जानें हैदराबाद की सड़कों पर बेसहारा लोगों को कौन और क्यूँ कोई नई जिंदगी दे रहा है

Astha SinghAstha Singh   16 April 2018 1:31 PM GMT

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जानें हैदराबाद की सड़कों पर बेसहारा लोगों को कौन और क्यूँ कोई नई जिंदगी दे रहा हैसाभार: इंटरनेट 

लखनऊ। जब आप सड़क किनारे किसी बुज़ुर्ग बेसहारा को भीख मांगते हुए या उन्हें तकलीफ में देखते हैं तो क्या करते हैं? आपके मन में क्या ख्याल आता है? क्या आप उनकी मदद करने के लिए आगे बढ़ते हैं? शायद नहीं। पर हैदराबाद के जॉर्ज राकेश बाबू ने ऐसे लोगों की मदद करने को ठानी।

जॉर्ज गाँव कनेक्शन को बताते हैं "आजकल लोग एकल परिवार के प्रभाव में आकर अपने माँ बाप से दूर होते जा रहे हैं। जबकि उस उम्र में उन्हें सबसे ज्यादा लोगों के साथ की ज़रूरत होती है। अकेलापन बड़ा दुखदाई होता है। राकेश बताते हैं "दुनिया में इंसानियत से बढ़कर कोई चीज नहीं होती। गरीबों और असहायों की मदद करने में जो सुकून मिलता है वो शायद और कहीं नहीं। इसलिए मैंने गरीबों की मदद का बीड़ा उठाया।"

शुरुआती जीवन

हैदराबाद में पले-बढ़े जॉर्ज राकेश बाबू ने गैर लाभकारी 'गुड स्मार्टियन इंडिया' शुरू किया। इवेंट मैनेजर से सामुदायिक डॉक्टर बने जॉर्ज राकेश बाबू ने सड़क पर पड़े बीमार बुजर्गों की मदद करने की ठानी। राकेश बाबू ने पहले एक छोटा सा क्लीनिक खोला लेकिन आज अलवाल, वारंगल और एलर में स्थित तीन शाखाओं के साथ एक पूर्ण विकसित बेसहारा लोगों का घर है। और ख़ुशी से बताते हुए कहते हैं कि जल्द ही पूरे राज्य में के हर जिले में ऐसे ही घर खोले जाएँगे।

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संस्था की शुरुआत कब की

जॉर्ज राकेश बाबू ने मार्च 2011 में अपने सह-संस्थापक सुनीता जॉर्ज और यसुकला के साथ मिलकर औपचारिक तौर पर 'गुड स्मार्टियन इंडिया' नाम से एक ट्रस्ट रजिस्टर कराया। ये ट्रस्ट चिकित्सकीय प्रशिक्षित व्यक्तियों का एक बहुत छोटा समूह है। ये लोग बुजुर्गों के लिए बुनियादी देखभाल प्रदान करते हैं। साथ ही एक छोटी सी मुक्त फार्मेसी चलाते हैं। इस ट्रस्ट के लोगों ने बिना किसी पैसों के 300 से अधिक बीमार बुजुर्गों व बेसहारा लोगों की मदद की है जिन्हें सड़क पर मरने ले लिए छोड़ दिया गया था।

यहां से ठीक होने के बाद ज्यादातर लोग अपने परिवारों के साथ फिर से मिल जाते हैं। कुछ लोग उस फार्मेसी सरीखे घर को चलाने के लिए वहीं रुक जाते हैं। ये लोग घावों पर पट्टी बांधने से लेकर उन बुजुर्गों के डायपर बदलने तक सभी काम करते हैं जो बेड से उठ नहीं पाते। यही नहीं ये लोग सभी के लिए खाना भी बनाते हैं। इतना सब संभव हो पाया तो केवल जॉर्ज राकेश बाबू के उस सपने की वजह से जिसने उन्हें बुजुर्गों की मदद करने के लिए आगे बढ़ाया।

बेसहारों की मदद का ख्याल कैसे आया

दरअसल दुनिया के बारे में जॉर्ज को एक तमिल पुजारी की गुमनाम मौत ने बदला। ये वह पुजारी था जिसे जॉर्ज कई वर्षों से जानते थे। इन्हीं पुजारी ने एक अनाथालय भी चलाया था। ये लोग घावों पर पट्टी बांधने से लेकर उन बुजुर्गों के डायपर बदलने तक सभी काम करते हैं जो बेड से उठ नहीं पाते। यही नहीं ये लोग सभी के लिए खाना भी बनाते हैं। कई चुनौतियों,बाधाओं और परिवार या रिश्तेदारों से कोई समर्थन न मिलने के बावजूद पुजारी ने अपने आनाथालय में 60 से अधिक अनाथ बच्चों को बेहतर जीवन दिया था। पुजारी की मौत ने जॉर्ज को झकझोर कर रख दिया लेकिन उन्हें जीवन जीने का सलीका सिखा गई।

