क्या रेप पीड़ित दलित लड़कियां और महिलाएं न्याय के लिए ज्यादा चुनौतियां झेलती हैं? हर दिन 10 दलित महिलाओं के साथ हो रहा रेप

देश में बढ़ती रेप की घटनाओं के दौरान गाँव कनेक्शन ने देश के अलग-अलग राज्यों में हर वर्ग और समुदायों से बात करके एक विशेष सीरीज शुरू की है जिसका नाम है, 'जिम्मेदार कौन?'. इस सीरीज के दूसरे भाग में पढ़िए वंचित और दलित समुदाय की लड़कियों-महिलाओं को न्याय मिलना कितना मुश्किल है?

Neetu SinghNeetu Singh   3 Nov 2020 3:30 PM GMT

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क्या रेप पीड़ित दलित लड़कियां और महिलाएं न्याय के लिए ज्यादा चुनौतियां झेलती हैं? हर दिन 10 दलित महिलाओं के साथ हो रहा रेप

पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ खींचने वाला हाथरस का केस हो या राजस्थान में अजमेर को बंधक बनाकर 8 घंटे तक महिला के साथ गैंगरेप, दोनों ही पीड़िताएं दलित समुदाय से थीं। दोनों मामलों की जांच जारी है, न्याय और तथ्यों की बातें कोर्ट में होंगी। पर इस पर अभी तक जो टीका-टिप्पणी हुई है वो ये समझने के लिए काफी है कि जब किसी दलित पीड़िता के साथ ऐसी घटना होती है तब पुलिस, मीडिया और सियासत सभी का रुख अलग ही देखने को मिलता है।

जिस समय देश में हाथरस मामले को लेकर लोग सड़कों पर उतरे थे, पीड़िता के लिए न्याय की मांग रहे थे उसी समय देश के अलग-अलग हिस्सों में रेप और गैंगरेप की कई और वारदातें हुई। ये घटनाएं हाथरस की तरह चर्चा में तो नहीं आ पायीं लेकिन इनके साथ हुई दरिंदगी के लिए ये पीड़िताएं भी न्याय चाहती हैं।

राजस्थान के अजमेर में एक दलित महिला को आठ घंटे तक बंधक बनाकर तीन आरोपियों ने गैंगरेप किया। तीनों ने मिलकर पीड़िता के मुंह में कपड़ा ठूंस दिया जिससे वो चीख न सके।

यूपी के बलरामपुर केस में भी 22 वर्षीय पीड़िता दलित समुदाय से थी, कॉलेज से बीकॉम थर्ड ईयर का एडमिशन कराकर लौट रही थी। परिवार का आरोप है पहले पीड़िता के साथ गैंगरेप किया गया, हालत बिगड़ी तो बदहवास स्थिति में घर पहुंचा दिया गया। आधे घण्टे बाद उसकी मौत हो गई।

बलरामपुर घटना के 15 दिन बाद बाराबंकी जिले में एक 17 वर्षीय दलित लड़की खेत में 14 अक्टूबर को धान काटने गयी। उसी वक़्त दो आरोपियों ने गैंगरेप करके उसकी हत्या कर दी।

गैंगरेप की घटना के बाद इस पीड़िता का घर से बाहर निकलना हो गया बंद. फोटो: नीतू सिंह

इन मामलों की कवरेज स्थानीय मीडिया तक ही रही, ये घटनाएं नेशनल मीडिया में जगह नहीं बना पायीं। इन पीड़िताओं को न्याय मिलेगा या नहीं, पुलिस का रवैया इनके प्रति कैसा रहा? इन्हें जातिगत भेदभाव का कितना सामना करना पड़ेगा यह कह पाना अभी मुश्किल है। क्योंकि इन मामलों की तह तक न तो मीडिया गया और न ही राजनैतिक पार्टियों के नेता और कार्यकर्ता।

किसी दलित पीड़िता के साथ रेप और गैंगरेप की घटना के बाद न्याय मिलना कितना चुनौतीपूर्ण है ये अभी हाल ही में घटी हाथरस की घटना से ही समझते हैं।

