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अगर गिद्ध खत्म हुए तो खतरे में पड़ जाएगी सबकी सेहत

#गिद्ध

प्रेरणा सिंह बिंद्रा,

आपको गिद्ध याद हैं? शायद याद न होंगे लेकिन आज से लगभग 10 साल पहले ये बड़े आकार वाले, भद्दे से पक्षी क्या गांव और क्या शहर लगभग हर जगह पाए जाते थे। तब ये पेड़ों पर, बिजली के खंभों पर, पहाड़ियों पर यहां तक कि घरों की छत पर भी दिख जाते थे। सड़क किनारे किसी मृत जानवर की लाश को घेरे गिद्धों का झुंड या फिर आसमान में गोल-गोल चक्कर काटते गिद्धों का दिखना एक आम बात थी।

दिल्ली में गिद्धों के झुंड का ऐतिहासिक फोटो।                                   फोटो: गौतम नारायण

ये तादाद में इतने ज्यादा थे कि किसी ने इनकी गिनती करने के बारे में सोचा नहीं। 1991-92 में देश भर में हुए सर्वे में पता चला था कि उस समय इनकी तादाद लगभग 4 करोड़ थी। लेकिन इसके महज दस बरसों के भीतर इनकी संख्या इतनी तेजी से कम हुई कि ये लुप्त होने की कगार पर आ गए। गिद्धों की जिप्स वंश की भारत में मिलने वाली तीन प्रजातियों में लंबी चोंच वाले गिद्ध और पतली चोंच वाले गिद्धों की संख्या में 97 प्रतिशत तक की कमी आई। लेकिन सबसे बुरी हालत तो तीसरी प्रजाति सफेद पीठ वाले गिद्ध की थी जिसकी संख्या 1992 से 2007 के बीच 99.9 प्रतिशत तक कम हो गई थी। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (बीएनएचएस) के पूर्व निदेशक असद रहमानी का कहना है, “दुनिया के इतिहास में किसी पक्षी के इतनी तेजी से कम होते जाने का यह पहला मामला है।” कथा-कहानियों में मृत्यु के प्रतीक माने जाने वाले गिद्ध अब खुद मौत के मुंह में खड़े थे।

शुरू में जब इनकी संख्या में कमी आई तो शोधकर्ताओं और गांववालों के मुंह से सुनने में आता था कि अब गिद्ध कहीं दिखाई नहीं देते। बीएनएचएस के प्रिसिंपल साइंटिस्ट विभु प्रकाश ने राजस्थान के मशहूर केवलादेव नेशनल पार्क, भरतपुर में इनकी संख्या में कमी को दर्ज किया। 1987-88 में पार्क के 29 वर्ग किलोमीटर के इलाके में इन्होंने घोंसले बनाने वाले गिद्धों के 353 जोड़ों की गिनती की थी जो 1996 तक आते-आते आधी रह गई। प्रकाश को यह देखकर झटका सा लगा कि चारों और मरे हुए गिद्ध दिखाई दे रहे थे, घास में, पेड़ों पर और यहां तक कि घोंसलों में भी। वह याद करते हैं, “मैं परेशान था, घबरा गया था और समझ नहीं पा रहा था कि गिद्धों को हो क्या रहा है।”

सन 2000 तक भरतपुर में एक भी गिद्ध नहीं बचा था, यह खतरे की घंटी थी। जल्द ही देश के दूसरे हिस्सों से भी इसी तरह की खबरें आने लगीं। जिप्स वंश के इन गिद्धों की तादाद लाखों से घटकर अब लगभग 20 हजार के आसपास है। इसमें लंबी चोंच वाले गिद्ध 12 हजार, सफेद पीठ वाले गिद्ध 6 हजार और सबसे कम लगभग 1 हजार पतली चोंच वाले गिद्ध शामिल हैं।

सन 2000 तक, इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने इन सभी तीन प्रजातियों को अपनी उच्च जोखिम श्रेणी में शामिल कर लिया था- इसका मतलब है इनके पूरी तरह से लुप्त होने की गंभीर आशंका है। अगर इन पक्षियों के पुनरुत्थान के लिए फौरन कोई कदम नहीं उठाया जाता तो ये विलुप्त होने से महज एक कदम दूर हैं।