जॉर्ज राकेश बाबू

उस हादसे ने झकझोर कर रख दिया

जब जॉर्ज अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर उस बूढ़े आदमी के शरीर को दफनाने के लिए जगह ढ़ूंढ़ रहे थे तब कोई श्मशान वाले इस पर सहमत नहीं हुए। जॉर्ज बताते हैं "लोग हैदराबाद को एक महानगरीय शहर कहते हैं लेकिन यह महानगरीय शहर उन लोगों से भरा है जो केवल जाति, पंथ और रंग और संप्रदाय के बारे में बहस करना चाहते हैं। किसी ने भी उस बूढ़े आदमी के शरीर को दफनाने में मदद नहीं कि जिसने 60 अनाथ बच्चों को जीवन दिया। कई दिक्कतों का सामना करने के बाद जॉर्ज ने शहर से सटी एक बस्ती में जाने का फैसला किया। जहां एक श्मशान पुजारी को दफनाने पर सहमत हो गया। जॉर्ज बताते हैं कि पुजारी के मिट्टी में दफन होने से पहले करीब 50 बच्चे आकर रोने-चिल्लाने लगे। ये वही बच्चे थे जिन्हें पुजारी ने जीवन दिया था।

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तब लिया यह फैसला

जॉर्ज बताते हैं कि "उस दिन मैंने फैसला किया कि मैं किसी भी उस व्यक्ति को जिन्हें अकेला छोड़ दिया गया है, अज्ञात मृत्यु नहीं मरने दूंगा। प्रत्येक व्यक्ति को अपने आखिरी दिनों में पूर्ण जीवन जीने का अधिकार है। एक सम्मानजनक मृत्यु का भी अधिकार है।" ये वो कहानी थी जिसने 'गुड स्मार्टियन इंडिया' की नींव रखी। जब जॉर्ज ने अपना स्वयं का क्लिनिक और घर शुरू किया तो कई लोग बेसहारा बुजुर्गों को लाने में मदद करने लगे। लेकिन जॉर्ज याद करते हैं कि कुछ ऐसे बच्चे थे जो अपने स्वयं के बुजुर्ग माता-पिता और रिश्तेदारों को लेकर आए थे।

लोगों ने भी की मदद

इनमें से कई कैंसर रोगी थे। वो लोग अपने बुजुर्गों को इसलिए भी ला रहे थे क्योंकि कैंसर का इलाज बहुत महंगा है और वह उसका बोझ नहीं उठा सकते थे। इलाज के लिए पर्याप्त संसाधन न होने के बावजूद मैंने कुछ यूनानी डॉक्टरों से मदद ली, ताकि वो लोग कुछ और दिन जी सकें। जब वह मर जाएंगे तो उनके रिश्तेदार आकर उन्हें ले जाएंगे। जॉर्ज राकेश बाबू द्वारा शुरू की गई उस एक पहल ने आज 300 से ज्यादा बुजुर्गों को एक सम्मानजनक जिंदगी दी है। जॉर्ज ने अपने थेयटर मास्टर की मदद से सोशल मीडिया का सहारा लेते हुए कई ऐसे काम किए हैं जिनकी हर कोई सराहना कर रहा है। वह सोशल मीडिया की मदद से क्राउड फंडिंग करते हैं और उन पैसों से यहाँ लोगों का इलाज़ करते हैं।

संस्था की रेस्क्यू वैन

जॉर्ज बताते हैं," हमने सरकारी अस्पतालों से टाई अप किया हुआ है, जो भी बुज़ुर्ग किसी बड़ी बीमारी से ग्रस्त होते हैं, वो उनका मुफ्त में इलाज़ करते हैं ।अगर ज़रूरत पड़ती है तो हमारे संस्था के लोग उनकी मदद करने पहुँच जाते हैं।"

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हमेशा लोगों की मदद करने को तत्पर

जॉर्ज और उनके दो स्वयंसेवक किसी भी बुजुर्ग, त्याग दिए गए या निराश्रित व्यक्ति के बारे में कहीं से भी पता चलने पर तुतंत पहुँच जाते हैं| इसके लिए हमने "अस्पतालों के पास इलाज के लिए बेघर, निराश्रित महिलाओं और बीमार लोगों को पैदल चलने वालों की अनदेखी करने के बजाय, लोग जब भी ऐसे लोगों में आते हैं तो हम उन्हें बुला सकते हैं और हम उन्हें बचा लेंगे," जॉर्ज ने कहा। चूंकि उनका मानना है कि बड़े दान लेने से उनकी पहल के प्रति असर पड़ता है और प्रायोजक द्वारा हस्तक्षेप कर सकता है, वह लोगों को एक व्यक्ति की दैनिक जरूरतों को प्रायोजित करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

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