आत्महत्या करने वाले किसानों के घरों की महिलाओं के लिए बजट में विशेष पैकेज देने की मांग

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आत्महत्या करने वाले किसानों के घरों की महिलाओं के लिए बजट में विशेष पैकेज देने की मांग

नई दिल्ली। किन्हीं कारणों से किसान जब आत्महत्या करते हैं, उसका सबसे ज्यादा प्रतिकूल असर घर की महिलाओं खासकर पत्नी पर पड़ता है। आगामी बजट में ऐसी महिलाओं के लिए विशेष पैकेज देने की मांग उठी है। ताकि वो अपनी जीवन सुचारू रूप से चला सकें।

यूएन वुमेन और महिला किसान अधिकार मंच (मकाम) के द्वारा "कृषि सम्बन्धित आत्महत्या ग्रसित परिवारों की महिला किसानों की स्थिति" विषय पर संयुक्त रूप से आयोजित राष्ट्रीय परामर्श में महिलाओं ने सरकार से वर्तमान बजट के अंतर्गत एक विशेष सहायता पैकेज की मांग की। सम्मेलन में कई राज्यों के अधिकारियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, महिला किसान और पीड़ित किसान परिवारों की विधवाओं ने हिस्सा लिया। जिनमें काफी संख्या में वो महिलाएं भी थीं जिनके पतियों ने आत्महत्या की थी। समारोह के दौरान कई महिलाओं ने अपनी आपबीती बताई और सरकारी खामियां भी गिनाई। कई महिलाओं ने बताया कि किस प्रकार स्थानीय प्रशासन ने उनके पति की आत्महत्या को कृषि सम्बन्धित आत्महत्या मानने से भी इन्कार कर दिया है, जिस वजह से उनका परिवार किसी भी प्रकार की सहायता से वंचित रह गया।

"सरकार कृषि सम्बन्धित आत्महत्या रोकने में असफल रही है। यहां तक कि सरकार, उचित सहायता तक प्रदान करने में असफल रही है जिसकी मदद से पीड़ित परिवार की महिलाएं, अपना जीवन, जीविका और परिवार को सुचारू रूप से चला पाती। जबकि ये सभी को ज्ञात है कि भारत में होने वाली कृषि सम्बन्धित आत्महत्याऐं शासन की त्रुटिपूर्ण नितियों का नतीजा है।" मकाम ने अपने वकत्व्य में कहा।

दिल्ली में आयोजित सेमिनार को संबोधित करते वक्ता।

महिला किसानों ने आपत्ति जताई कि पति कि आत्महत्या कि बाद भी जमीन उनके नाम पर स्थानान्तरित नहीं की जा ही है। महिलाओं ने बताया कि उन्हें किस किस प्रकार की यातनाओं से गुजरना पड़ रहा है। अपनी व्यथाओं में उन्होंने उनके साथ हो रहे- सामाजिक र्दुव्यवहार, यौनिक उत्पीड़न यहां तक कि बलात्कार के भी कटु अनुभव बताए।

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तेलंगाना के नालगोण्डा जिले की पी.ए.पल्ली ने बताया "हम लीज पर जमीन लेकर खेती करते हैं। मेरे पति ने 2018 में आत्महत्या की थी। हम पर 6 लाख का कर्ज बकाया है। मैं स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता की मदद से सरकार से राहत पाने की को कोशिश कर रही हूं। मैं कई महीनों से सरकारी कार्यालयों के चक्कर काट रही हूं पर आजतक मुझे कोई मदद नही मिली।"

तेलांगना की महिला किसान कोर्रा शान्थि के अनुसार उसके पति के नाम पर जमीन न होने की वजह से उसको मुवावजे की पात्रता के लिए अयोग्य मान लिया गया। मकाम कार्यकर्ताओं ने कृषि सम्बन्धित आत्महत्याओं को चिन्हित करने व मुआवजे की योग्यताओं से जुड़ी शासन की कई विसंगतियों पर चर्चा की।

"हमनें पाया है अलग अलग राज्यों के राहत और पुर्नवास पैकजों में बहुत अन्तर है। कुछ राज्य कृषि सम्बन्धित आत्महत्या को चिन्हित करने से ही कतराते हैं और कई में, पीड़ित परिवारों की महिला किसानों को पर्याप्त राहत मुहैया कराने की उचित नीतियों का भी अभाव है। आन्ध्र प्रदेश ने प्रत्येक पीड़ित परिवार को 7 लाख रूपए मुआवजा देने की पहले की है। जबकि महाराष्ट जहां किसान आत्महत्या के आंकड़े सबसे ज्यादा है वहां मुआवजे की राशि केवल 2 लाख मात्र है।" मकाम की कार्यकर्ता सीमा कुलकर्णी ने बताया।

