रक्षाबंधन के बाद मनाते थे कजलियां का त्योहार, कुछ घरों तक ही सिमट कर रह गया यह मिलन पर्व

मध्य प्रदेश के बघेलखंड और बुंदेलखंड के कुछ जिलों में मनाया जाने वाला यह पर्व धीरे-धीरे अपना महत्व खोता जा रहा है। लोगों की व्यस्तता ने इस त्योहार को कुछ घरों तक ही समेट दिया है।

Sachin Tulsa tripathiSachin Tulsa tripathi   4 Aug 2020 9:53 AM GMT

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सतना (मध्य प्रदेश)। कजलियां यानी सावन के महीने में रक्षाबंधन के ठीक अगले दिन पारंपरिक गीतों और एक-दूसरे से मिलने-मिलाने का एक त्योहार। यह पर्व कभी मध्य प्रदेश के बघेलखंड और बुंदेलखंड के कुछ जिलों में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था, मगर आज आधुनिकता की दौड़ में और लोगों की व्यस्तता ने इस त्योहार को कुछ घरों तक ही समेट दिया है।

गेहूं, जौ, बांस के बर्तन और खेत की मिट्टी इस त्यौहार में ख़ासा महत्व रखते हैं। महिलाएं नागपंचमी के दूसरे दिन खेत से मिट्टी लेकर आतीं और बांस के बर्तन में गेहूं या जौ बोती थीं, रक्षाबंधन तक इन्हें पानी दिया जाता, इनकी देखभाल की जाती, इसमें उगने वाले जौ या गेहूं के छोटे-छोटे पौधों को ही कजलियां कहा जाता है।

पुरुष इन पौधों को देखकर अनुमान लगाते थे कि इस बार फसल कैसी होगी, जबकि कजलियां वाले दिन घर की लड़कियां कजलियां तोड़कर घर के पुरुषों के कानों पर लगातीं और घर के पुरुष शगुन के तौर पर लड़कियों को रुपये देते। इस पर्व में कजलियां लगाकर लोग एक-दूसरे के लिए कामना करते कि सब लोग कजलियां की तरह खुश और धन-धान्य से भरपूर रहे, इसलिए यह पर्व सुख और समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है।

"कोरोना के चक्कर में इस साल बो नहीं पाए। हम बैइठे हैं आपन हाथ-ग्वाड़ (पैर) सकेले (समेटे)। सप्तमी को बोते थे और फिर जाकर परेवा के दिन महिलाएं उसल (विसर्जन) के लिए जातीं। जब जाते तो सब सखियाँ मिल के गीत गातीं, गाते-बजाते," 65 साल की गेंदिया देवी यह बताते हुए मंद-मंद मुस्कुरा रहीं थीं।

मध्य प्रदेश के सतना जिले के 28 किलोमीटर दूर किटहा गाँव की गेंदिया देवी से जब पूछा कि कौन सा गीत गाती थीं? तो वह गातीं ...

कजलियां पर्व के दिन महिलाएं साथ मिलकर पारंपरिक गीत गाती-बजातीं। फोटो : गाँव कनेक्शन

"हरे रामा ...

बेला फुलैं आधी रात,

चमेली भिनसारे रे हारे रे हारे,

हरे रामा ...

भइया लगवैं बेला बाग,

तोड़न नहीं जानै रे हारे रे हारे ..."

गेंदिया बताती हैं, "कजलियां विसर्जन के समय महिलाएं-युवतियां नदी की ओर जाते समय यही गीत गुनगुनाया करती थीं।"

इसी गाँव में प्रिया कभी अपने घर की महिलाओं के साथ कजलियां विसर्जन के लिए जाती थीं, मगर अब इस त्योहार का महत्व धीरे-धीरे कम होने से वह खासा निराश दिखीं।

प्रिया 'गांव कनेक्शन' से बताती हैं, "पहले हमारी दादी-बुआ सब लोग जाते थे, शाम के समय कजलियां सेरा के आते थे। उसके बाद भगवान को चढ़ाई जाती और सारे परिवार के साथ मनाया जाता था, लेकिन जैसे-जैसे आधुनिकता आती गई, वैसे-वैसे त्योहार का महत्व भी खत्म होता जा रहा है, लोग अपने में बिजी रहते हैं, पहले लोग ऐसे ही त्यौहारों में मिला करते थे अब तो त्यौहारों का ही महत्व खत्म होता जा रहा है।"

बांस के बर्तन में कुछ ही दिनों में कुछ इस तरह उग आतीं कजलियां। फोटो : गाँव कनेक्शन

प्रिया की सहेली वैशाली भी इस बात से सहमत दिखीं। वैशाली कहती हैं, "ये जो कजलियों का त्योहार है, ये बहुत दिनों से मना रहे हैं, पहले इसमें बहुत ज्यादा लोग जाते थे, घरों में सबसे मिलते-जुलते थे, लेकिन जैसे-जैसे आधुनिकता आने लगी उसी तौर पर हमारा ये त्यौहार भी सिमटने लगा और प्रचलन भी कम हो गया।"

रक्षाबंधन के बाद मानने जाने वाला यह विशेष त्योहार हमेशा से ही बुंदेलखंड और आस-पास के जिलों में अहम हिस्सा रहा है। यहाँ बुन्देली भाषा में कजलियां को भोजरी भी कहा जाता है।

कजलियां की महत्ता कम होने के सवाल पर पंडित शेषमणि मिश्रा 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "हमारे भोजरी के त्यौहार में प्रत्येक मनुष्य इकट्ठा होता था। मिलने-जुलने की वह क्रिया थी। इसमें हर प्राणी, हर समाज के लोग एक-दूसरे से मिलते-जुलते थे। उसके व्यवहार से पैलगी (पांव छूना), प्रणाम, गले मिलना सब कुछ करते थे। तब के युग में और अबके युग में चाहे व्यस्तता मान लीजिए, चाहे पाश्चत्य सभ्यता या कुरीति आ रही है, इसलिए धीरे-धीरे इस त्यौहार का महत्व कम होता जा रहा है।"

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