अंडमान में अमरीकी की मौत ने उठाया बड़ा सवाल: आदिवासियों की दुनिया में क्यों दख़ल दे रहे हैं हम?

अमेरिकन ट्रेवलर जॉन के साथ जो हुआ, ऐसा पहली दफा नहीं हुआ है। सन 1788-89 के बीच जब ब्रिटिशर्स ने यहाँ कदम रखने चाहे तो इन स्थानीय आदिवासियों ने इन्हें खदेड़ दिया था।

Deepak AcharyaDeepak Acharya   25 Nov 2018 4:51 AM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
अंडमान में अमरीकी की मौत ने उठाया बड़ा सवाल: आदिवासियों की दुनिया में क्यों दख़ल दे रहे हैं हम?

बीते दिन अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के नॉर्थ सेंटिनल आइलैंड के आदिवासियों के द्वारा एक अमेरिकन ट्रेवलर जॉन एलन चाऊ की मौत की खबर ने दुनियाभर के लोगों को एक बार फिर चौंका के रख दिया है। उत्तरी अमेरिका के वैंकुवर (वाशिंगटन) निवासी 26 वर्षीय चाऊ की मौत ने एक बार फिर इस बहस को जन्म दे दिया है कि विलुप्तप्राय: जनजातियों से बाहरी दुनिया के लोगों का सम्पर्क कितना जायज़ है? बहस इस मुद्दे को लेकर भी है कि क्या यह आवश्यक है या नहीं?

चाउ द्वारा इंस्टाग्राम पर पोस्ट की गयी आखिरी तस्वीर (फ़ोटो: चाउ का इंस्टाग्राम अकाउंट)

बंगाल की खाड़ी और अंडमान सागर के बीच छोटे-छोटे द्वीपों का समूह अंडमान और निकोबार स्थित है। यहाँ छोटे और बड़े कुलमिलाकर 223 द्वीप हैं जिनमें से 19 द्वीप निकोबार ग्रुप और शेष सभी द्वीप अंडमान ग्रुप में सम्मिलित हैं। ये पूरा द्वीप समुह छ: अलग-अलग आदिवासी जनजातियों क्रमश: ग्रेट अंडमानी़ज़, जाऱवा, ओंजेस, सोमपेंस और सेंटेनलीज़ का निवास स्थान है। मानव विज्ञानियों का मानना है कि स्थानीय जनजातियाँ यहाँ 60,000 से अधिक वर्षों से रह रही है। स्थानीय जनजातियों में से कुछ आज भी पाषाणयुग की तरह निवासरत हैं जो बाहरी दुनिया से बिल्कुल अलग-थलग है।

अमेरिकन ट्रेवलर जॉन के साथ जो हुआ, ऐसा पहली दफा नहीं हुआ है। सन 1788-89 के बीच जब ब्रिटिशर्स ने यहाँ कदम रखने चाहे तो इन स्थानीय आदिवासियों ने इन्हें खदेड़ दिया था। करीब 60 वर्षों के बाद आखिरकार ब्रिटिशर्स पोर्ट ब्लेयर पर अपने पैर जमाने में सफल जरूर हुए लेकिन स्थानीय जनजातियों का विद्रोही रवैया कम नहीं हुआ था। सन 1850 के दशक के अंत में स्थानीय जनजाति 'ग्रेट अंडमानीज़' और ब्रिटिश फौज के बीच चले ऐतिहासिक घमासान को आज भी "बैटल ऑफ अबरदीन" के नाम से जाना जाता है। स्थानीय अबरदीन बाज़ार में एक पुलिस चौकी थी जहाँ एक बडे ही योजनाबद्ध तरीक से ग्रेट अंडमानीज़ लोगों ने ब्रिटिश उच्चाधिकारियों, पुलिस और फौज पर आक्रमण करने की योजना तैयार की थी। लेकिन, दूधनाथ तिवारी नामक एक व्यक्ति ने इस आक्रमण की सूचना ब्रिटिश अधिकारियों तक पहुंचा दी। बैटल ऑफ अबरदीन में एक तरफ तोप, तमंचों और कारतूस से लैस ब्रिटिश सिपाही थे तो दूसरी ओर ग्रेट अंडमानीज़ युवाओं का एक बड़ा समूह तीर कमान थामे आक्रमण करने को आतुर था। पूर्व से ही सूचना मिलने की वजह से ब्रिटिश पूरी तैयारी में थे, इस बैटल के दौरान इस जनजाति के सैकड़ों लोग मौत के घाट उतार दिए गए।

यह भी पढ़ें: देश के 10 करोड़ 40 लाख आदिवासियों की सेहत की कौन लेगा ज़िम्मेदारी?

