एक घोटाला जिसने बंद करवा दी बिहार की सैकड़ों धान मिल, किसान एमएसपी से आधी कीमत पर धान बेचने को मजबूर

बिहार धान उत्पादन के मामले में कई राज्यों से आगे है, लेकिन एमएसपी पर खरीद के मामले में बहुत पीछे है। किसान MSP से आधी कीमत पर धान बेच देते हैं, लेकिन क्यों? इसके तार लगभग 10 साल पहले हुए घोटाले से भी जुड़े हैं और खामियाजा किसान भुगत रहे..

Mithilesh DharMithilesh Dhar   6 Jan 2021 3:00 PM GMT

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rice mill, rice mill in bihar, why rice mills shut down in bihar, msp, bihar paddy farmersबिहार के जिला कैमूर के रामगढ़ में बंद पड़ा राइस मिल। (सभी तस्वीरें गांव कनेक्शन)

करीब एक 10 साल बिहार में एक घोटाला होता है, जो चारा घोटाले जैसा ही था। इस घोटाले की वजह से प्रदेश की सैकड़ों धान मिल (राइस मिल्स) बंद हो गईं,और लाखों किसान मजबूरी में अपना धान सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य से लगभग आधी कीमत पर धान बेचने को मजबूर होते हैं।

केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय लगभग प्रतिदिन खरीफ विपणन वर्ष 2020-21 में न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर जारी फसलों की खरीद का लेखा-जोखा देता है। खरीफ में धान की खेती सबसे ज्यादा होती है। अब जब आप मंत्रालय की रिपोर्ट देखेंगे तो उसमें धान खरीद के मामले में बिहार बहुत पीछे है।

लेकिन ऐसा क्यों है? जबकि धान उत्पादन के मामले में बिहार देश के शीर्ष 10 राज्यों में से एक है। वर्ष 2017-18 में तो शीर्ष पांच राज्यों में शामिल था, फिर सरकारी खरीद में पीछे क्यों है? इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह राज्य में राइस मिल का बंद होना भी बताया जा रहा है। और सरकारी खरीद कम होने का सीधा मतलब है कि किसानों को एमएसपी का लाभ नहीं मिलना।

जिला कैमूर के रामगढ़ विधानसभा क्षेत्र के ब्लॉक रामगढ़ के गांव भडहेरिया के किसान दीपक शर्मा बताते हैं कि उन्हें धान की कितनी कीमत मिलती है और कितना नुकसान उठाना पड़ता है।

वे हमें प्रति बीघा (0.625 एकड़) में आने वाले खर्च का हिसाब-किताब बताते हैं, "धान का बीज हम 40 से 45 रुपए किलो में खरीदते हैं। उसके बाद खेत की जुताई और खेत मे फसल लगाने तक में लगभग 2,000 रुपए प्रति बीघा का खर्च आता है। खाद और पानी मे लगभग 1,000 रुपए। फसल को मशीन से कटवाने और खेत से घर तक पहुंचाने में लगभग 6,00 रुपए का खर्च आ जाता है। इन सबको जोड़ दिया जाये तो 3,600 रुपए प्रति बीघा का खर्च आता है। एक बीघा में धान लगभग 2 से 3 क्विंटल तक हो पाता है। अगर सरकारी रेट पर बिकता तो हमें भी कुल 4-5 हजार रुपए मिल सकते हैं, लेकिन हम तो खुले बाजार में बेचते हैं जहां हमें 900 से 1,200 रुपए प्रति कुंतल का हिसाब मिलता है।" अब आप खुद नुकसान का अनुमान लगा लीजिए।

बिहार के किशनगंज में बंद पड़ा राइस मिल।

पिछले कुछ वर्षों के रिकॉर्ड देखेंगे तो पता चलता है कि प्रदेश में सरकारी दर पर धान की खरीद लक्ष्य के अनुरूप भी नहीं हो पा रही। वर्ष 2019-20 में 20 लाख टन धान की खरीद की गई थी, जबकि लक्ष्य 30 लाख टन का था। इसी तरह, 2018-2019 में केवल 14.2 लाख टन धान की खरीद की गई थी। धान की बिक्री के लिए बिहार में किसानों को सहकारिता विभाग के साथ ऑनलाइन पंजीकरण करना पड़ता है, लेकिन आंकड़ों से पता चलता है कि सरकारी खरीद एजेंसी प्राइमरी एग्रीकल्चरल क्रेडिट सोसाइटीज (PACS) और व्यापार मंडल के माध्यम से राज्य में काफी कम खरीदी हुई है।