सफेद पीठ वाले गिद्धाें की संख्या में कमी सबसे तेज हुई है।

आखिर गिद्धों के खात्मे की वजह क्या है

तेजी से कम होती गिद्धों की तादाद के रहस्य को बूझना इतना आसान नहीं था। पक्षियों की आबादी में आई गिरावट के कई कारण हो सकते हैं- शिकार, महामारी, प्राकृतिक आवास विनाश। लेकिन जिस तेजी, परिमाण और व्यापकता से दक्षिण एशिया में गिद्धों की संख्या कम हुई उसकी व्याख्या करने में ये कारक भी नाकाम रहे। शुरू में कुछ जीवविज्ञानियों ने इसके लिए मृत पशुओं के शरीर में कीटनाशकों के मिलने वाले अंशों को जिम्मेदार ठहराया। 1960 के दशक में अमेरिका के ग्रेड बाल्ड ईगल की जनसंख्या में डीडीटी की वजह से कमी आई थी। यहां भारत में कुछ जानवरों के शव में कीटनाशकों के अंश जरूर मिले लेकिन उससे गिद्धों के खात्मे की पहेली नहीं सुलझी।

इस पहेली को और उलझा दिया परीक्षण की सुविधाओं की कमी ने और लालफीताशाही ने। इसकी वजह से मृत गिद्धों के अवशेषों को परीक्षण के लिए देश के बाहर नहीं ले जाया जा सकता था।

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आखिर में दूसरे कई देशों का इस पर ध्यान गया और पेरेग्रिन फंड के तहत करीब एक दर्जन वैज्ञानिकों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने पाकिस्तान में गिद्धों की लाशों का परीक्षण किया। नतीजे में दोषी पाया गया डिक्लोफिनेक को। यह दर्द और सूजन को खत्म करने वाली दवा है जिसके इंजेक्शन मवेशियों को लगाए जाते थे।

जब गिद्ध ऐसे मवेशियों की लाशें खाते थे जिन्हें हाल ही मे ये इंजेक्शन लगाए गए हों तो दवा के असर से गिद्धों के गुर्दे खराब हो जाते थे और आखिर में उनकी मौत हो जाती थी। डिक्लोफिनेक दवा इंसानों के लिए बनाई गई थी लेकिन बाद में यह मवेशियों के लिए भी फायदेमंद पाई गई। यह बहुत तेजी से असर करती है, असरदार दर्दनिवारक, बुखार में राहत पहुंचाती है और काफी सस्ती भी है। पशुपालकों को इसकी एक डोज लगभग 20 रुपए के आसपास पड़ती है।

भारत में गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती हैं। डिक्लोफिनेक इनमे से तीन को सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। यूरेशियन ग्रिफिन, हिमालयन ग्रिफिन इन दो गिद्ध प्रजातियों पर भी इसका असर पड़ा लेकिन उनकी तादाद में इतनी तेजी से कमी नहीं आई। इसकी वजह बताते हुए प्रकाश कहते हैं, “ये दोनों प्रवासी गिद्ध हैं जो ऊपरी हिमालय क्षेत्र में अंडे देते हैं और मध्य एशिया तक उड़ान भरते हैं। उस क्षेत्र में इस दवा का इस्तेमाल नहीं होता।”

गिद्धों को प्रकृति का सफाईकर्मी कहा जाता है।

स्वास्थ्य पर संकट और सांस्कृतिक उथलपुथल

गिद्धों को प्रकृति का सफाईकर्मी कहा जाता है। वे बड़ी तेजी और सफाई से मृत जानवर की देह को सफाचट कर जाते हैं और इस तरह वे मरे हुए जानवर की लाश में रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया और दूसरे सूक्ष्म जीवों को पनपने नहीं देते। लेकिन गिद्धों के न होने से टीबी, एंथ्रेक्स, खुर पका-मुंह पका जैसे रोगों के फैलने की काफी आशंका रहती है। इसके अलावा चूहे और आवारा कुत्तों जैसे दूसरे जीवों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई। इन्होंने बीमारियों के वाहक के रूप में इन्हें फैलाने का काम किया। आंकड़े बताते हैं कि जिस समय गिद्धों की संख्या में कमी आई उसी समय कुत्तों की संख्या 55 लाख तक हो गई। इसी दौरान (1992-2006) देश भर में कुत्तों के काटने से रैबीज की वजह से 47,300 लोगों की मौत हुई।

