लॉकडाउन में कृषि क्षेत्र को संगठित करने के मौके भी हैं

कोविड 19 महामारी के चलते हो रहे नुकसान से किसानों को कैसे बचाया जाए? वे क्या कदम उठाए जाने चाहिए जिससे कृषि संकट से किसानों को उबारा जा सके, गांव कनेक्शन आर्थिक पैकेज की उठ रही मांगों के बीच देश के कृषि जानकारों, अर्थशास्त्रियों और किसान नेताओं से उनकी राय जान रहा है। सीरीज कोरोना और किसान के तीसरे पार्ट पढ़िए कि आखिर क्यों लॉकडाउन को कृषि वैज्ञानिक डॉ दया श्रीवास्तव एक अवसर के रूप में देख रहे हैं।

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लॉकडाउन में कृषि क्षेत्र को संगठित करने के मौके भी हैं

वर्षों से हम कृषि की जिस मूल समस्या के लिए चिंतन, मंथन एवं मनन कर रहे थे उसको कोरोना जैसी महामारी ने काफी हद तक रास्ता दिखाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। निश्चय ही इसके लिए हमें भारी आर्थिक क्षति उठानी पड़ी किंतु यदि हम वैश्विक चुनौतियां से लड़ने या हल निकालने की बात करें तो शायद यह समय सबसे उपयुक्त है। आज इस महामारी के दौर में यदि हम घरों में सुरक्षित रहकर सामान्य जीवन निर्वहन कर रहे हैं तो उसके पीछे हमारे अन्नदाता एवं श्रमिकों की जी तोड़ मेहनत है, किंतु दुर्भाग्य की बात यह है कि आज वही किसान एवं श्रमिक इस महामारी के दौर में सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं।

दिल्ली मुंबई की घटना हो या वर्तमान में खेती से जुड़े किसान हो आज इस वैश्विक महामारी में बुरी तरीके से प्रभावित हुए हैं मेरे मन में आज एक प्रश्न बार-बार उमड रहा है कि वह कौन से कारण रहे हैं जिसने वास्तव में इन कृषको को श्रमिक बनने पर मजबूर कर दिया ? क्या आज जब हम अपने घरों में सुकून से सुरक्षित हैं तो इन बेचारे गरीबों को भी घर में अपने परिवारों के साथ सुरक्षित नहीं होना चाहिए था? या वर्षों से जो किसान हमारे परिवार के लिए अन्न उपजा कर दे रहे थे आज उनके ही परिवार को पेट भरने के लिए दर-दर भटकना पड रहा है।

आखिर इनका कसूर क्या था? वर्तमान में जब सरकारों द्वारा बच्चों के लिए मुफ्त आवास, विद्यालयों में भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, ईंधन, मनरेगा जैसे रोजगार के अवसर उपलब्ध होने के बाद भी क्यों यह कृषक से पूर्ण श्रमिक बनने पलायन को मजबूर हो रहे हैं ?

उत्तम चाकरी, मध्यम बान, निषिद्ध खेती, भीख निदान ..आज अगर कवि घाघ होते तो शायद अपनी पंक्तियों को कुछ इसी तरह व्यक्त करते, हालांकि यह पंक्तियां सभी प्रगतिशील कृषकों पर लागू नहीं होती यह तो वास्तव में उस किसान के लिए है जो आज भूमिहीन रहते हुए भी खेती कर रहा है।

यदि इनकी मजबूरियों पर गौर करें तो मुख्य रूप से दो ही कारण उभर के सामने देखते हैं नीतिगत एवं सामाजिक न्याय का न मिलना। नीतिगत कारणों में गौर करें तो मनरेगा में धांधली, राशन कार्ड में धांधली, सरकारी कर्मचारियों की निष्क्रियता, ग्रामीण स्तर पर जातिगत समीकरण, प्रधानों की मनमानी या उनके द्वारा अनैतिक कार्यों पर अंकुश न लगना, सामाजिक सुरक्षा इत्यादि इत्यादि।

