इन 6 किसानों को मिल रहा पद्मश्री, कोई अंगूर की बंपर पैदावार तो कोई कम पानी में करता है खेती

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इन 6 किसानों को मिल रहा पद्मश्री, कोई अंगूर की बंपर पैदावार तो कोई कम पानी में करता है खेती

केंद्र सरकार ने पद्म पुरस्कारों की घोषणा कर दी है। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर जारी हुई सूची के अनुसार इस वर्ष सात हस्तियां पद्म विभूषण, 16 पद्म भूषण और 118 पद्मश्री से सम्मानित की जाएंगी। इस लिस्ट में 6 किसान भी हैं जिन्हें पद्मश्री सम्मान के लिए चुना गया है। पिछले साल 12 किसानों को यह सम्मान मिला था।

इस साल नागरिक सम्मान पद्मश्री पाने वाले ये 6 किसान कौन हैं, इन्होंने क्या खास किया है, आइये जानते हैं।

सुंडाराम वर्मा

राजस्थान के जिला सीकर के गांव दाता के किसान सुंडाराम वर्मा को कम पानी में खेती की तकनीक पर काम करने के लिए पद्मश्री सम्मान मिल रहा है। वर्ष 1972 में बीएएसी करने के बाद विज्ञान अध्यापक के पद पर कई बार उनका चयन हुआ लेकिन उन्होंने खेती को प्राथमिकता दी और बताया कि कम पानी की खपत करके भी खेती की जी सकती है। वे किसानों को इसके लिए प्रेरित भी करते हैं। राज्य सरकार उन्हें वन पंडित पुरस्कार से भी सम्मानित कर चुकी है। वर्ष 1997 में कनाडा में एग्रो बायोडायवर्सिटी अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था। वर्ष 1998 में जगजीवन राम किसान सम्मान मिलने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली।


सुंडाराम को पद्मश्री मात्र एक लीटर पानी में पौधरोपण तकनीक विकसित करने के लिए मिल रहा है। उन्होंने एक हेक्टयेर जमीन में 20 लाख लीटर बारिश के पानी और 15 फसलों की 700 से अधिक प्रजातियों का संग्रहण और संरक्षण किया है। वे अभी तक 50 हजार पौधे लगा चुके हैं।

चिंतला वेंकट रेड्डी

तेलंगाना के आलवाल में किसान परिवार में जन्मे चिंतला वेंकट रेड्डी को लोग बिजरहीत अंगूर की खेती के लिए जानते हैं। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही खेती से जुड़े चिंतला अंगूर, धान, गेहूं, गन्ना, सब्जी, मक्का और मोटे अनाज की खेती तो करते ही हैं साथ ही नेशनल सीड कॉर्पोरेशन और आंध्र प्रदेश स्टेट सीड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन को पिछले 10 वर्षों में लगातार नये बीज दे रहे हैं।


रेड्डी ने तेलंगाना के कुंदपल्ली में अंगूर की खेती करते हैं और आलवाल में अपना रिसर्च सेंटर बना रखा है कि जहां वे काले अंगूर की खेती करते हैं और रोजाना कई किसानों को बेहतर जैविक खेती के लिए जागरूक भी करते हैं।

विज्ञान और नई तकनीक की मदद से एक हेक्टेयर में 105 टन अनब-ए-शाही और इतने ही क्षेत्र में में 84 टन बिजरीहत अंगूर की पैदावार करने वाले रेड्डी की गिनती अपने जिले के पहले आधुनिक किसान के रूप भी होती है।

वर्ष 2002 में चिंतला वेंकट ने मिट्टी की उर्वरक क्षमता बढ़ाने की जो तकनीक इजाद की उसी के लिए उन्होंने पद्मश्री मिल रहा है। इसी तकनीक से उन्होंने अंगूर की बंपर पैदावार की। इस तकनीक का प्रयोग उन्होंने चावल, गेहूं और काले अंगूर की खेती में किया जिससे पैदावार तो बढ़ी ही साथ ही इस फसलों की पोषक गुणवत्ता भी बढ़ी।

चिंतला वेंकट की तकनीक का भारत सहित कई देशों में पेटेंट है जबकि 60 से ज्यादा देशों में पेटेंट की प्रक्रिया चल रही है। उनके इस आविष्कार के लिए राज्य सरकार उन्हें कई बार सम्मानित कर चुकी है।

राहीबाई सोमा पोपेरे

बीज माता के नाम से मशहूर महाराष्ट्र की राहीबाई सोमा पोपेरे को देसी बीजों के संरक्षण के लिए पद्मश्री मिल रहा है। जिला कोम्भालने के अंबेडकरनगर की रहने वालीं राहीबाई ने अपने कच्चे घर में बीज बैंक बना रखा है। उनके पास दाल, मोटे अनाज और तिलहन के पुराने देसी बिजों के भंडार हैं। वे संस्थाओं की मदद से इसे किसानों को देती हैं।