रॉस आइलैंड (ब्रिटिश रूल का प्रशासनिक मुख्यालय) में दूधनाथ तिवारी को कालापानी की जेल में बतौर कैदी (दोषी नं 276) रखा गया था लेकिन 6 अप्रैल 1858 को 90 अन्य कैदियों के साथ ये जेल से फरार हो गए और आदिवासी बाहुल्य इलाके में पहुंच गए। अपनी ओर आते देख आदिवासियों ने इनमे से 88 लोगों को तीर कमान से मार गिराया। लेकिन दूधनाथ तिवारी ने इनसे संवाद स्थापित कर इन लोगों के बीच रहने की व्यवस्था कर ली। यहाँ रहते हुए तिवारी ने एक आदिवासी महिला से विवाह भी किया। कहा जाता है कि जैसे ही बैटल ऑफ अबरदीन की योजना (जिसमें आदिवासी ब्रिटिशर्स पर आक्रमण करना चाहते थे) का तिवारी को पता चला, इन्होनें यह जानकारी सरकारी व्यवस्था को दे दी थी। बाहरी ताकतों ने स्थानीय जनजातियों के दमन की हमेशा पूरी कोशिशें की। रॉस आइलैंड में ब्रिटिशर्स के 500 परिवारों के रहने के लिए राजसी व्यवस्थाएं तैयार करी गयी थी, यहाँ चर्च, बेकरी, प्रिटिंग प्रेस, पॉवर जेनेरेशन प्लांट्स भी लगाए गए थे। इस पूरे आइलैंड को 'पेरिस ऑफ ईस्ट' कहा जाता था। बैटल ऑफ अबरदीन से पहले यहाँ करीब 5-8 हजार आदिवासी रहते थे, सन 1901 तक आते-आते इनकी जनसंख्या 525 ही शेष बची। ब्रिटिश आक्रमण, बाहरी लोगों से संपर्क और तमाम तरह के रोगकारकों की वजह समय दर समय इनकी जनसंख्या में गिरावट आती रही।

मैप पर लाल नीले से अंकित जगह अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का वही नॉर्थ सेंटिनल आइलैंड है जहां से आदिवासियों द्वारा अमेरिकन ट्रेवलर जॉन एलन चाऊ की मौत की खबर सामने आई है

इन्हीं द्वीप समूह पर सोने और प्राकृतिक धातुओं की खोज में आए बोहेमियन भूगर्भशास्त्री डॉ जोहन्न हेल्फर को सन 1840 में इन आदिवासियों ने तीर से निशाना लगाकर मार डाला था। यहाँ इस द्वीप समूह में 20 स्केवर मील का एक छोटा सा द्वीप है जिसे नॉर्थ सेंटीनल आइलैंड के नाम से जाना जाता है। इस आइलैंड पर रहने वाली जनजाति सेंटीनलीज़ की जनसंख्या फिलहाल 100 से भी कम है। ऐसा कहा जाता है कि 1960 के दशक में कुछ मानव वैज्ञानिकों ने स्थानीय जनजाति के लोगों से संपर्क करने की कोशिश की थी लेकिन वो मिशन पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया। सन 2006 में दो मछुआरें अपनी नौका से इस इलाके के आस-पास घूमते हुए पहुंचे, अचानक उनकी नौका खराब हुयी और पानी की लहरों ने इन्हें आदिवासियों के रहने वाले हिस्से के नजदीक पहुंचा दिया। आदिवासियों ने इन्हें भी मार गिराया। अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संस्था 'सर्वायवल इंटरनेशनल' के अनुसार जब इन मछुआरों के मृत शरीर को लेने के लिए हेलिकॉप्टर भेजा गया तो आदिवासियों ने इस पर तीर से आक्रमण करना शुरु कर दिया था।