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वहीं दूसरी ओर सामाजिक कारणों में साहूकारों द्वारा प्रताड़ना ,पारिवारिक कलह, पारिवारिक जमीन विवाद, हिंसा एवं सामाजिक शोषण इत्यादि है। व्यक्ति गुनाह तब करता है जब उसे गुनाह के लिए मजबूर किया जाए। उसी प्रकार व्यक्ति विस्थापन या माइग्रेशन तब करता है जब उसे नीतिगत एवं सामाजिक न्याय नहीं मिलते या उसकी समस्याएं समाज के हर वर्ग द्वारा अनसुनी कर दी जाय तो मजबूरन उसे अपनी समस्या का हल निकालने के लिए स्वयं विस्थापन का रास्ता अपनाना पड़ता है।

किंतु विस्थापन की राह में भी इन किसानों की समस्याएं पीछा नहीं छोड़ती। मसलन जब वह शहर जाता है तो वहां भी ठेकेदार के चंगुल में फस जाता है। ठेकेदार भी इनकी मजबूरी का पूरा फायदा उठाते हुए इनके माध्यम से अपने अत्यधिक लाभ का दिवास्वप्न देखने लगता है और उनके शोषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। महानगरों में कार्य के दौरान किसी कारणवश यदि यह बीमार हो जाते हैं तो बची खुची कसर कुछ गिद्ध रूपी प्राइवेट चिकित्सालय इन पर अपनी नजरें गड़ा देते है कि कैसे इन्हें चंगुल में फंसाया जाए। फलस्वरूप इनका अंतिम सहारा 'जमीन एवं जेवर' जीवन याचना के लिए भेंट चढ़ जाती है।

इन सभी समस्याओं के चलते भी ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में लगातार पलायन का सिलसिला चलता रहा और कृषि एवं पशुपालन पर श्रमिकों की कमी का संकट लगातार बढ़ता गया। किंतु जिस प्रकार से गांव के सामाजिक एवं नीतिगत न्याय न मिलने से कृषक शहरों की ओर रुख किए थे, लेकिन इस महामारी के दौर में पुनः उन्हें अपनी माटी की याद आने लगी है और लौटने का दृढ़ संकल्प कर लिया है और अगले कुछ वर्षों तक शायद शहरों में जाने के लिए यह सोचेंगे भी नहीं । आज उनके मन में केवल एक ही बात निकल रही है चाहे कुछ भी हो जाए हम अपने जन्म स्थान में ही रहेंगे भले ही हमें कम पैसा मिले गुजारा करने का प्रयास करेंगे।

हमारे देश में उद्योगों का विकास खेती पर निर्भर है प्रतिवर्ष कृषि बजट में भी वृद्धि की जाती है किंतु फिर भी किसान खेती को छोड़कर श्रमिक बनने के लिए मजबूर हो रहे हैं एवं पलायन कर रहे हैं। कृषि आदानों के बढ़ते दाम, सिंचाई एवं श्रमिको की लगातार समस्या, फसल उत्पादन ,उत्पादन उपरांत उचित मूल्य का न मिल पाना, बिचैलियों द्वारा शोषण, प्राकृतिक आपदा एवं महंगाई वर्तमान में किसानों के लिए चिंता का कारण बनता जा रहा है।

