बजट 2020: बजट से क्या चाहती हैं आशा बहुएं?
प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ मानी जाने वाली आशा कार्यकत्रियों ज्यादातर राज्यों में निश्चित वेतन नहीं मिलता, जिसके लिए वे लंबे समय से लड़ाई लड़ रही हैं
Chandrakant Mishra 31 Jan 2020 6:08 AM GMT
गाँव में किसी महिला की डिलीवरी करानी हो या फिर किसी बच्चे का टीकाकरण कराना हो, किशोरियों के साथ स्वच्छता की बैठक होनी हो या फिर घर-घर जाकर बच्चे के जन्म से 42 दिन तक उसकी देखरेख करनी हो, इन सब कामों की जिम्मेदारी होती आशा बहुओं पर, लेकिन प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ मानी जाने वाली आशा कार्यकत्रियों ज्यादातर राज्यों में निश्चित वेतन नहीं मिलता, जिसके लिए वे लंबे समय से लड़ाई लड़ रही हैं। एक फरवरी को देश का बजट आने वाला है, इस बजट से उनकी उम्मीदें क्या हैं, वे क्या चाहती हैं ? आइये जानते हैं।
"दूर-दराज के गाँव से मरीज को लाने में कोई परेशानी नहीं होती, क्योंकि सरकारी एम्बुलेंस मरीज को ले आती है, लेकिन उसके बाद से मरीज को संभालने की जिम्मेदारी हमारी होती है, लेकिन सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचएसी) पर हमारे रहने की कोई सुविधा नहीं होती। कई बार देर रात हो जाती है, लेकिन घर लौटने के लिए भी हमारे लिए कोई सरकारी सुविधा नहीं होती। सारी रात सीएचसी पर इधर उधर-टहल कर काटनी पड़ती है," ये दर्द है उत्तर प्रदेश के जनपद उन्नाव के सोहरामऊ में तैनात आशा कार्यकत्री सुधा देवी (40 वर्ष) का।
वे आगे बताती हैं, "गर्मी में तो किसी तरह से रात बीत जाती है, लेकिन सर्दी में जान निकल जाती है। कई बार हम लोग ठंड लगने से खुद बीमार हो जाते हैं, क्योंकि अस्पताल में मरीज के लिए सिर्फ बिस्तर की व्यवस्था होती है हमारे लिए नहीं। न खाने को मिलता है न आराम करने का। अस्पताल के कर्मचारी भी हमसे सही से बात नहीं करते हैं। "
ये भी पढ़ें: बजट 2020: "फसल बर्बाद हो तो किसान को मिले शत प्रतिशत मुआवजा, बजट में हो इंतजाम"
ग्रामीण महिलाओं और बच्चों की सेहत की देखभाल के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ने वर्ष 2005 में आशा कार्यकत्रियों (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) का पद सृजित किया था। आशा का कार्य स्थानीय स्वास्थ्य केंद्र के माध्यम से महिलाओं और बच्चों को स्वास्थ्य संबंधी सेवाएं प्रदान करना है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन सितंबर 2018 के आंकड़ों के अनुसार भारत में आशाकर्मियों की कुल संख्या लगभग 10 लाख 31 हजार 751 है।
उत्तर प्रदेश के उन्नाव की रहने वाली आशा कार्यकत्री सुधा की तरह ही उनसे करीब 750 किमी दूर राजस्थान के जिला चित्तौड़गढ़ में रहने वाली आशा कार्यकत्री देवी कुमारी भी अधिक काम के बावजूद कम पैसे मिलने की बात कहती हैं।
"हमारे पास दो विभागों का काम है पहला स्वास्थ्य विभाग और दूसरा समन्वित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) का। वेतन के नाम पर 2750 रुपए मिलते हैं। हम चाहते हैं कि हमें एक विभाग में स्थाई कर दिया जाए वेतन में चाहे कुछ बढ़ोतरी करें या न करें। " देवी कुमारी फोन पर कहती हैं।
एक हजार आबादी पर एक आशा कार्यकत्री होती हैं। ज्यादा आबादी वाले गाँवों में इनकी संख्या बढ़ जाती है। कुछ राज्यों में आशा कार्यकत्रियों को एक निश्वित मानदेय मिलता है जबकि कई जगह उनके काम के आधार पर उन्हें प्रोत्साहन राशि दी जाती है। उत्तर प्रदेश में एक डिलिवरी कराने पर 600 रुपए मिलते हैं। वहीं केरल में 7500, तेलंगाना में 6000 और कर्नाटक में 5000 रुपये प्रतिमाह मानदेय मिलता है। सरकार का मानना है कि एक माह में एक आशा वर्कर तीन डिलिवरी कराती है।
ये भी पढ़ें: उम्मीदें बजट 2020: कस्बों के अस्पताल दुरुस्त हो जाएं तो बड़े अस्पतालों पर कम पड़े बोझ
उत्तराखंड के जनपद ऊधमसिंह नगर के सितारगंज में रहने वालीं आशा वर्कर दीपा नेगी (45वर्ष) कहती हैं, " महंगाई के इस दौर में इतने कम रुपयों से परिवार चलाना सम्भव नहीं है। गुजर बसर करने मे काफी परेशानी होती है। हम लोग काम एएनएम से ज्यादा करते हैं लेकिन उनसे बहुत कम पैसे मिलते हैं। मैं चाहती हूं कि आशा कार्यकत्रियों को कम से कम 10 हजार रुपए मानदेय मिलना चाहिए।"
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार के तहत मनाए जाने वाले आईसीडीएस कार्यक्रमों में वजन दिवस, आयरन की गोली बंटना, मातृ-शिशु टीकाकरण और मातृत्व सप्ताह मनाए जाते हैं। इन कार्यक्रमों में शामिल आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को उनके खाते में ड्यूटी का पैसा सीधे मिलता है हालांकि इन आयोजनों में आशा बहुओं की भी हिस्सेदारी बराबर की होती है, लेकिन इन्हें कोई मानदेय नहीं मिलता क्योंकि ये महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के तहत पंजीकृत नहीं हैं।
उत्तर प्रदेश में महिला स्वास्थ्य पर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था प्रतिनिधि के निदेशक मजहर रशीदी भी आशा कार्यकत्रियों को एक निश्चित मानदेय के पक्ष में हैं। "हमारे देश में शिशु मृत्यु दर में कमी हो या सरकारी अस्पतालों में संस्थागत प्रसव का बढ़ता प्रतिशत यह सब आशा वर्कर्स के अथक प्रयास से ही संभव हो सका है। अपने स्वास्थ्य की परवाह किए बगैर पूरे गाँव की महिलाओं की सेहत की चिंता करने वाली आशा बहुओं को वेतन की जगह प्रोत्साहन राशि दी जाती है। कुछ प्रदेशों में इन्हें एक निश्चित मानदेय मिलता है। उनको वो सम्मान नहीं मिलता है जिसकी वो हकदार होती हैं। " मजहर रशीदी फोन पर बताते हैं।
More Stories