राशन की कतारों से ATM की कतारों तक 

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राशन की कतारों से ATM की कतारों तक आज हर घर का कम से कम एक व्यक्ति लंबी कतारों में धैर्य के साथ खड़े होकर कागज के उस टुकड़े को पाने की कोशिश करता है, जो कहता है, ‘‘मैं धारक को एक सौ रुपए अदा करने का वचन देता हूं।’’

पल्लव बाग्ला

नई दिल्ली (भाषा)। कतारें बनाना और तोडना एक ऐसा इंसानी खेल है, जिसे भारतीय खासतौर पर पसंद करते हैं। अमेरिका से राशन के आयात के बाद राशत की कतारें तो बीते दौर की बात हो गईं, लेकिन आज एटीएम के बाहर लगी कतारें एक ऐसा नया खेल बन गई हैं, जिसे खेलना भारत सीख रहा है।

प्रधानमंत्री ने लगातार ‘‘स्टार्ट-अप इंडिया और स्टैंड-अप इंडिया'' की जरुरत पर जोर दिया है। आज ये दोनों ही काम अच्छी तरह से हो रहे हैं। लोग सुबह से ही मुद्रा नोटों की खोज में निकल पड़ते हैं और लंबी-लंबी कतारों में भी लग रहे हैं। शायद मोदी को एक नया वाक्य ‘क्यू अप इंडिया' लेकर आना चाहिए लेकिन यह वह भारत नहीं है, जिसका सपना भारतीयों ने देखा था।

1.3 अरब की जनसंख्या वाले देश में लंबी और रेंगती हुई कतारें आम बात हैं। आज हर घर का कम से कम एक व्यक्ति लंबी कतारों में धैर्य के साथ खड़े होकर कागज के उस टुकड़े को पाने की कोशिश करता है, जो कहता है, ‘‘मैं धारक को एक सौ रुपए अदा करने का वचन देता हूं।'' प्रधानमंत्री मोदी की ओर से 86 प्रतिशत मुद्रा को वापस ले लेने के बाद से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र एक तरह से कैशलेस (मुद्राविहीन) हो गया है। किसी भी देश के लिए मुद्रा उसकी जीवनरेखा होती है और यदि आप उस व्यक्ति की 86 प्रतिशत जीवनरेखा ही ले लेते हैं, तो जल्दी ही वह व्यक्ति मर जाता है।

मंगलवार को हुई इस घोषणा के अगले ही दिन एक पड़ोसी कुछ सिक्कों के जरिए सब्जियां खरीद रहा था। प्रधानमंत्री द्वारा मंगलवार रात आठ बजे की गई इस घोषणा के बाद सिक्कों को एक नया अर्थ मिल गया है।

वित्त मंत्री अरुण जेटली लगातार यह कहते आए हैं, ‘‘भारत विश्व की सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है।'' लेकिन वास्तव में जो चीज तेजी से बढ़ रही है, वह है कतारों की लंबाई। योग-प्रेमी मोदी की ओर से आम आदमी को जो यह अभूतपूर्व ‘शीर्षासन' कराया गया है, उसके कारण लोगों का धैर्य जवाब दे रहा है।

रोजमर्रा की मुश्किलों से निपटना जानने वाले भारतीयों में से कुछ लोग नकदी के दबे-छिपे लेनदेन पर लगाम कसने वाले मोदी के इस कदम के समर्थन में हैं। भारत में निश्चित तौर पर बहुत से विरोधाभास देखने को मिलते हैं। हम मंगलयान यहां से 20 करोड़ किलोमीटर की दूरी पर मंगल की कक्षा में तो भेज सकते हैं, लेकिन यह सुनिश्चित नहीं कर सकते कि एक आम भारतीय को धक्का-मुक्की झेले बिना ही अपनी मेहनत के 2000 रुपए मिल जाएं।

ऐसा लगता है कि भविष्य की ओर बढ़ते भारत को ये कतारें अतीत की ओर ले जाती हैं। छोटे शहरों वाले देश के लड़के के तौर पर, ये मुझे उस दौर की याद दिलाती हैं, जब राशन की दुकानों पर लंबी कतारें लगती थीं और भंडार भरे जाने से कहीं ज्यादा तेजी से ये खत्म हो जाया करते थे।