हाथरस जिले के बूलगढ़ी गाँव में एक 19 वर्षीय दलित पीड़िता के साथ 14 सितंबर को सर्वण जाति के लोग गैंगरेप करते हैं। पीड़िता घटना वाले दिन ही कहती है कि मुख्य आरोपी संदीप ने उसके साथ 'जबरजस्ती' की इसके बावजूद पुलिस आठ दिन बाद केस दर्ज करती है और बाद में आरोपियों की गिरफ़्तारी होती है। पीड़िता की 29 सितंबर को इलाज के दौरान दिल्ली में मौत हो जाती है, प्रशासन परिवार की मर्जी के बिना दाह-संस्कार कर देता है।

सरकारी दिशा-निर्देशों के अनुसार घटना के 96 घंटे तक केवल फॉरेंसिक सबूत पाए जा सकते हैं। जबकि इस केस में घटना के 11 दिन बाद नमूने इकट्ठा किये गये। उत्तर प्रदेश के एडीजी (कानून और व्यवस्था) प्रशांत कुमार ने मीडिया से कहा, "फोरेंसिक साइंस लेबोरेट्री (एफएसएल) की रिपोर्ट में पीड़िता से रेप होने की बात सामने नहीं आई है। रिपोर्ट सामने आने के बाद साबित होता है कि कैसे गलत जानकारी पर जातिगत तनाव पैदा करने की साजिश रची गई।"

एक रेप पीड़िता की माँ, जो अपनी बेटी के साथ हुए गैंगरेप की घटना बाद सिर्फ न्याय चाहती है. फोटो: नीतू सिंह

राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय मीडिया में जब इस घटना ने तूल पकड़ा तब इस केस में कई किस्से सामने आने लगे। कोई प्रेम प्रसंग की बात करता तो कोई ऑनरकिलिंग की। ये उस मामले की स्थिति है जिसे पीड़िता की मौत से लेकर अभी तक राष्ट्रीय मीडिया में लगातार कवरेज मिल रही है।

सियासत से दूर समाज और लड़कियों की चिंता करने वाले लोगों के बीच इस बात की चर्चा ने जोर पकड़ा कि बाकी रेप के मामलों की जांच किस तरह आगे बढ़ती होगी और अगर वो पीड़िताएं दलित होती होंगी तो उनकी दिक्कतें क्या होती होंगी?

देश में दलित समुदाय के साथ काम करने वाले एक संगठन 'दलित वुमेन फाईट' की कोर-मेंबर राजस्थान के जयपुर में रहने वाली सुमन देवठिया कहती हैं, "हम आज भी कितना भी आगे बढ़ने की बात कर लें पर इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि समाज में दलित समुदाय अभी भी जाति का दंष झेल रहा है। एक दलित पीड़िता के साथ रेप की घटना को उच्च जाति और प्रशासन कभी गम्भीरता से नहीं लेता। पुलिस महकमा ऐसे मामलों में तबतक त्वरित कार्रवाई नहीं करता जबतक उसमें सियासत न हो और लोग सड़कों पर उतरकर हाथरस मामले की तरह एकजुट होकर आवाज न बुलंद करें।"

"एक तो दलित समुदाय के साथ होने वाली घटनाएं जल्दी थाने तक पहुंचती नहीं अगर किसी तरह पहुंच गईं तो पुलिस एफआईआर लिखने, मेडिकल कराने और बयान दर्ज करने में ही इतना वक़्त लगा देती है जिससे आरोपियों को सुबूत मिटाने का पूरा मौका मिल जाता है, ऐसे में पीड़ित परिवार थक हारकर सुलह-समझौता करने को मजबूर हो जाता है। ज्यादातर मामलों में प्रशासन का यही रवैया रहता है कि पैसे लेने के लिए पीड़िता झूठा आरोप लगा रही है। कभी लड़की का चरित्र खराब तो कभी ऑनर किलिंग का मामला बताकर पुलिस अपना पल्ला झाड़ लेती है, " सुमन देवठिया ने दलित समुदाय के साथ पुलिस के बर्ताव के बारे में अपना अनुभव बताया।