कोम्भालने जिले की गिनती महाराष्ट्र के अति पिछड़ों जिलों में होती है। राहीबाई यहां के किसानों को बिना किसी रसायन के प्रयोग की खेती सिखाती हैं और उन्हें पुराने बीजों से होने वाले फायदों के बारे में बताती हैं। उनका मानना है कि देसी बीजों से ही किसानों का भला हो सकता है क्योंकि इसके लिए बस हवा और पानी की जरूरत होती है।


वे अभी 3,5000 किसानों के साथ काम करती हैं और इनके सहेजे गये बीजों से 32 फसलों की खेती हो रही है। समाचार एजेंसी पीटीआई से बातचीत में उन्होंने बताया, " 20 साल पहले जब मैंने पुराने बीजों को सहेजना शुरू किया था तब मेरे घर वाले मेरे ऊपर हंस रहे थे। लेकिन मैंने घर में मना कर दिया था कि बाजारों में मिलने वाले हाइब्रीड बीज से हम खेती नहीं कर करेंगे और न ही उस फसल को खाएंगे।"


"12 साल की उम्र में मेरी शादी हो गई थी। मैं कभी स्कूल नहीं गई लेकिन खेती के नये तरीके सीखना चाहती थी। शुरू में सब्जियों की खेती पुराने बीजों से शुरू की। तब लोग कहते थे कि इससे कुछ पैदा नहीं होगा," वे आगे कहती हैं।

पिछले साल बीबीसी ने राहीबाई को 100 दुनिया भर में प्रेरणादायक और प्रभावशाली महिलाओं की सूची में स्थान दिया था।

" विश्वास करिये, हम जो इतना बीमार हो रहे हैं उसके लिए हमारा जहरयुक्त खाना ही जिम्मेदार है। हम इतना उगा सकते हैं जिससे हमारा काम चल जायेगा। इसलिए हमे खेती की पुरानी पद्धति और देसी बीजों की ओर लौटना होगा। मेरे यहां जो लोग ट्रेनिंग के लिए आते हैं उन्हें मैं यही सिखाती हूं।" राहीबाई पीटीआई से कहती हैं।

त्रिनिती सावो

मेघायल की जिला पश्चिम जयंतिया हिल्स की रहने वाली आदिवासी महिला किसान त्रिनिती सावो हल्दी की खेती करती हैं और महिला किसानों के समूह से जैविक हल्दी की खेती करवाती हैं। उनकी इस पहल से महिला किसानों की आय तीन गुना तक बढ़ चुकी है। इसी के लिए उन्हें पद्मश्री मिल रहा है।


त्रिनिती ने 25 महिला किसानों के साथ मिलकर मुलिएह गांव में स्पाइस बोर्ड की मदद से हल्दी की खेती की शुरुआत की थी। चार साल के अंदर 800 किसान मिलकर अब लोकादोंग किस्म की हल्दी की खेती कर रहे हैं। त्रिनिती के संगठन से 100 से ज्यादा स्वयं सहायता समूह की महिलाएं जुड़ी हुई हैं जो हल्दी की खेती कर रही हैं।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुसार लोकादोंग हल्दी में करक्यूमिन की मात्रा 7 फीसदी होती है। दवाओं में इसका प्रयोग बहुत होता है। सामान्य हल्दियों की प्रजाति में करक्यूमिन की मात्रा 2 से 5 फीसदी तक ही होती है।

राधा मोहन और साबरमती

ओडिशा के नारायगढ़ जिले में रहने वाले अर्थशास्त्र के सेवानिवृत्त प्रोफेसर राधा मोहन और उनकी बेटी साबरमती संरक्षण मॉडल के जरिये स्थानीय किसानों की मदद कर रहे हैं।

पिता-पुत्री ने मिलकर संभव रिसोर्स सेंटर की शुरुआत की जहां देशभर से आये किसान बीजों की अदलाबदली करते हैं और जैविक खेती के बारे में सीखते हैं। संभव विलुप्त होती पुरानी फसलों को जिंदा करने का प्रयास कर रहा है।


दोनों लोगों ने मिलकर नारायाणगढ़ जिले की लगभग 36 हेक्टेयर जमीन जो बंजर थी, उसे मृदा और जल संरक्षण तकनीक से जीवंत किया जिसे अब लोग फूड फॉरेस्ट के नाम से जानते हैं। इस जंगल में मसालों के 1000 से ज्यादा पेड़ लगाये गये हैं जबकि 500 प्रकार के धान की खेती हो रही है और 700 प्रकार के पुराने बीजों का संग्रहालय भी है।

  

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