जॉन इस द्वीप समूह पर पहली दफा नहीं आए थे, इससे पहले वे चार बार यहाँ आ चुके थे। सन 2015 में बाकायदा टूरिस्ट वीज़ा लेकर वे यहाँ घूमने आए थे। इस बार इन्होने 5 मछुआरों को पैसे देकर इस बात के लिए तैयार किया कि वे इन्हें नॉर्थ सेंटिनल आइलैंड के करीब छोड़ देंगे। नवंबर 14 की रात जॉन इस आइलैंड के करीब पहुंचा दिए गए और अगली सुबह एक छोटी नौका (कायक) से आईलैंड के किनारे तक पहुंच गए, लेकिन आदिवासियों ने इन पर तीर से आक्रमण कर दिया। म़छुआरों ने सुबह दूर से जो देखा, भयावह था। आदिवासी जॉन के मृत शरीर को घसीटते हुए ले जा रहे थे और वहीं उसे दफना भी दिया गया। फिलहाल इस पूरी घटना की कानूनन जांच जारी है और मछुआरों को भी पकड़ लिया गया है लेकिन जो सवाल अब एक बार फिर चर्चा का विषय बन चुका है, वो ये है कि क्या बाहरी लोगों को स्थानीय आदिवासियों के बीच जाना चाहिए या नहीं? सरकारी कानून के हिसाब से इस आइलैंड के 5 किमी परिधि के भीतर प्रवेश करना गैर कानूनी है और ऐसा करने पर 3 साल की सजा का भी प्रावधान है। सवाल ये भी उठता है कि क्या जॉन को स्थानीय अधिकारियों को इस बात के लिए सूचित करना चाहिए था या नहीं?

इसी साल अगस्त में केंद्र सरकार नें अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के 29 आइलैंड्स में पर्यटन को बढावा देने के लिए रिस्ट्रिक्टेड एरिया पर्मिट हटा दिया, जिसे 2022 तक सुचारू रखने की बात की गयी। इस रिस्ट्रिक्टेड एरिया परमिट के दायरे से नॉर्थ सेंटीनल आइलैंड को भी हटा दिया गया, यानी इसके इर्द-गिर्द जाने से पहले किसी अधिकारी या सरकारी तंत्र से अनुमति की आवश्यकता नही होती है। लेकिन इस तरह के निर्णय से पहले स्थानीय व्यवस्था को समझना भी बेहद जरूरी है। सेटीनेलीज़ आदिवासी अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के पर्टिकुलरली वलनेरेबल ट्रायबल ग्रुप में सम्मिलित हैं और इनकी सुरक्षा के लिए बाकायदा 1956 में अंडमान एंड निकोबार एबोरिजिनल ट्राइब्स रेग्यूलेशन भी बनाया गया है।

रोमांच के शौक़ीन चाउ द्वारा खींची गयी एक और तस्वीर (फ़ोटो: चाउ का इंस्टाग्राम अकाउंट)


यहाँ स्थानीय जारवा जनजातियों की जीवनशैली देखने के लिए भी पर्यटकों को सफारी पर ले जाया जाता रहा है। बाहरी दुनिया से अलग इन आदिवासियों की दुनिया में हमारा दखल देना किस हद तक उचित है? जून २०१४ में उत्तरी-पश्चिम ब्राजील में अमेजन फॉरेस्ट वाले पेरुवियन बॉर्डर पर सापानाहुआ आदिवासियों की विलुप्तप्राय: जनजाति देखकर कुछ लोग उन्हें केले और अन्य फल देने चल दिए थे। उनकी मुलाकात का वीडियो काफी वायरल भी हुआ और हमेशा की तरह विवाद का विषय भी बना। सर्वायवल इंटरनेशनल संस्था द्वारा प्रकाशित एक लेख में बताया गया कि बाहरी दुनिया से दूर रहने वाले आदिवासी पूर्व में भी कई लोगों द्वारा संपर्क किए गए। बाहरी संपर्क की वजह से फ्लू, और कई तरह के वायरल इंफेक्शन्स, मलेरिया आदि की वजह से कई आदिवासी मर गए। अपने सीमित परिवेश में रहने की वजह से इनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता कमजोर रहती है। अचानक बाहरी लोगों से मिलने के बाद इनमें संक्रमण का खतरा बना रहता है।