आज से चार दशक पहले जब खाद्य पदार्थों की काफी कमी थी, तब लाखों टन अनाज (गेहूं आदि) ‘पीएल 480' के तहत अमेरिका से आयात किया जाता था। चूंकि यह अनाज बंदरगाहों पर उतरता था, इसलिए इनके साथ ‘शिप टू माउथ' जुमला घर-घर में चर्चित हो गया।

मुझे याद है जब मेरी मां मेरी छोटी सी उंगली पकडकर राशन की दुकान पर ले जाया करती थीं। हम दोनों एक खस्ताहाल राशन की दुकान के बाहर कतार में खड़े रहते थे ताकि कुछ किलो गेहूं और थोड़ी सी चीनी खरीद सकें। अकसर इस दुकान के बाहर एक बोर्ड टंगा दिखता था, जिसपर हाथ से लिखा होता था- ‘स्टॉक खत्म'। यह कुछ उसी तरह है, जैसे आजकल एटीएम के बाहर लिखा रहता है- ‘कैश खत्म'।

बीसवीं सदी के पुराने और खराब दिनों में राशन की दुकानें और उनके बाहर लगी कतारें आम थीं। यह वह दौर था, जब समाजवादी एजेंडे पर चलने वाली वामोन्मुखी कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार भारी बहुमत के साथ सत्ता में थी। आज जब कई दशकों बाद पूंजीवाद एवं व्यापार के प्रति मित्रवत मानी जाने वाली एक अन्य दक्षिणोन्मुखी सरकार बहुमत के साथ सत्ता में है, तब भी कतारों का सिलसिला वापस आ गया है।

आज 21वीं सदी में जिस कथित डिजीटल इंडिया में ‘मेक इन इंडिया' एक चर्चित नारा बन चुका है, वहां देश वास्तव में ‘कतारें बना' रहा है। इस समय ये कतारें एटीएम के बाहर हैं। लोगों का धैर्य जवाब दे रहा है और एक भूखा भारत जल्दी ही गुस्से वाला भारत बन सकता है।

आज बैंक राशन की नई दुकानों जैसे हो गए हैं और आस-पड़ोस में चर्चा का विषय यही रहता है कि किस तरह कोई व्यक्ति हमेशा भरे रहने वाले एटीएम से दो हजार रुपए निकाल पाने में सफल रहा। यह एक लॉटरी लगने जैसा माना जा रहा है।

हम एकदम मरणासन्न भले ही न हो गए हों लेकिन परेशानी तो निश्चित तौर पर हो रही है। नोटबंदी की शुरुआत सरकार ने दो दिन की बात कहकर की थी। तब जेटली ने कहा था, ‘‘मेरे साथ बने रहिए, यह परेशानी दो सप्ताह तक रहेगी।'' और अब आंखों में आंसू लिए मोदी ने इस दर्द को दो माह तक बढ़ा दिया है।

भारत ने पूरी तरह आंखें खुली होने के बावजूद अंधाधुंध तरीके से कैशलैस अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ने का मुश्किल रास्ता अपनाया है। उसने यह उम्मीद की है कि काला धन रखने वाले चालाक लोग झांसे में आ जाएंगे। लेकिन लग ऐसा रहा है कि हमारे देश का भविष्य उसके अतीत की ओर बढ़ रहा है।

लगता है कि सरकार इस बात को नजरअंदाज कर रही है कि काला धन रखने वाले लोग अपने धन को लेकर कतारों में नहीं खड़े होते। मोदी सरकारी की ओर से कालेधन पर किए गए इस कथित सर्जिकल हमले की पटकथा क्रियांवयन के मामले में दुर्भाग्यवश गलत दिशा में जा रही है। जमीनी स्तर पर यह ईमानदार भारतीयों के एक बड़े तबके में परेशानी पैदा कर रही है। ‘अच्छे दिनों' का वादा करने वाले मोदी से लोगों ने नकदी को नियंत्रित कर देने की उम्मीद नहीं की थी।

     

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