोरोना में आदमी (पति) को भी कहीं मजदूरी नहीं मिल रही। कैसे बच्चों का पेट पालें," जूली देवी जंगल की बेबसी और सरकार की योजनाओं की खस्ताहाली बयान कर रहीं थीं।

डकैतों के खात्में के इतने साल बाद भी बीहड़ के इन गाँव तक विकास क्यों नहीं पहुंचा इस पर औरैया जिला मुख्यालय से लगभग 40 किलोमीटर दूर कैथौली गाँव के गुड्डू दुबे बताते हैं, "जब डकैत रहे तब उन्होंने रास्ते नहीं बनने दिए। अब रास्ते तो थोड़े बहुत बन गये हैं लेकिन बाकी कोई सुविधा नहीं। इन गाँव में न कोई मास्टर पोस्टिंग लेता न कोई डॉक्टर। जिनकी तैनाती हो जाती है वो ट्रांसफर करवा लेते हैं। हमारे गाँव में पहले डकैतों के कहर से और अब असुविधाओं की वजह से कोई जल्दी शादी के लिए तैयार नहीं होता। हमारे यहाँ 60 फीसदी लोगों की शादी ही नहीं हुई है।"


   

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