ख़त्म हुआ 72 साल का संघर्ष, आख़िरकार छत्तीसगढ़ के इस गांव में पहुंच ही गई सड़क

आखिरकार प्रशासन की नज़र इस गांव पर पड़ी और गांव को पक्की सड़क नसीब हुई। सड़क बन जाने के बाद सब्जी-भाजी सहित दैनिक दिनचर्या से जुड़े सामानों के लिए गांव वालों को छह किलोमीटर पैदल नहीं चलना पड़ रहा है।

Jinendra ParakhJinendra Parakh   19 Jan 2021 6:24 AM GMT

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जिनेन्द्र पारख और हर्ष दुबे की रिपोर्ट

रायपुर( छत्तीसगढ़)। इक्कीस साल की शीला मंडावी, छत्तीसगढ़ के राजनंदागांव ज़िले के खोलारघाट खर्शीपारखुर्द गांव की सबसे ज़्यादा पढ़ी-लिखी लड़की है। शीला स्नातक हैं, स्नातक की डिग्री लेने के लिए शीला ने कठिन संघर्ष किया है। गांव में पांचवी तक ही पढ़ाई की व्यवस्था है। पांचवी के बाद गांव के लड़के/लड़कियां अक्सर पढ़ाई छोड़ देते थे। वजह है गांव से शहर जाने के लिए पक्की सड़क का न होना।

शीला बताती हैं, "मेरे पिता हर रोज़ 3 किलोमीटर तक पैदल मुझे छोड़ने जाते थे और उसके बाद मैं 9 किलोमीटर साइकिल चलाकर कॉलेज तक पहुंचती थी। सड़क न होने की वजह से गांव वाले यह मान चुके थे कि अब इस गांव में कोई पांचवी के बाद कोई पढाई नहीं कर पाएगा।"

छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव ज़िले के डोंगरगढ़ तहसील का खोलारघाट खर्शीपारखुर्द गांव ज़िला मुख्यालय से सिर्फ़ 30 किलोमीटर दूर है मगर देश के आज़ाद होने के 72 साल तक यहां से शहर जाने के लिए पक्की सड़क नहीं थी। आलम यह था कि गांव से शहर जाने के लिए 12 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था और बरसात के समय पानी से भरा पुल पार करना पड़ता था। 72 साल गुज़र जाने के बाद प्रशासन की नज़र इस गांव पर पड़ी और आख़िरकार गांव को पक्की सड़क नसीब हुई। हाल ही में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत गांव तक सड़क बन गई है। सड़क बन जाने के बाद सब्जी-भाजी सहित दैनिक दिनचर्या से जुड़े सामानों के लिए गांव वालों को छह किलोमीटर पैदल नहीं चलना पड़ रहा है।


गांव के एक वृद्ध बैसाखू कहते हैं, "गांव में जब भी किसी कि तबियत ख़राब होती थी तो जोंगा और खाट बनाकर मरीज़ को अस्पताल ले जाया जाता था, लेकिन अब सड़क बनने से बहुत कुछ बेहतर हो गया है। गांव का शहर से जुड़ना ही अपने आप में सब कुछ बेहतर कर देता है।"

गांव के कन्हैया वर्मा (45 वर्ष ) ने गांव कनेक्शन को बताया कि जब सड़क नहीं थी तब गांव से बाहर काम करने गए लोग दिन ढलने से पहले लौट आते थे। रात में जंगली जानवरों का डर बना रहता था और कच्चे रास्ते में पैदल चलना लगभग असंभव था। सड़क नहीं होने के कारण गांव के लोग रात को शादी-ब्याह आदि में नहीं जाते थे और अगर जाते तो रात दूसरे गांव में पहचान वालों और रिश्तेदारों के यहां बिताते थे, पर अब सड़क बनने से ज़िंदगी पटरी पर आ गई है।

गांव की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता ममता वर्मा (34 वर्ष) ने बताया, "सड़क नहीं होने से गांव में बिजली सप्लाई में ख़राबी आने पर बहुत अधिक समस्या हो जाती थी, कई-कई दिन लग जाते थे उसे ठीक करने में। सब्जी-भाजी, किराना कुछ नहीं मिलता था और उसके लिए भी 6 किलोमीटर चलकर और फिर सायकल से डोंगरगढ़ तक जाना पड़ता था।

गांव वालों का कहना है कि सड़क नहीं होने से गांव में एक गृहणी के लिए गृहस्थी चलाना बेहद कष्टदायक था। गांव में हरी सब्ज़ी नहीं मिलती थी तो बच्चों को सूखा खाना खिलाना पड़ता था। हफ्ते में एक बार हरी सब्ज़ी मिल गई तो बड़ी बात होती थी लेकिन अब हर रोज़ हरी सब्ज़ी मिलती है। इसका सीधा असर बच्चों के पोषण पर पड़ रहा था। अब सड़क बन जाने से बच्चों और महिलाओं में फैले कुपोषण को रोकने में मदद मिलेगी।


गांव के छात्र साहिल वर्मा (14 वर्ष) से बात करने से पता चला कि सड़क बनने से बहुत कुछ बेहतर हुआ है, लेकिन अभी भी इस गांव में मोबाइल का नेटवर्क मुश्किल से आता है। कोरोनावायरस के बाद से स्कूल बंद हैं और बच्चों की पढ़ाई का नुकसान न हो इसलिए दूसरे राज्यों की तरह छत्तीसगढ़ में भी ऑनलाइन क्लासेस चल रही हैं। लेकिन खर्शीपारखुर्द गांव में मोबाइल नेटवर्क की समस्या के कारण गांव के बच्चे पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं। इन्हें उम्मीद है कि गांव में सड़क आ जाने के बाद अब जल्द ही उन्हें मोबाइल नेटवर्क की समस्या से भी मुक्ति मिलेगी और वो अपनी पढ़ाई ठीक से कर पाएंगे।

ग्रामीण बताते हैं कि सड़क बनने से मानो उन्हें नया जीवन मिल गया हो। अब गांव तक एम्बुलेंस आती है, दो पहिया और चार पहिया वाहनों के पहुंचने से गांव में मूलभूत सुविधाएँ पहुँचनी शुरू हुई हैं। सड़क बनने के बाद गांव में बिजली भी पहुंचने लगी है। सड़क बनने से आवागमन बढ़ गया है, जिसकी वजह से इस इलाक़े में नक्सलियों गतिविधियों में भी कमी आई है। हालांकि शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, पीने का साफ़ पानी, मोबाइल नेटवर्क इत्यादि समस्याएं अभी भी बनी हुई हैं, परन्तु सड़क बनने से ग्रामीणों में उम्मीद की किरण जगी है।

यह सड़क नहीं बनती तो शायद गांव की नई पीढ़ी भी पिछली पीढ़ियों की तरह शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण से वंचित रह जाती। अपना नाम न बताने की शर्त पर प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के अधिकारी कहते हैं, "यह सड़क बनाना निश्चित ही आसान नहीं था लेकिन अधिकारियों, कर्मचारियों के इच्छाशक्ति, गांव वालों के निरंतर सहयोग से यह सड़क बनाना संभव हो पाया है. कई बार ऐसा लगता था की नक्सलवाद के साये में यह सड़क कैसे बन पाएगी! लेकिन सबने मिलकर कर दिखाया है. जिस दिन पूरी सड़क बनी उस दिन गांव वालो की आँखों में आँसू आ गए थे।"

देश 72 वर्ष पहले आज़ाद हुआ लेकिन इस गांव के लिए सही मायने में आज़ादी तब आई जिस दिन इस गांव में सड़क बनी।

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