उन्होंने आगे कहा कि तेलांगना राज्य में नियमानुसार 6 लाख मुआवजा देने का प्रावधान है पर रैयथु बीमा पढ़ाकम नाम की किसान बीमा योजना आने के बाद मुआवजा आवंटन न के बराबर हो गया है। पंजाब राज्य में मुआवजे का आंवटन अत्यन्त ही निराशाजनक है और व्यवस्थागत तरीके से किसान आत्महत्या को नकारने के सुनियोजित प्रयास किए जा रहे हैं। पीड़ित परिवारों की महिला किसानों को पितृसत्तात्मक समाज के हवाले, अकेले परिस्थिती से जूझने के लिए, उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। कई परिवारों में महिलाओं ने आत्महत्या भी की है।"

महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलांगना, आन्ध्रप्रदेश और तमिलनाडू के अध्ययन से आए परिणामों को सम्मेलन में रखते हुए मकाम ने अपने वक्तव्य में कहा कि परिस्थिती से उबरने में महिला किसानों के रास्ते की एक बड़ी अड़चन है - मृतक द्वारा अपने पीछे छोड़ा गया कर्ज का बोझ।"

किसानों की बेहतरी के लिए देशभर में काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता कविता कुरूंगती ने कहा कि किसान आत्महत्या से जुड़ी नीतियों में और खासकर सूचिबद्ध व्यवसायिक या सहकारी बैकों के दिशा-निर्देषों में तो कर्जमाफी का कोई प्रावधान ही नही है जबकि कुछ माइक्रोफाइनेन्स संस्थाओं ने छूट की मानवीय पहल की है, जिससे महिलाओं को कमसे कम इस उत्पीड़न से राहत मिल सके।"

कविता कुरूंगती ने मकाम और किसानों के संगठन आशा से जुड़ी हैं। वो आगे बताती हैं, "पहले आन्ध्र प्रदेश के पैकेज में एक लाख का कर्जमाफी का प्रावधान होता था जो कि निजी/सरकारी/किसी भी स्रोत से मिले कर्ज के कुछ मामलों में मिलता था ताकि महिला को इस कभी न खत्म होने वाले कर्ज के चक्रव्यूह से कुछ तो राहत मिल सके। हमें इस प्रकार के संवेदनशील व कारगर प्रावधानों को देश भर में लागू करने की जरूरत है।"

इस दौरान मकाम/रयथू स्वराज्य की आशालता सत्यम ने बताया कि तेलांगना व आन्ध्रप्रदेश के जमीनी अध्ययन के दौरान ये बात भी सामने आई कि कई ग्रसित प्ररिवारों में बच्चों को अपनी पढ़ाई भी छोड़नी पड़ी। केवल कर्नाटक राज्य में पीड़ित परिवारों के बच्चों की शिक्षा को सुनिश्चित करने का यंहा तक निजी संस्थानों की फीस भुगतान का भी नीतिगत प्रावधान है। इसके बावजूद विभिन्न विभागों के समन्वय के अभाव में यह सुविधा पीड़ित परिवारों तक नहीं पहुंच पाती है। महाराष्ट्र सरकार ने शिक्षा विभाग को प्रस्तावित मात्र किया है और बाकि राज्यों में तो ऐसी कोई नीति ही लागू नहीं की गई है।"

सेमिनार के दौरान कई पीड़ित महिलाओं ने भी अपनी बात रखी और सरकार और समाज का वो पक्ष बताया, जिसमे उन्हें रोज की जिंदगी में दोचार होना पड़ता है। पंजाब में भी किसान आत्महत्या के लिए कुख्यात हो रहा है।

"सहायता न देने की शुरूआत किसान आत्महत्या की सच्चाई को नकारने से शुरू होती है।" से पंजाब की किरनजीत कौर, अपनी बात की शुरुआत करती हैं। वो खुद आत्महत्या ग्रसित परिवार से हैं। उन्होंने आगे कहा कि "सरकार के द्वारा उपयोग किए जाने वाले पात्रता के कई मापदन्ड ऐसे हैं जो कि किसान की आत्महत्या की कटु सच्चाई को ही नजरअन्दाज करते हैं। ये मापदन्ड, वर्तमान कृषि संकट और सरकारी नीतियों की विफलताओं को आधिकारिक मान्यता न देने की दृष्टि से बनाए जाते हैं, ताकि सरकार इसकी जिम्मेदारी से खुद का बचा सके।"