यदि वर्ष 2018 के ऑकड़ों की बात करें तो किसानों की वार्षिक आय लगभग 20 हजार रुपए है किंतु निचले पायदान पर बैठे कृषकों की बात करें तो प्रति औसत किसान के ऊपर साहूकार बैंक ऋण या अन्य प्रकार का ऋण लगभग 50 से 60 हजार है यानी लगभग 3 गुना। इस वास्तविक स्थिति में यदि हम इन किसानों की आमदनी दोगुनी भी कर लें तब पर भी निचले पायदान पर बैठा किसान कर्ज में ही डूबा रहेगा। इसी कारण जब किसान कृषि के लिए ऋण लेता है तो वह उसे कृषि कार्य में न लगाकर घर की जरूरत है जैसे बच्चों की पढ़ाई, बच्चों की शादी- ब्याह, बीमारी एवं अन्य जरूरत के संसाधन में लगाता है, क्योंकि इन सब की आवश्यकता पूरी करने के लिए वह पहले से ही कर्ज में डूबा हुआ है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के विशेष अनुसंधान केंद्रों निदेशालयों एवं क्षेत्र आधारित परियोजनाओं द्वारा कृषि एवं पशुपालन के सर्वांगीण विकास हेतु एवं क्षेत्र व आवश्यकता अनुरूप प्रौद्योगिकियां / तकनीकियां विकसित की गई है किंतु दुर्भाग्य है कि इस देश में कृषि प्रसार तंत्रों के सभी माध्यम अंतिम छोर पर बैठे किसानों तक तकनीकी ज्ञान/ लाभ पहुंचाने में विफल रहे हैं। यदि तकनीकी ज्ञान पहुंच भी रहा है तो उस तकनीकों के अनुपालन में आ रही रुकावटों के निस्तारण में सभी तंत्र आपस में ही समन्वय नहीं बना पा रहे हैं जिससे किसान लाभ से वंचित हो रहा है। यह रुकावट व्यक्तिगत, स्वाभावगत, व्यवहारगत नीतिगत, संस्थागत, सीमागत, तकनीकीगत कई कारणों वश हैं।

हमारे देश में किसान होने के लिए कृषि योग्य जमीन होना आवश्यक है किंतु आज जो भूमिहीन किसान हैं और किसानी कर रहे हैं उनकी मूल समस्या यह है कि पैतृक स्वामित्व के चलते उनके पास जमीन होते हुए भी उनके नाम पर कोई जमीन का टुकड़ा भी नहीं है। यदि कुछ वर्ष उपरांत शायद उन्हें जमीन मिल भी जाए लेकिन तब तक खेती से उनका मोहभंग हो चुका होगा। दुर्भाग्यवश जिनके पास कृषि योग्य भूमि ज्यादा है वह स्वयं कृषि कार्य नहीं करते बल्कि भूमिहीन किसानों से खेती कराते हैं। असली भूमिहीन किसान सरकार की किसी भी योजना का प्रत्यक्ष रूप से लाभ लेने से वंचित हो रहा है।

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मसलन आज के दौर में हमें उन किसानों को प्राथमिकता देनी होगी जो भूमिहीन है इसके बाद ऐसे किसानों को जिनके पास एक हेक्टेयर से कम जोत है तथा तीसरे पायदान पर ऐसे किसान जो 2 हेक्टेयर या उससे अधिक जोत रखते हैं। जिनके पास 5 हेक्टेयर से अधिक भूमि है वह कहीं ना कहीं किसी न किसी रूप में अपना जीविकोपार्जन करने में सक्षम हैं। चिंता की बात यह भी है कि हमारे देश में किसानों की सही आंकड़ा ही नहीं है। इस महामारी के दौर में जो भी गरीब किसानों, मजदूरों के लिए राहत पैकेज दिए गए हैं उसमें भी बहुत से ऐसे असंगठित क्षेत्र के किसान मजदूर हैं जो लाभ से वंचित हैं।

इन प्रथम श्रेणी के किसानों को यदि देखें तो सबसे अधिक यही पलायन कर रहे हैं। अतः इन्हें कृषि की मुख्यधारा में लाने का यह सबसे उपयुक्त समय है जब वह पुनः अपने गांव की ओर रुख करते हैं। अब सोचना यह है कि कृषि आधारित लघु कुटीर उद्योगों को न्याय पंचायत स्तर पर स्थापित करके या गोशालाओं से संबंध करके इनके परिवारों के भरण पोषण हेतु प्रभाव प्रभावी कदम उठाने हेतु परिययोजनाएं¨निर्मित कराई जाएं ताकि इनके परिवार एवं गोवंश की आजीविका सुरक्षित रहे एवं कृषि क्षेत्रों के लिए भी लेबर की उपलब्धता सुनिश्चित रहे। हमारे देश में बहुत सारी सूचना तकनीकी प्रौद्योगिकी एवं विशेषज्ञों की टीम है। क्या हम किसान का वास्तविक डाटा बैंक नहीं तैयार कर सकते? चाहे भले ही इस को तैयार करने में हमें कोई भी कीमत चुकानी पड़े ताकि भविष्य में इनके लिए उचित एवं तार्किक रणनीति बनाई जा सके।