इस दलित मूक-बधिर नाबालिग बच्ची के साथ तीन साल पहले रेप हुआ फिर वो माँ बनी, अभी आरोपी पीड़िता परिवार को मुकदमा वापसी की धमकी दे रहा है. फोटो: नीतू सिंह

देश में हर मामला निर्भया, कठुआ, हाथरस की तरह तूल पकड़ेगा ऐसा बिलकुल जरूरी नहीं है। जिस दिन हाथरस रेप पीड़िता ने दम थोड़ा था उसी दिन राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने साल 2019 का आंकड़ा जारी किया। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2019 में औरतों के साथ होने वाली हिंसा में 7.3 फीसदी का इजाफा हुआ है और दलितों के साथ होने वाली हिंसा में भी इतनी ही बढ़त है।

अभी हाल में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो-2019 (एनसीआरबी) के जारी आंकड़ों के अनुसार देश में लगभग 3500 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराई गई है। यानि हर रोज 10 महिलाओं या लड़कियों के साथ रेप या गैंगरेप जैसी घटना होती है। ये वो मामले हैं जो रिपोर्ट हुए हैं, जो मामले पुलिस तक पहुंच नहीं पाए उनका कोई लेखा-जोखा नहीं है। इनमें से एक तिहाई मामले उत्तर प्रदेश और राजस्थान से हैं।

अक्सर अखबारों में, टीवी और सोशल मीडिया पर दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार, गैंगरेप कर जिंदा जलाया, रेप कर पेड़ पर जिंदा लटकाना जैसी खबरों देखने को मिलती हैं।

मध्यप्रदेश के देवास जिले में रहने वालीं क्रान्ति पिछले 17 वर्षों से एक गैर सरकारी संगठन 'जन साहस' में दलित महिलाओं के साथ यूपी, एमपी, राजस्थान, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में काम करती हैं। पेशे से सामाजिक कार्यकर्ता और वकील क्रांति कहती हैं, "दलित समुदाय की अगर कोई लड़की या महिला हिम्मत करके थाने एफआईआर दर्ज करवाने पहुंच जाए तो पुलिस ज्यादातर पीड़िता से यही कहती है कि मुआवजा राशि मिलती है, तभी कपड़े फड़वाकर आ गयी हो। पुलिस इनकी एफआईआर दर्ज करने में चार-पांच घंटे से लेकर चार-पांच महीने लगा देती है। पहली बात तो यही कि इनकी बहुत आसानी से एफआईआर दर्ज होती ही नहीं। अगर रेप की घटना है तो छेड़छाड़ लिख देते हैं, गैंगरेप है तो रेप ही लिख देते हैं।"

क्रांति मध्यप्रदेश के ही नरसिंहपुर जिले की एक घटना का जिक्र करती हैं, "हाथरस की घटना के दो तीन दिन बाद ही एक दलित महिला के साथ रेप हुआ, पुलिस उन्हें चार-पांच दिन से इस थाने से उस थाने भेज रही थी। थक-हारकर पीड़िता ने आत्महत्या कर ली।"

रेप, यौन शोषण और शारीरिक हिंसा का शिकार इन दलित लड़कियों और महिलाओं के साथ किस तरह का भेदभाव आपने अपने आसपास देखा है? अगर दुर्भाग्यवश इनके साथ कोई घटना घटित हो जाए तो क्या इन्हें न्याय मिलने में ज्यादा चुनौतियां होती हैं? पुलिस-प्रशासन का रवैया इनके साथ कैसा रहता है? समाज में इन्हें जातिवाद का दंष कितना झेलना पड़ता है? आपके इन सभी सवालों के जवाब नीचे लिखी इन घटनाओं में मिल जाएंगे।