वित्तीय वर्ष 2019-2020 में केवल 409,368 किसानों ने धान खरीद के लिए ऑनलाइन आवेदन प्रस्तुत किए। पिछले साल 18 सितंबर को राज्यसभा में पूछे गये एक सवाल के जवाब में उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की तरफ से केंद्रीय उपभोक्ता मामलों के राज्य मंत्री रावसाहेब दानवे पाटिल ने बताया कि फसली वर्ष 2020-21 में 9 सितंबर 2020 तक देश के एक करोड़ 24 लाख किसानों से एमससपी पर धान की खरीद हुई थी।

एमएसपी से लाभान्वित होने वाले किसानों की संख्या-

18 सितंबर को राज्यसभा में पूछे गये एक सवाल के जवाब में उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय का जवाब।

राज्यवार दिये गये आंकड़ों के अनुसार खरीफ विपणन वर्ष 2019-20 (9 सितंबर तक) में बिहार के 279,402 लाख किसानों को एमएसपी का लाभ मिला। इससे चार वर्ष पहले भी प्रदेश के 275,484 लाख किसानों से धान की खरीद सरकारी दर पर हुई थी। वर्ष 2017-18 में तो ये आंकड़ा 163,425 पर आ गया था। बिहार की अपेक्षा दूसरे प्रदेशों की बात करें तो वर्ष 2019-20 (9 सितंबर तक) छत्तीसगढ़ के 18,38,593, हरियाणा के 18,91,622 किसानों से धान की खरीद एमएसपी पर हुई। दूसरे राज्यों से बिहार बहुत पीछे है।

कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) की वर्ष 2017-18 की रिपोर्ट के अनुसार बिहार धान उत्पादन के मामले में देश में पांचवे स्थान पर था। पूरे प्रदेश में 79.46 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है जिसमें 32,00,000 हेक्टेयर भूमि पर धान की खेती होती है। इसके अगले वर्षों दूसरे प्रदेशों की तुलना में धान उत्पादन के मामले प्रदेश पिछड़ा जरूर लेकिन उत्पादन के मामले देश की शीर्ष राज्यों में बरकरार है।

सरकार हर वर्ष 30 लाख मीट्रिक टन चावल खरीदने का लक्ष्य रखती है उसके बावजूद भी बिहार सरकर पिछले पांच सालों में 2014 से 15 के बीच 19.01 लाख टन, 2015-16 में 18.23 लाख टन 2016-17 में 18.42 लाख टन 2017-18 में 11.84 लाख टन, 2018-19 में 14.16 लाख टन, 2019-20 में 20.01 लाख टन चावल खरीद पाई।

धान और गेहूं खरीद की राज्यवार की ये रिपोर्ट 4 फरवरी 2020 को लोकसभा में पूछे गये एक सवाल के जवाब में उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय का जवाब

हाल के वर्षों में कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई है। बिहार सरकार के कृषि विभाग के अनुसार 2005-06 में बिहार में चावल का उत्पादन 1,075 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर था जो 2012-13 में बढ़कर 2,523 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गया । 2018-19 में चावल का उत्पादन 1,948 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहा. राज्य में चावल उत्पादन 2014-15 में 2,525 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, 2015-16 में 2,104 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, 2016-17 में 2,467 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और 2017-18 में 2,447 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहा।

बिहार में कुल 79.46 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से लगभग 32 लाख हेक्टेयर (40 प्रतिशत से अधिक) में धान की खेती होती है।

वर्ष 2006 में नीतीश कुमार की सरकार ने एपीएमसी (कृषि उपज मंडी समिति) एक्ट को समाप्त कर दिया। इसके पीछे सराकर का तर्क था कि इससे किसान को बिचौलियों से छुटकारा मिलेगा और उनकी स्थिति में बदलाव होगा। सीधे किसानों को फायदा पहुंचाने के लिए बिहार सरकार धान खरीद के लिए एक नई एजेंसी पैक्स का गठन किया।