'गांव में वापस आए बेरोजगार श्रमिकों को क्षेत्र आधारित रोजगार देने हेतु कुछ प्रमुख सुझाव'-

'प्रशासनिक'

 सर्वप्रथम गांव में वापस आए श्रमिकों एवं श्रमिक परिवारों की सूची ग्राम स्तर पर शीघ्र अति शीघ्र तैयार करनी होगी तथा उनकी क्षमता/आवश्यकता अनुरूप कार्य चिन्हित कराकर शासन स्तर पर हर संभव मदद हेतु प्रयास करने होंगे।

 ग्राम प्रधान, प्रशासनिक अधिकारी ,कृषि वैज्ञानिकों के साथ इनकी सामूहिक बैठक कराकर इनकी समस्या के निवारण हेतु प्रारूप मॉडल तैयार करने होगें

 इन श्रमिकों को आत्मा योजनांतर्गत इनके विषय रूचि अनुरूप कृषि तकनीकी केंद्रों में भ्रमण कराकर इनका ज्ञानवर्धक प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन करना होगा

 कृषि विज्ञान केंद्रों में उपलब्ध तकनीकों के माध्यम से आवासीय प्रशिक्षण हेतु सहयोग प्रदान करने होंगे

 कृषि , पशुपालन एवं संबद्धित सभी स्कीमों में इन श्रमिकों को प्राथमिकता देनी होगी

 नाबार्ड एवं एमएसएमई की सहायता से ब्लॉक स्तर पर एकीकृत रोजगार एवं कॉउन्सिलिंग केंद्र स्थापित करने होंगे

'भूमिहीन श्रमिको हेतु'

 1) हर व्यक्ति के अंदर एक अनूठी प्रतिभा होती है इन्हीं श्रमिकों में कोई लोक गायन, शिल्पकला, बढ़ई, नाई, मिस्त्री इत्यादि हुनर का मालिक होगा हमें इनकी कला अनुरूप जनपद स्तर संबंधित केंद्रों पर पंजीकृत कराने हेतु प्रयास करने होंगे

 2) मनरेगा संबंधित कार्यों में प्राथमिकता देनी होगी

 3) जिला उद्यान अधिकारी के माध्यम से मधुमक्खी पालन योजना से जोड़ना होगा

'कम भूमि वाले किसानों हेतु'

 जिनके पास कम भूमि है वह वन आधारित नर्सरी, पुष्प नर्सरी या बागवानी नर्सरी का कार्य निदेशक सामाजिक वानिकी प्रभाग एवं जिला उद्यान अधिकारी के माध्यम से शुरु कर सकते हैं

 कम लागत कम जमीन में मशरूम उत्पादन कर अच्छा लाभ कमा सकते हैं

 छोटा तालाब निर्माण कर मछली जीरा उत्पादन एवं मछली पालन का कार्य निदेशक मत्स्य के माध्यम से शुरू कर सकते हैं

 मुर्गी पालन, बकरी पालन केंचुआ पालन का कार्य मुख्य पशु चिकित्सा अधिकारी के माध्यम से शुरू कर सकते हैं

अधिक भूमि वालों के लिए

 दीर्घकालीन लाभ के लिए फलदार बागों की स्थापना कर सकते हैं एवं अंतः फसल के रूप में सब्जी उत्पादन का कार्य शुरू कर सकते हैं

 मोटे अनाज, दलहन ,तिलहन, पशु चारा के बीजों का उत्पादन कर अच्छा लाभ प्राप्त कर सकते हैं

 किसान उत्पादक संगठनों से जुड़कर औषधीय एवं संगधित पौधों की खेती का कार्य शुरू कर सकते हैं

'महिलाओं हेतु कार्य'

 स्वयं सहायता समूह एवं महिला किसान उत्पादक संगठन का निर्माण कर गृह उद्योग, हस्तशिल्प उद्योग, लोक गायन समूह, नर्सरी पौधे निर्माण, जैविक खाद निर्माण, मूल्य संवर्धित उत्पाद निर्माण इत्यादि का कार्य शुरू किया जा सकता है।

(ये लेखक के निजी विचार है।)

  

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