पहली घटना

यूपी के सीतापुर जिले में 15 अगस्त 2017 को एक 11 वर्षीय दलित लड़की के साथ रेप होता है। आरोपी उसे मरने की स्तिथि में छोड़कर भाग जाता है। बदहवास अवस्था में जब पीड़िता परिजनों को मिलती है तो उसकी ब्लीडिंग (रक्तस्त्राव) बंद नहीं होती है। कई दिन अस्पताल में रहने के बाद जब उसे होश आता है तो वह आरोपी का नाम बताती है। दलित पीड़िता बहुत गरीब परिवार से है, पांच भाई और दो बहनों के रहने के लिए एक छोटा सा कमरा है। गर्मी और बारिश से बचने के लिए फूस का टूटा छप्पर रखा हुआ है।

पीड़िता के भाई ने गाँव कनेक्शन को बताया, "वो (आरोपी) ऊँची जाति से है। बहन ने जैसे नाम बताया हम तभी डर गये कि उनके खिलाफ मुकदमा कैसे दर्ज कराएं? पर कुछ महिलाओं ने साथ दिया तो हिम्मत आयी। हमारे पास इतना पैसा नहीं है कि हम हर बार वकील और पुलिस को पैसे दे पाते। आरोपी के घरवाले पैसे वाले हैं, नाबालिग का सर्टिफिकेट दिखाकर लड़का पांच छह महीने जेल रहा, फिर छूटकर आ गया।"

पीड़िता के भाई ने अपनी बेबसी जताते हुए कहा, "गाँव में अब वह ऐसे घूमता है जैसे उसने कुछ किया ही न हो। मुझे अहसास कराता है कि हम उसका कुछ नहीं कर पाए क्योंकि हम गरीब हैं और नीची जाति (दलित) से भी।"

चारपाई के सिरहाने सिर पर दुप्पट्टा डाले बैठी पीड़िता से जब हमने बात करने की कोशिश की तो वो बोली, "दीदी मुझसे मत पूछना उस दिन क्या हुआ था? जो आता है बस यही पूछता है क्या हुआ था उस दिन? घरवाले कहते हैं बता दो ... शायद उसे सजा हो जाए, मजबूरी में बताना पड़ता है।"

"घर से बाहर नहीं निकलती हूँ अब, सब कहते हैं बिटिया की जाति है शादी कैसे होगी? कहीं बाहर जाना पड़ता है तो रास्ता उसके घर के (आरोपी) बाहर से ही है। वहां से जब निकलती हूँ सब देखकर हँसते हैं, कुछ बोलते भी हैं कि देखो यही है वो," ये कहते हुए पीड़िता का गला भर आया।

रेप या छेड़छाड़ के बाद देश में एक दलित लड़की क्या मुश्किलें झेलती है इस घटना से आप अंदाजा लगाईए। गाँव कनेक्शन ने 10-12 दलित रेप-पीड़िताओं से बात की है जिनके साथ घटना होने के बाद परिवार, समाज और पुलिस कैसा बर्ताव करती है?

दूसरी घटना

उत्तर प्रदेश के ही हरदोई जिले के कछौना थाना क्षेत्र में 16 मई 2019 को एक 15 वर्षीय दलित लड़की के साथ परिवार के अनुसार गैंगरेप होता है, आरोपी दबंग होते हैं और पीड़िता को धमकी देते हैं कि वह उसका कुछ नहीं कर पायेगी। बमुश्किल पीड़िता चार दिन बाद थाने में एफआईआर दर्ज करवा पाती है। पुलिस घटना के लगभग दो महीने तक आरोपियों को केवल इसलिए गिरफ्तार नहीं करती क्योंकि उनकी जांच में उन्हें ऐसे कोई सुबूत नहीं मिले जो ये पुख्ता कर सकें कि पीड़िता के साथ गैंगरेप हुआ है।

पीड़िता ने गाँव कनेक्शन को बताया, "घटना के दो महीने तक हमें सबको बार-बार बताना पड़ा कि सच में हमारे साथ गैंगरेप हुआ है। आरोपी बार-बार मुझे धमकी देते रहे और कहते कि थाने में जाकर कह दो कि ये झूठ है। जितना पैसा तुम्हें सरकार से मिलेगा उतना हम दे देंगे। पुलिस भी यही कहती, 'क्यों झूठ बोल रही हो'? दो बार पुलिसवाले हमें घटनास्थल पर ले गये, बार-बार पूछ रहे थे कहाँ, कैसे हुआ सब? खुलकर बताओ?"