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गिद्धों की तादाद में कमी का असर पारसी समुदाय के एक अहम रिवाज पर भी पड़ा। पारसी समुदाय अपने मृतकों को प्रकृति को समर्पित करते हैं। इसके लिए वे मृत देह को ऊंचाई पर स्थित पारसी श्मशान में छोड़ देते हैं जहां गिद्ध उन्हें खा लेते थे। पर गिद्धों के न रहने पर उनकी यह परंपरा लगभग खत्म सी हो गई है।

आंकड़े बताते हैं कि सफेद पीठ वाले गिद्ध की संख्या 43.9 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से गिर रही थी। गिद्धों के प्रजनन की दर बहुत धीमी होती है। वह एक बार में एक ही अंडा देते हैं जिसे लगभग 8 महीने सेना पड़ता है तब जाकर बच्चा अंडे से बाहर आता है। प्रकाश ने अपने रिसर्च में बताया कि अगर गिद्धों की संख्या 5 प्रतिशत से ज्यादा की दर से कम हो रही है तो धीमी प्रजनन गति के कारण उनके फिर से पनपने की संभावना लगभग न के बराबर होती है।

गिद्धों को बचाने की कोशिशें रंग ला रही है

कैंब्रिज जर्नल में दिसंबर 2017 में छपे एक सर्वे के मुताबिक भारतीय गिद्धों की गिरती संख्या में कमी आई और सफेद पीठ वाले गिद्ध की तादाद फिर से बढ़ने लगी है हालांकि उसकी दर बहुत धीमी है। वल्चर एक्शन प्लान के तहत 2006 से भारत में डिक्लोफिनेक के मवेशियों में इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। पाकिस्तान और नेपाल ने भी ऐसा ही किया है इसलिए वहां भी भारत जैसे परिणाम मिलने लगे हैं।

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भारत, पाकिस्तान और नेपाल में 2004 से गिद्धों को पकड़कर बंदी अवस्था में प्रजनन कार्यक्रम चलाकर उनकी तादाद बढ़ाने के कोशिशें भी हो रही हैं। देश में इस गिद्धों के 8 प्रजनन केंद्र चल रहे हैं। हरियाणा वन विभाग और बीएनएचएस के संयुक्त प्रयासों से पिंजौर (हरियाणा) में चल रहा जटायु कंजर्वेशन ब्रीडिंग सेंटर इनमें प्रमुख है।

इन सेंटरों में बंदी अवस्था में रखे गए सभी तीन प्रभावित प्रजातियों के कुल 162 गिद्ध पैदा हुए हैं उनकी देखभाल की जा रही है। दो बचाए गए हिमालयी ग्रिफिन 10 वर्षों से अधिक समय तक कैद में रहे फिर इन्हें 2016 में छोड़ दिया गया। प्रजनन केंद्र में पहली बार पैदा हुआ सफेद पीठ वाला एक गिद्ध 2018 में जंगल में छोड़ा जाना है।

हरियाणा के पिंजौर में चल रहा है गिद्धों का प्रजनन केंद्र।

और कदम उठाने की है जरूरत

भले ही मवेशियों के इस्तेमाल के लिए डिक्लोफिनेक पर प्रतिबंध लगा दिया गया हो लेकिन अब भी ऐसी दवाएं इस्तेमाल की जा रही हैं जो गिद्धों के लिए जहरीली हैं। जल्द से जल्द इनपर भी रोक लगाने की जरूरत है। इनमें से कुछ हैं एसीक्लोफेनाक, कारप्रोफेन, फ्लुनिक्सिन, केटोप्रोफेन। हालांकि, दवा कंपनियां इन पर प्रतिबंध का जोरशोर से विरोध करेंगी जैसा डिक्लोफिनेक के समय किया था। लेकिन अगर प्रकृति का संतुलन गड़बड़ाने से बचाना है तो देर सबेर ही सही यह कदम उठाना होगा।

(प्रेरणा सिंह बिंद्रा भारत की मशहूर वन्यजीव संरक्षणवादी और लेखिका हैं। वह लंबे समय से पर्यावरण और संबंधित विषयों पर लेख लिखती रही हैं। उनका यह लेख मूल रूप से mongabay में प्रकाशित हो चुका है।) 

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