बिहार में प्राथमिक कृषि ऋण सोसायटी, जिसे आमतौर पर PACS के रूप में जाना जाता है, एक पंचायत और ग्रामीण स्तर की इकाई है जो किसानों को ग्रामीण ऋण प्रदान करती है। इसके साथ ही उन्हें अपने उत्पाद को अच्छी कीमत पर बेचने में मदद करने के लिए विपणन सहायता भी प्रदान करती है और अपने अधिकार क्षेत्र के तहत कितना क्षेत्र बोया जाता है, इसके आधार पर खाद्यान्नों की सरकारी खरीद का लक्ष्य दिया जाता है। PACS के अलावा 500 व्यापार मंडल हैं जो धान की खरीद भी करते हैं।

पूरे बिहार में करीब 6,598 पैक्स केंद्र हैं, फिर धान किसानों को कम कीमत पर फसल क्यों बेचनी पड़ रही है?

बिहार राइस मिल एसोसिएशन के सचिव शशिकांत झां बताते हैं कि किसानों धान की सही कीमत न मिलने की सबसे बड़ी वजहों में से प्रदेश में राइस मिलों (धान कुटाई करने वाली मिल) का बंद होना भी है। एक समय था जब बिहार में लगभग 3,000 राइस मिल थी जो अब लगभग 1,000 तक सिमट गई है। ज्यादातर राइस मिलर्स सरकार द्वारा डिफॉल्टर घोषित किये जा चुके हैं, जबकि बिहार के चावल की मांग बांग्लादेश सहित दिल्ली, मध्यप्रदेश, झारखंड और असम जैसे राज्यों में हुआ करती थी।

तस्वीर बांका के बंद पड़े राइस मिल की है।

वे नाराजगी जाहिर करते हुए कहते हैं, "आज भी राज्य सरकार सार्वजानिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) लिए राइस मिलर्स से केवल दस प्रतिशत ही चावल खरीदती है जबकि साल में केवल पीडीएस में 40 लाख मीट्रिक टन चावल वितरण होता है। प्रदेश सरकार 25 से 28 लाख मीट्रिक टन चावल दूसरे राज्यों से मंगवाती है। आखिर सरकार ऐसा क्यों कर रही है? जबकि अगर यह चावल प्रदेश के किसानों से ही खरीदा जाये तो सरकार पैसा भी बच सकता है, लेकिन अधिकारियों की वजह से सरकार ऐसा नहीं कर रही है।"

"अगर सरकार राइस मिल को धान खरीदने के एजेंसी के रूप में भी रखती है तो किसानों को समर्थन मूल्य सही मिल सकता है और उनको कम दामों में धान बेचने की जरूरत नहीं पड़ेगी, लेकिन सरकार और उसके पदाधिकारी ऐसा नहीं कर रहें हैं। इस पर सराकर ने विचार भी किया था। वह आज भी विचाराधीन ही है। और अगर राइस मिल चालू हो जाएं तो 10 से 15 लाख लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिल सकता है।" शशिकांत नाराजगी जताते हुए कहते हैं।

एफसीआई यानी भारतीय खाद्य निगम बिहार में धान और गेहूं की खरीद नहीं करती। पैक्स और व्यापार मंडल धान की खरीद करती है जिस पर बिहार राज्य खाद्य और नागरिक आपूर्ति निगम (बीएसएफसी) निगरानी रखता है और प्रदेश में चावल आपूर्ति का फैसला करता है। एजेंसी मिलर्स को धान देती है जिसके बाद उसी चावल की खरीद एफसीआई राज्यों से करती है।

राजधानी पटना से लगभग 300 किलोमीटर दूर बाँका जिले के अमरपुर प्रखंड में मानस राइस मिल चला रहे राजीव राय हमें प्रदेश की पूरी खरीद प्रक्रिया बताते हैं।

वे कहते हैं, "पहले बिहार में एफसीआई, बिस्कोमान, नेफिट और बिहार राज्य खाद्य और नागरिक आपूर्ति निगम जैसी एजेंसियां धान खरीदती थीं। बतौर मिलर हमें एफसीआई को चावल बेचने में कभी परेशानी नहीं आई। वर्ष 2010 के मध्य में बिहार सराकर ने पूर्ण रूप से धान खरीदने का काम बिहार राज्य खाद्य और नागरिक आपूर्ति निगम (बीएसएफसी) के हाथों में दे दिया जिसने पैक्स को धान खरीदने की जिम्मेदारी दी। बीएसएफसी ने राज्य के राइस मिल मालिकों से एग्रीमेंट किया कि आप को हम धान देंगे आप हमें चावल दीजिए।"