ज्यादातर ऐसा भी देखा गया है कि इस तरह के इलाकों में जब-जब बाहरी एजेंसियों का जाना होता है, प्राकृतिक वन संपदाओं का बेजा दोहन भी शुरु हो जाता है। यूनाइटेड नेशन्स और फूनाई (ब्राजील सरकार की आदिवासी अधिकार एजेंसी) भी इस बात पर तरजीह देती है कि ऐसी जनजातियों को उनके हाल पर छोड़ देना ही बेहतर है। शोध पत्रिक 'साइंस' में एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी और मिसोरी के शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित 2015 की एक रपट में सलाह दी गयी कि सरकारों को ऐसे इलाकों में अपना हस्तक्षेप जरूर करना चाहिए। यदि इन आदिवासियों को इनके हाल पर ही छोड़ दिया जाए, तो हो सकता है ड्रग ट्रेफिकिंग, खनीज उत्खनन और अवैध जंगल कटाई से जुड़े असामाजिक तत्व अपनी पहुंच बना लेंगे और शायद इस बात की जानकारी सरकार तक कभी नहीं पहुंच पाएगी। इस तरह की संभावित घटनाओं को काबू करने के लिए सरकारी एजेंसी की सहभागित जरूरी है।

टूरिज़्म के नाम पर इस तरह के सूदूर गैरसंपर्क इलाकों में बाहरी दुनिया के लोगो के जाने से ना सिर्फ स्थानीय जनजातियों के अस्तित्व पर खतरा मंडराता है बल्कि स्थानीय संपदाओं का भी पुरजोर दोहन होता है। पेरु में अमेजान रैन फॉरेस्ट इलाके में मासो पीरो लैंड में तो बाकायदा ह्यूमन सफारी करवायी जाने लगी। दुनियाभर के एक्टिविस्ट और पेरू की फेनामेड संस्था भी इसका विरोध लगातार करते रहे।

अमेज़नियन आदिवासियों की ड्रोन से ली गयी तस्वीर (फ़ोटो: द वाशिंगटन पोस्ट)

अकेले ब्राजील में 100 से ज्यादा आदिवासी जनजातियां रहती हैं, इसके अलावा कोलंबिया, इक्वेडर, पेरू और पेरागुवे, पापुआ न्यू गिनिया और भारत के नॉर्थ सेंटिनल आइलैंड पर गैरसंपर्क आदिवासी जनजातियां रह रही हैं। इनमें से सेंटेनेलीज़ को सबसे अलग माना गया है क्योंकि इनके बारे में जो भी जानकारियां हैं वो सीमित हैं। जब-जब इन इलाकों में बाहरी कदमों का प्रवेश हुआ है, ज्यादातर स्थानीय संपदाओं और जनजातियों को नुकसान ही झेलना पड़ा है। शायद इस तरह की जानकारियों को इन जनजातियों के बुजुर्ग अपनी नयी पीढ़ी को जरूर बताते होंगे इसलिए हमेशा इन्हें अक्रामक होते देखा जा सकता है। 1960 से 70 के दशक में ब्राजील ने पूरे अमेजन फॉरेस्ट को अविकसित समझकर विकास की पहल करना शुरु किया। विरोध करने वाले स्थानीय लोगों को मार दिया गया, जो लोग बचे वो आक्रामक रवैया अपना लिए और बाहरी लोगों पर आक्रमण भी करने लगे लेकिन देखते ही देखते कई जनजातियों को विकास निगलता गया। जो जनजातियां अब तक बची हुयी हैं वो अपने पारंपरिक ज्ञान और अनुभव के आधार पर जिंदा हैं।