इस घटना को स्थानीय मीडिया में सिंगल कॉलम से ज्यादा जगह नहीं मिली थी। पीड़ित परिवार जिलाधिकारी से लेकर लखनऊ आईजी, डीआईजी, डीजीपी और महिला आयोग कार्यालय तक कई बार गया लेकिन आरोपियों को दो महीने तक गिरफ्तार नहीं किया गया। जब गाँव कनेक्शन के संज्ञान में यह घटना आयी तो इस घटना की पड़ताल कर 16 जुलाई 2019 को खबर पब्लिश की गयी, "और कितनी आर्टिकल-15 फिल्म बनेंगी? एक पंद्रह साल की दलित लड़की को सबूत देना है कि उसका गैंगरेप हुआ है."

पीड़िता के नाना हाथ जोड़कर गाँव कनेक्शन संवाददाता से बार-बार यही कर रहे थे, "आप कुछ भी करिए बस इन्हें जेल पहुंचा दीजिए, हम समझेंगे हमें न्याय मिल गया। आरोपी का भाई बहुत दबाव बना रहा है कि सुलह-समझौता कर लो, क्यों पैसों के लिए लड़की से झूठ बुलवा रहे हो। उसकी बातें सुनकर लग रहा था क्या न कर दूँ इसके साथ? हम गरीब हैं, दलित हैं लेकिन लालची नहीं।"

ये माँ अपनी नाबालिग रेप पीड़िता बेटी के बच्चे को गोद में लिए है. समाज के रोज ताने सुनती हैं. फोटो: नीतू सिंह

गाँव कनेक्शन ने इस मामले को प्रमुखता से उठाया, सोशल मीडिया पर दलित मुद्दों पर आधारित आर्टिकल 15 जैसी फिल्म के निर्देशक अनुभव सिन्हा से लेकर कई प्रभावशाली लोगों ने इसे रिट्वीट किया जिसका नतीजा यह हुआ कि खबर पब्लिश हुए 24 घंटे भी पूरे नहीं हो पाए तबतक मुख्य आरोपी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया गया।

पीड़िता थाने में पुलिस के रवैए को बता रही थी, "पुलिस ने कई बार कहा कि मनगढ़ंत कहानी बना रही हो, सब झूठ है तुम्हारे साथ कुछ हुआ ही नहीं। हमारी जाति के गाँव में ज्यादा घर नहीं हैं, जो हैं वो बहुत गरीब हैं इसलिए कोई खुलकर ये कहने भी सामने नहीं आया कि हमारे साथ गलत हुआ है हमें न्याय मिलना चाहिए।"

ये उस दलित परिवार की आपबीती है जिसे दर्ज कराने परिवार थाने तक पहुंच गया और तबतक हार नहीं मानी जबतक आरोपियों को जेल नहीं पहुंचा दिया पर इस समुदाय की ज्यादातर वो घटनाएं हैं जो थाना तो दूर चौखट से निकलने के पहले ही दम तोड़ देती हैं।

मध्यप्रदेश की वकील और दलिल सामाजिक कार्यकर्ता क्रांति कहती हैं, "अगर पुलिस ने किसी भी तरह दलित पीड़िता की एफआईआर दर्ज कर भी ली तो उनकी यही कोशिश रहती है कि कैसे भी करके मामले में समझौता करा दिया जाए।"

वो आगे कहती हैं, "एक दलित पीड़िता की एफआईआर लिखने, मेडिकल कराने और बयान दर्ज कराने में ही पुलिस इतना वक़्त लगा देती है जिससे आरोपियों को सुबूत मिटाने का पूरा मौका मिल जाता है। ऐसे मामलों में पीड़िता का बयान ही महत्वपूर्ण होता है। ये आरोपी को साबित करना होता है कि उसने पीड़िता के साथ रेप नहीं किए।"