मिलर्स को दिक्कत कहां आई, राजीव इस पर विस्तार से बताते हैं। वे कहते हैं, "बीएसएफसी ने मिलर्स के साथ समझौता किया कि वे खुद राइस मिल तक धान भेजेंगे और चावल राइस मिल से पैक्स के माध्यम से अपने केंद्र तक लेकर आएंगे। धान के एवज में मिलर्स को निश्चित राशि डिपॉजिट करना पड़ता था। अब जैसे बीएसएफसी ने मिल में धान की एक खेप भेजी, मिलर ने उसका डिपॉजिट जमा कर दिया। खरीद एजेंसी ने मिल से चावल उठाया नहीं और धान की दूसरी खेप आ गई। अब मिल मालिक ने उसका भी डिपॉजिट जमा कर दिया। धीरे-धीरे कंपनियों का डिपॉजिट बढ़ता गया। फिर बीएसएफसी के खरीददार ठेकेदार कहने लगे कि आप सेंटर तक चावल खुद लेकर आइये, अपने खर्चे पर। मिलर्स ने इसका विरोध भी किया।"

जिला कैमूर के देवहालिया में बंद पड़ी राइस मिल।

"हमारा पैसा फंसने लगा तो हमने पीडीएस में चावल पहुंचाना शुरू कर दिया लेकिन उससे भी बात नहीं बनी। बीएसएफसी के सेंटर तक चावल पहुंचाने में बहुत खर्चा आता था। धीरे मिलर्स नुकसान में जाने लगे। जब राइस मिल घोटाले का खुलासा हुआ तब प्रदेश सरकार ने लगभग 2,000 चावल मिलों को डिलॉल्टर घोषित कर दिया, लेकिन इस घोटाले के लिए बंस कंपनियों ही जिम्मेदार नहीं थीं। अधिकारी और ठेकेदार भी दोषी थे। मैं 2015 से इस व्यवसाय से में हूँ। उस समय से लेकर अब तक केवल संघर्ष कर रहे हैं। सरकार की गलत नीतियों और अधिकारियों के निजी लाभ के चलते हम नुकसान उठा रहे हैं।"

रोहतास, नालंदा, कैमूर, बक्सर, भोजपुर और औरंगाबाद जैसे जिलों में ही कभी 600 से ज्यादा चावल मिलें थीं, अब मुश्किल से 100 हैं। कैमूर में 200 से ज्यादा राइस मिल हुआ करती थीं जो आज अब नाम मात्र के बचे हैं।

क्या है राइस मिल घोटाला

बिहार में वर्ष 2011 से 2014 के बीच लगभग 1,500 करोड़ रुपए का राइस घोटाला हुआ था। 2017 में बिहार विधानसभा में सरकार ने यह जानकारी दी थी। घोटाले की नींव 2011 में मुजफ्फरपुर में पड़ी थी, जहां के अधिकारियों ने बिहार सरकार को यह सूचना दी कि लगातार हो रही बारिश की वजह से धान पूरी तरह बर्बादी के कगार पर है। उन्होंने यह भी सूचना दी कि ऐसे धान से चावल निकालना बिहार के राइस मिल के लिए कठिन काम है अतः इसे पश्चिम बंगाल में भेजा जाये। पश्चिम बंगाल भेजने से इसी धान का ब्वायल चावल बनाया जा सकता है, जिसे उसना भी कहा जाता है। सरकार को यह प्रस्ताव उस समय बेहतर लगा और सरकार ने ऐसा करने की अनुमति दे दी। धान को पश्चिम बंगाल भेजने के लिए सरकार ने अनुमति प्रदान कर दिया और पत्र भी जारी कर दिये।

10 जिलों से कथित रूप से भीगे हुए कुल 17 लाख मीट्रिक टन धान से चावल निकालने के लिए बंगाल भेजा गया जो असल में कभी भेजे ही नहीं गए। इस घोटाले में धान ढुलाई के नाम पर करोड़ों रुपए ट्रक भाड़े के रूप में भुगतान किए गए। सरकार की योजना के तहत चावल मिल मालिकों ने राज्य खाद्य एवं आपूर्ति निगम से धान लिए। इसके बदले उन्हें 67 फीसदी चावल निगम को लौटाना था पर, करोड़ों का धान उठाने के बाद कुछ मिल मालिकों ने चावल दिया ही नहीं। मामले की जांच ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) कर रही है। अब तक लगभग 2,000 मिलर्स पर कार्रवाई भी हो चुकी है।