उन्होंने आगे कहा कि भूमी स्वामित्व और बकाया संस्थागत कर्ज को ही मापदण्ड बनाया जाता है जबकि कृषि मजदूर, बटाई/किराएदार किसान, महिला किसान, या ऐसे किसान जिन्होंने निजी साहूकारों से कर्ज लिया हो आदि को 'योग्य' या 'वास्तविक' पात्र ही नहीं माना जाता है।"

मकाम ने यह भी मांग रखी की कि एनसीआरबी और गृह मन्त्रालय, ग्रामीण और शहरी आत्महत्याओं के अन्तर्गत महिला के मामलों को 'गृहिणी' व 'दैनिक मजदूर' के रूप में वर्गीकृत कर अलग अलग डेटा रखे। मकाम ने कहा कि कहा- "किसान आत्महत्या की सूची जिसे सरकार वैसे भी अनमने ढंग से जारी करती है उस सूची में भूमि स्वामित्व न होने की वजह से अक्सर महिला किसानों की आत्महत्या के केस को दर्ज ही नही किया जाता हैं।"


"बार बार आने वाली प्राकृतिक आपदाएं किसानी के संकट को और बढ़ा रही है। आज जबकि जलवायु परिवर्तन एक बहुत बड़ी वास्तविकता है और खेती पहले से कही अधिक जोखिमभरा व्यवसाय बन चुका है, फिर भी देश में प्रभावकारी फसल बीमा और आपदा क्षतिपूर्ति तन्त्र का पूर्णतः अभाव हैं। उदार या मुक्त व्यापार समझौतों के बावजूद, किसान आज अपनी लागत तक निकाल पाने में असमर्थ हो रहे हैं।" तमिलनाडु वुमैन फोम की फातिमा बुरनाड ने कहा।

मकाम का कहना है कि- "वित मन्त्री निर्मला सीतारमण अपने बजट को संसद में पेश करे उससे ठीक पहले हमारे दिल्ली में आने का उद्देश्य़ सरकार पर एक न्यायोचित राहत और पुर्नवास पैकज देने का दबाव डालना है।

एक ऐसा पैकेज जो कि आत्महत्या ग्रसित परिवारों की महिला किसानों को विकट स्थिति से निकालने और उनकी किसानी को आगे बढाने के लिए हो। हमारी मांग ये भी है कि पुराने प्रकरणों को पुनः खोला जाए और ग्राम सभा आधारित जांच व सहायता के प्रावधान किए जाए।" राष्ट्रीय परामर्श में महाराष्ट, पंजाब, आन्ध्र प्रदेश, तेलांगना और कर्नाटक राज्य सरकारों के प्रतिनीधियों की भागीदारी रही पर केन्द्र सरकार का कोई प्रतिनिधी उपस्थित नहीं हुआ।

महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के यवतमाल जिले से आई महिला किसान लक्ष्मी (नाम प्रवर्तित) ने कहा- "वावारहे, तर पावर आहे (अगर जमीन है तो ताकत है)।" उसने बताया कि मेरे सास-ससुर मेरे नाम पर जमीन करने पर बहुत दुखी हुए। मेरे देवर ने मेरा सामान घर से बाहर फेंक दिया और कहा कि मैं अपने बेटे को लेकर घर से निकल जांउ। ये सारी घटना उसी दिन हुई जिस दिन मेरे नाम की जमीन की मापी हुई। उन्होंने मेरे हक की जमीन की मापी भी नहीं होने दी।" जबकि महाराष्टं के ओसमानाबाद जिले की उज्जवला के मुताबिक पति की मौत के बाद कर्ज़दार परेशान कर रहे हैं और जमीन आज तक उनके नाम नहीं हो पाई है।

मराठवाड़ा के ओसमानाबाद जिले की कान्ताबाई (नाम प्रवर्तित) ने कहा कि पति की मृत्यु के एक साल बाद उसके जेठ ने उसके साथ बलात्कार किया। वर्धा जिले की माधुरीताई (नाम प्रवर्तित) ने बताया कि पेशन की फाइल को आगे बढ़ाने के लिए एक अफसर ने यौन सम्बन्ध बनाने की मांग तक की।

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