दी एसोसिएट प्रेस के लिए जनवरी 2005 में लिखी अपनी स्टोरी में नीलेश मिसरा (फाउंडर, गाँव कनेक्शन) अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में आए सुनामी के बारे में जिक्र करते हैं। इस भयावह सुनामी में 900 से अधिक लोग मारे गए और करीब 6 हजार लोग लापता हुए, बावजूद इस त्रासदी के, जारवा जनजाति के कम से कम 250 लोग सुरक्षित जीवित बचे रहे। नीलेश मिसरा की इस रिपोर्ट ने उन बातों को भी तरजीह दी जिसमें बताया गया कि अपने पारंपरिक ज्ञान के आधार पर वो लोग इस आपदा को पहले से ही भांप चुके थे और सुरक्षित ठिकानों पर पहुंच गए। कई जारवा युवा नारियल के पेड़ पर चढ़कर अपनी जान बचा सके। इसी रिपोर्ट में मिसरा बताते हैं कि हवाओं के रुख, पक्षियों की चहचहाहट और समुद्र की लहरों की हरकतें देख ये लोग मौसम और प्राकृतिक आपदाओं का पूर्वानुमान कर लेते हैं।

हजारों सालों से वनवासियों ने वनों के करीब रहते हुए जीवन जीने की सरलता के लिए आसान तरीकों, नव प्रवर्तनों और कलाओं को अपनाया है। आदिवासियों ने मरुस्थल में खेती करने के तरीके खोज निकाले, तो कहीं जल निमग्न क्षेत्रों में भी अपने भोजन के लिए अन्न व्यवस्था कर ली। पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बगैर वनवासियों ने अपने जीवन को हमेशा से सरल और आसान बनाया है। इनका परंपरागत ज्ञान हजारों साल पुराना है, आज भी पर्यावरण और मौसम परिवर्तनों का अनुमान सिर्फ आसमान पर एक नजर मार कर लगाने वाले आदिवासी शहरी और बाहरी दुनिया के लोगों के लिए कौतुहल का विषय हो सकते हैं लेकिन इनके ज्ञान की संभावनांए किसी दायरे तक सीमित नहीं है।

पेसिफिक आईलैण्ड के आदिवासियों के हुनर का जिक्र किया जाए तो शायद कुछ हद तक हम समझ पाएंगे कि पारंपरिक ज्ञान में कितना दम है और इसे खो देने मात्र से हमें कितने नुकसान होगा। आसमान में उड़ने वाली तितलियों को देखकर पेसिफिक आईलैण्ड के आदिवासी अनुमान लगा सकते हैं कि उस दिन शाम तक मौसम शाम कैसा रहेगा? बरसात होगी या धूप खिली रहेगी? या तेजी आँधी चलेगी। मौसम के पूर्वानुमान के लिए की गयी इनकी भविष्यवाणियाँ सौ फीसदी सही साबित होती हैं लेकिन दुर्भाग्य से इस तरह का ज्ञान विलुप्त होने की कगार पर है क्योंकि यहाँ पर पर्यटन विकसित होने के बाद बाहरी लोगों के कदम पड़ने शुरू हो चुके हैं। आदिवासियों के बच्चे बाहरी दुनिया से रूबरू हो रहे हैं और इस तरह युवा अपना घर छोड़कर रोजगार की तलाश के नाम पर आईलैण्ड छोड़कर जा रहे हैं। यद्यपि पिछ्ले एक दशक में इस क्षेत्र से आदिवासियों के पलायन ने तेजी पकड़ रखी है लेकिन कुछ संस्थाओं और आदिवासी बुजुर्गों ने अब तक आस नहीं छोड़ी है।

यह भी पढ़ें: कैसे बचेगा आदिवासियों का जल, जंगल और ज़मीन?