यूपी, बिहार और झारखंड में महिला मुद्दों पर निशुल्क कानूनी सलाह देने वाली 'आली संस्था' की वकील रेशमा सिंह हैं, "समाज और प्रशासन की ऐसी मानसिकता बनी हुई है कि दलित लड़कियों के साथ हिंसा होना आम बात है। दलित लड़कियों के साथ होने वाले बलात्कार को बहुत अलग नजरिये से देखने की जरूरत है। समाज में इस समुदाय को पहले ही बहुत दबा-कुचला बना दिया है। आरोपी को ये बात पता होती है कि इनकी आगे तक कोई पहुंच नहीं, तभी उनके लिए ये सबसे आसान टार्गेट हैं। इन्हें कभी भी पंचायत और सिस्टम का सपोर्ट नहीं मिलता है जिस वजह से ज्यादातर मामले थाने तक पहुंच ही नहीं पाते। इन मामलों की एफआईआर के तुरंत बाद पीड़िता के ट्रीटमेंट के लिए 25 प्रतिशत राशि मिल जानी चाहिए, पर देखिए गिनती के कुछ एक केस ही होंगे जिसमें पीड़िता को ये राशि मिली हो।"

दलितों के साथ हिंसा की क्या है वजह?

हाशिए पर खड़ा दलित समुदाय सदियों से गरीब, वंचित और सताया हुआ है। इन्हें बराबरी, शिक्षा और नौकरी से वंचित रखा गया। वर्षों से इनके साथ गुलामी करवाई गयी है, अब जब समय के साथ ये समुदाय थोड़ा आगे बढ़ रहा है, पढ़ने जाने लगा है, नौकरी कर रहा है, गुलामी करना कम कर दिया है तो अब इन महिलाओं और लड़कियों के साथ दरिंदगी होने लगी है।

दलित समुदायों की महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा के लिए कई और कारणों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। पहला शिक्षा का अभाव दूसरा आर्थिक रूप से बहुत कमजोर होना। काम की तलाश में ग्रामीण इलाकों से पुरुष बड़े शहरों की ओर चले जाते हैं, ऐसे में घरों में अकेली महिलाएं रह जाती हैं। महिलाओं को कमजोर और अकेला समझ कर भी निशाना बनाया जाता है।

देश में दलित महिलाओं के लिए काम करने वाले संगठन 'दलित वुमेन फाईट' की सदस्य शोभना स्मृति जो 10 वर्षों से दलित महिलाओं के साथ काम कर रही हैं वो बताती हैं, "थाने में भी जाति और धर्म के नाम पर भेदभाव होता है। जब दलित महिलाएं थाने में यौन हिंसा से संबंधित कोई भी मामला दर्ज करवाने जाती हैं तो कई बार पुलिस वाले जो उनके लिए बोलते हैं वो आप सुन नहीं सकतीं। कभी कहते पैसों के लिए कपड़े फड़वाकर आ गयी हो तो कभी कहते चेहरे की शक्ल देखी है अपनी, जो तुम्हारे साथ कोई रेप करेगा।"

दो संगठन कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई (अंतराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन) और एसोसिएशन फॉर एडवोकेसी एंड लीगल इनिशिएटिव्स (आली) ने 28 सितंबर को रेप व गैंगरेप के 14 केस के अध्ययन पर एक रिपोर्ट 'न्याय की पहुंच में बाधाएं' जारी की थी। रिपोर्ट के अनुसार इन 14 केसों में से 11 केसों में बलात्कार की एफआईआर दर्ज कराने में दो दिन से लेकर 228 दिन का वक़्त तब लगा जब इनके सहयोग के लिए कानूनी मदद करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता साथ में थे।.इनमें से छह मामलों में एफआईआर तब दर्ज हुई, जब यौन हिंसा से जूझ रही महिलाएं और उनकी पैरवी करने वाले वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों तक पहुंचे।

इस रिपोर्ट के अनुसार यौन हिंसा से जूझ रही महिलाओं को लिंग-जाति के आधार पर पुलिस के भेदभाव वाले रवैये का भी सामना करना पड़ा। पांच मामलों में अदालत के आदेश के बाद एफआईआर दर्ज हुई।

    

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