रोहतास जिले को कभी धान का कटोरा भी कहा जाता था। यहां का मुख्य व्यवसाय ही चावल का था जो आज समाप्ती के कगार पर है।

रोहतास के चावल मिल मालिक दीपक कोनार बताते हैं, "हमारे यहां मंसूरी धान की उपज अधिक होती है। जिसकी मांग पहले सबसे ज्यादा झारखंड में होती थी। वह लगभग बंद हो गया है। जब मिल मालिक धान की कुटाई करके चावल बेचते थे तब उन्हें ज्यादा फायदा होता था। किसानों को अच्छी कीमत भी मिलती थी। जब मिलर्स को ही सही कीमत नहीं मिलेगी तो वह किसानों को क्या देगा।"


जिला कैमूर के प्रखंड रामगढ़ के छत्रपुरा गांव के सुनील सिंह भी कभी राइस मिल के मालिक हुआ करते थे। उनसे जब मिल बंर होने कारण पूछा तो वे कहते हैं, "मिलर्स तो चावल समय पर तैयार कर रहे थे लेकिन लेकिन सरकारी ठेकेदार ट्रांसपोटेशन का खर्च भी हम लोगों के माथे डाल रहे थे। मैंने तो मना कर दिया था। उसके बाद हमारे यहां अधिकारी चावल की गुणवत्ता देखने आये। मिल में चावल रखा रह गया और एजेंसी ने उसे लिया ही नहीं। अंत मे समय से चावल न मिलने का कारण बताकर मुझे डिफॉल्टर घोषित कर दिया गया।"

इस मामले पर हमने पैक्स से भी बात की। जिला कैमूर के देवहलिया पंचायत के पैक्स अध्यक्ष गजेंद्र सिंह बताते हैं, "जब 2010 के समय राइस मिल को धान सीधे बीएसएफसी द्वारा दिया जाता था उसी समय राइस मिल डिफॉल्टर घोषित हुए थे। उसके बाद 2015 में बीबएफसी ने सहकारिता विभाग से कहा कि अब पैक्स अध्यक्ष हमें धान की जगह चावल देंगे वह भी तय मानकों के अनुसार। अब पैक्स धान खरीदता है और सहकारिता विभाग के माध्यम से बीएसएफसी को चावल देता है। जो मिलर्स सरकार से जुड़े हैं पैक्स उन्हीं के यहां धान कुटवाता है और चावल बीएसएफसी को देता है।"

राज्य में धान का उत्पादन तो हो ही रहा है। अब जब प्रदेश सरकार ठीक से उपज खरीद नहीं पा रही, मिलों की संख्या कम है तो धान जा कहां रहा है? गांव कनेक्शन ने पिछले साल नवंबर में इस पर स्टोरी की थी कि कैसे एजेंट और व्यापारी बिहार के किसानों से धान खरीदकर उसे पंजाब की मंडियों तक भेज रहे हैं।

धान का एमएसपी (ग्रेड ए धान का 1,888 रुपए प्रति क्विंटल और अन्य धान के लिए 1868 रुपए प्रति क्विंटल) आमतौर पर खुले बाजार की कीमत से अधिक होता है। खुले बाजार में यह कीमत वर्तमान में 800 से 900 रुपये प्रति क्विंटल से लेकर 1,200 रुपए प्रति क्विंटल तक है। पंजाब जैसे राज्य में एमएसपी पर सरकार धान खरीदती है, वहीं बिहार में यह व्यवस्था नहीं है या है भी तो बेहद कमजोर है।

बिहार में भोजपुरी भाषा में एक कहावत है, 'की त धन धान से ना त धन आन से' मतलब है कि आपके पास धन बढ़ेगा तो वह धान से नहीं तो दूसरे द्वारा मिले दौलत से, लेकिन मौजूदा स्थिति को देखते हुए बिहार के धान किसानों की स्थिति सही नहीं कही जा सकती।

इनपुट- अंकित कुमार सिंह, कैमूर

   

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