भारत में पिछले 50 सालों में 220 भाषाओं की “मौत”

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भारत में पिछले 50 सालों में 220 भाषाओं की “मौत”तटिय भाषाओं पर ज्यादा खतरा है। फोटो साभार-डाउन टू अर्थ

लखनऊ। कहते हैं किसी स्थानीय संस्कृति को जानने और समझने के लिए वहां की भाषा बहुत जरूरी होती है। स्थानीय भाषा से ही उस स्थान और वहां के लोगों के बारे में जाना जा सकता है। किसी भी भाषा की समृद्धता आप उसके शब्दों की संख्या और मात्राओं से नहीं लगा सकते। भाषा में इतनी योग्यता होती है कि वो अपने लोगों की सांस्कृतिक विरासत को बखूबी बयां कर सके। एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले पांच दशकों में भारत ने अपने 220 भाषाओं को खो दिया है। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में लोगों ने दुनिया पर आधिप्तय तो जमाया लेकिन वे अपने समुदाय, रिश्तेदार और भाषा से दूर होते गए। लोगों ने दूसरी

भाषाएं सीखीं लेकिन खुद अपनी भाषा से मुखर हो गए। ऐसे में अब कई स्कूल स्थानीय भाषाओं को भी तरजीह दे रहे हैं, खासकर भारत में। हम लगभग हर महीने सुनते या पढ़ते हैं कि किसी भाषा के बोलने वाले आखिरी व्यक्ति की मौत हो गई। एक सर्वे के अनुसार दुनिया की 6 प्रतिशत भाषा 95 प्रतिशत आबादी द्वारा बोली जा रही हैं। भारत में हुए सर्वे की बात की जाए तो यहां पिछले 5 दशकों में कई भाषाओं की मौत हो चुकी है।

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दो साल के कठिन सर्वे के बाद वड़ोदरा के भाषा रिसर्च और पब्लिकेशन सेंटर पीपुल लिंगुइस्टिक के अनुसार 1962 में भारत में 1100 भाषाएं बोली जाती थीं लेकिन उनमें से लगभग 220 भाषाएं अब विलुप्त हो चुकी हैं। लेखक और सर्वे को लीड कर रहे गणेश देवी के अनुसार बंजारों, आदिवासी या अन्य पिछड़े समाजों की भाषा पूरे विश्व में लगातार नष्ट हो रही हैं। यह आधुनिकता की सबसे बड़ी विडंबना है। ऐसे लोग देश के लगभग हर हिस्से में फैले हैं। गणेश आगे बताते हैं कि ऐसा नहीं है कि ये लोग जीवित नहीं हैं। ये जिंदा हैं और इनकी संख्या लाखों में हैं, लेकिन ये अपनी भाषा भूल चुके हैं।

जानकारों का एक समूह मानता है कि ग्लाबलाइजेश की वजह से मातृ भाषाओं की मौत हो रही है। लोगों जहां जाते हैं वहीं की भाषा अपना लेते हैं लेकिन अपने भाषा को छोड़ देते हैं। कुछ विशेषज्ञों ने कहा कि बाहर बसे एक ही समुदायों को एक जगह अगर बाया जाए तो उनकी भाषा बच सकती है लेकिन इस पर भी कुछ लोगों की राय जुदा है। 'पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे' को लीड करने वाले गणेश कहते हैं कि 1100 में से सिर्फ़ 780 भाषाएं ही देखने को मिलीं। हो सकता है कुछ भाषाएं हमसे छूट गयी हों क्योंकि भारत एक बहुत बड़ा देश है। हमारे पास इतने संसाधन नहीं हैं कि हम पूरे देश को कवर कर सकें। हम यह मान भी लें कि हमें 850 भाषाएं मिल गईं हैं तब भी 1100 में से 220 भाषाओं के विलुप्त होने का अनुमान है।

कैसे लुप्त हो रहीं भाषाएं

हमारे देश में भाषा लुप्त होने की सबसे बड़ी वजह ग्लोबलाइजेशान मानी जा रही है। इसमें वे लोग शामिल हैं जो तटीय इलाकों में रहते थे। इन्हें सी फ़ार्मिंग के नाम पर इनके जगहों से हटा दिया गया और इन्हें शहर भेज दिया गया। ये लोग अपने समुदाय के साथ-साथ अपनी भाषा से भी दूर हो गए। ऐसे में इनकी मातृ भाषा विलुप्त हो गई। इसमें ज्यादातर बंजारा समुदाय के लोग हैं। भाषा कोई भी हो, उसमें पर्यावरण का ज्ञान जरूर होता है। ऐसे में भाषाओं का विलुप्त होना पर्यावरण के लिए भी नुकसानदायक है। भाषा से ही हम एक दूसरे की जान-पहचान करते हैं ऐसे में जब भाषा ही नहीं होगी तो हमारी पहचान भी खत्म हो सकती है।

साभार- डाउन टू अर्थ


      

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