पूरी दुनिया के जाने-माने वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगर गर्म होती धरती को विनाशलीला से बचाना है तो कोशिश अभी शुरू करनी होगी। अब वक्त नहीं बचा है और यह कोशिश सिर्फ दुनिया के तमाम देशों की सरकारों की ओर से ही नहीं की जानी है बल्कि हर इंसान की अहम भागेदारी इसमें ज़रूरी है। अमीर देशों में रहने वाले लोगों का विलासितापूर्ण जीवन दुनिया में बढ़ रहे कार्बन उत्सर्जन के लिये सबसे अधिक ज़िम्मेदार है। इसलिये जहां एक ओर सरकारों को बिजली बनाने के कार्बनरहित स्रोत (सौर और पवन ऊर्जा के साथ बैटरी का इस्तेमाल) अधिक से अधिक इस्तेमाल करने होंगे वहीं यूरोपीय और अमेरिकी नागरिकों के साथ विकासशील देशों के शहरी नागरिकों को भी ये सोचना होगा कि उनका रहन-सहन ग्लोबल वॉर्मिंग के लिये कितना ज़िम्मेदार है।
जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी (इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज) की ताज़ा रिपोर्ट कहती है कि अगले 12 सालों में (2030 तक) उठाये गए कदम ही यह तय करेंगे कि दुनिया में असामान्य मौसम और आपदाओं से हम बचेंगे या उनके चंगुल में फंसते जाएंगे। अमीर देशों के पास तो जलवायु परिवर्तन के ख़तरों से लड़ने के लिए पैसे और संसाधनों की कमी नहीं है लेकिन भारत समेत तमाम विकासशील और ग़रीब देशों के लिये यह चिन्ता का विषय है। आईपीसीसी की ताज़ा रिपोर्ट 40 देशों के 200 से अधिक वैज्ञानिकों ने तैयार की जिसे 1000 से अधिक जानकारों ने रिव्यू किया।
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इस रिपोर्ट को दक्षिण कोरिया में सोमवार सुबह जारी किया गया और साफ चेतावनी दी गई है कि धरती के बढ़ते तापमान को सुरक्षित स्तर तक रोकने के लिये अब ढील देने का वक्त नहीं बचा है। दुनिया में पिछले डेढ़ सौ बरसों में अमेरिका ने सबसे अधिक ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन किया है लेकिन विडम्बना ये है कि ट्रंप की अगुवाई वाली अमेरिकी सरकार ये नहीं मानती की ग्लोबल वॉर्मिंग जैसी कोई चीज़ है।
अमेरिका ने न केवल पेरिस में हुये ऐतिहासिक जलवायु परिवर्तन समझौते से खुद को अलग करने का फैसला किया है बल्कि वह आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट से खुद को अलग कर रहा है। भारत के नज़रिये से हिमालयी ग्लेशियरों और विशाल तटरेखा के साथ-साथ गांव में रहने वाली आबादी और कृषि को देखते हुए इस रिपोर्ट का बड़ा महत्व है।
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आज हिमालय में हज़ारों छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं जो बढ़ते तापमान से पिघल सकते हैं। इससे पहाड़ी पर्यावरण के बर्बाद होने और तबाही मचने का खतरा है। भारत की समुद्रतट रेखा 7500 किलोमीटर लम्बी है और समंदर का जलस्तर बढ़ रहा है। भारत की 7500 किलोमीटर लम्बी तटरेखा से लगे ज़िलों में करीब 25 करोड़ लोग रहते हैं। उनका जनजीवन और रोज़ीरोटी इस तापमान वृद्धि से प्रभावित हो सकती है। खासतौर से समुद्री जीवन पर निर्भर मछुआरों के लिए बड़ी दिक्कत हो सकती है।
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बांग्लादेश और भारत की सीमा पर बसे सुंदरवन में जलवायु परिवर्तन का असर ऐसा है कि अब किसानों ने केकड़ा पालन शुरू कर दिया है। गंगा औऱ ब्रह्मपुत्र के डेल्टा पर बसे सुंदरवन में पानी का खारापन बढ़ता जा रहा है औऱ खेती करना मुश्किल हो गया है। जलवायु परिवर्तन की तबाही ऐसी है कि उससे निबटने के लिये अनुकूलन यानी एडाप्टेशन के लिये अरबों रुपये चाहिये होंगे। भारत में जहां बड़ी आबादी गरीबी रेखा से नीचे है औऱ उन तक ज़रूरी सुविधायें पहुंचाने की ज़रूरत है वहां जलवायु परिवर्तन की मार एक नया खर्च लेकर आने वाली है।
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अगर रिपोर्ट के पहुलुओं पर गौर नहीं किया गया तो किसानों के लिए और संकट खड़ा होगा क्योंकि अत्यधिक बारिश और बार-बार पड़ने वाले सूखे के साथ-साथ चक्रवाती तूफानों की संख्या बढ़ेगी। पूर्वी तट पर ‘फायलीन’ और ‘हुदहुद’ और अरब सागर में आए ‘ओखी’ जैसे तूफान हों या मुंबई से लेकर कश्मीर और केदारनाथ की बाढ़ ये सब इसी खतरे की घंटी हैं।