शहरीकरण और विकास के नाम पर दुनियाभर की 6000 बोलियों में से आधे से ज्यादा खत्म हो चुकी हैं क्योंकि अब उसे कोई आम बोलचाल में लाता ही नहीं है, कुल मिलाकर भाषा या बोली की मृत्यु हो जाती है। एक भाषा की मृत्यु या खो जाने से से भाषा से जुड़ा पारंपरिक ज्ञान भी खत्म हो जाता है। लोक भाषाओं और बोलियों के खो जाने का नुकसान सिर्फ वनवासियो को नहीं होगा बल्कि सारी मानव प्रजाति एक बोली के खो जाने से उस बोली या भाषा से जुड़े पारंपरिक ज्ञान को खो देती है। आज भी दुनियाभर के तमाम संग्राहलयों में क्षेत्रिय भाषाओं और बोलियों से जुड़े अनेक दस्तावेज धूल खा रहें है और ना जाने कितनी दुलर्भ जानकारियाँ समेटे ये दस्तावेज अब सिवाय नाम के कुछ नहीं। ब्राजील की ऐसी एक विलुप्तप्राय: जनजाति से प्राप्त जानकारियों से जुड़े कुछ दस्तावेजों पर सालों तक शोध किया गया और पाया गया कि ये आदिवासी समुद्री तुफान आने की जानकारी 48 घंटे पहले ही कर दिया करते थे और ठीक इसी जानकारी को आधार मानकर आधुनिक विज्ञान की मदद से ऐसे संयंत्र बनाए गए जो प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी समय से पहले दे देते हैं।

यह भी पढ़ें: "इतने जुर्म, धमकियों और मुश्किलों के बाद हमने अपने अंदर से मौत का डर निकाल दिया है"

पेनन आईलैण्ड में भी सरकारी आर्थिक योजनाओं के चलते एडवेंचर टुरिज़्म जैसे कार्यक्रम संचालित किए गए ताकि बाहरी लोगों के आने से यहाँ रहने वाले आदिवासियों के लिए आय के नए जरिये बनने शुरु हो पाएं। सरकार की योजना आर्थिक विकास के नाम पर कुछ हद तक सफल जरूर हुयी लेकिन इस छोटी सफलता के पीछे जो नुकसान हुआ, उसका आकलन कर पाना भी मुश्किल हुआ। दर असल इस आईलैंड में कुल 10,000 वनवासी रहते थे। बाहरी दुनिया के लोगों के आने के बाद यहाँ के युवाओं को प्रलोभन देकर वनों के सौदागरों ने अंधाधुंध कटाई शुरु की। वनों की कटाई के लिए वनवासी युवाओं को डिजिटल गजेट (मोबाईल फोन, टेबलेट, सीडी प्लेयर, घड़ियाँ आदि) दिए गये, कुछ युवाओं को बाकायदा प्रशिक्षण के नाम पर जंगलों से दूर शहरों तक ले जाया गया। धीरे-धीरे युवा वर्ग अपने संस्कारों और समाज के मूल्यों को भूलता हुआ शहर कूच कर गया।

चाउ के परिवार द्वारा उसके इंस्टाग्राम अकाउंट पर सांझा किया गया सन्देश

आज इस आईलैण्ड में कुलमिलाकर सिर्फ 500 वनवासी रहते हैं बाकी सभी घाटी और प्रकृति से दूर किसी शहर में बंधुआ मजदूरों की तरह रोजगार कर रहें है। आईलैण्ड में बाहरी लोगों के रिसोर्ट, वाटर स्पोर्ट हब, मनोरंजन केंद्र बन गए हैं लेकिन विकास की ऐसी प्रक्रिया में एक वनवासी समुदाय का जो हस्र हुआ, चिंतनीय है। मध्यप्रदेश के पातालकोट की बात करें या अंडमान और निकोबार द्वीप समूह जैसे इलाकों की बात हो, प्राकृतिक क्षेत्रों में पेनन आईलैण्ड की तरह ईको टूरिज़्म का होना मेरे हिसाब से बाहरी दुनिया के लिए एक खुला निमंत्रण है, लोग यहाँ तक आएं और पेसिफिक और पेनन आईलैण्ड जैसी समस्याओं की पुनरावृत्ति हो। पर्यटन के नाम पर ब्राजील जैसे देश में पिछले सौ सालों में 270 वनवासी समुदायों से 90 पूरी तरह से विलुप्त हो चुके हैं यानि करीब हर दस साल में एक जनजाति का पूर्ण विनाश हो गया।

आदिवासियों द्वारा जॉन एलन चाऊ की मौत महज़ एक मौत नहीं है, मौत के साथ जुड़े कई सवाल और मुद्दे भी हैं जिनपर खुलकर बहस और एक तय नीतिनिर्धारण होना जरूरी है।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)


   

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.