कृषि कानूनों पर वापसी का फैसला पीएम मोदी की रणनीतिक हार है? क्या हैं यूटर्न के मायने

सड़क से लेकर संसद तक चली लंबी जद्दोजहद के बाद केंद्र सरकार ने कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला लिया है। इसे आंदोलनकारी किसानों की बड़ी जीत बताया जा रहा है। राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं के जानकार इसे पीएम मोदी की रणनीतिक हार बता रहे हैं। कृषि कानूनों के हिमायती इसे कृषि क्षेत्र में रिफॉर्म के लिए घातक मानते हैं। कृषि कानूनों की वापसी के सियासी मायने क्या हैं?

Arvind ShuklaArvind Shukla   19 Nov 2021 1:33 PM GMT

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कृषि कानूनों की वापसी पर जितनी चर्चा किसान संगठनों की जीत की हो रही है, उतनी ही चर्चा इस बात पर हो रही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ये फैसला क्यों लिया? करीब डेढ़ साल से जिस फैसले को पूरी सरकार और सिस्टम सही और क्रांतिकारी बता रहा था उससे वापस क्यों लिया जा रहा है? पीएम मोदी जिन्हें सख्त फैसलों के लिए जाना जाता हैं, उन्होंने यूटर्न क्यों लिया? जाहिर सी बात है ये फैसला एकाएक नहीं लिया गया है, इसके कई सियासी मायने हैं।

कृषि कानूनों की वापसी किसान आंदोलन की अगुवाई कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा कि ये भारत के किसानों की एकजुटता की पहली बड़ी जीत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा सही दिशा में एक स्वागत योग्य कदम है। लेकिन हमारी लड़ाई एमएसपी कानून बनने तक जारी रहेगी।

किसान आंदोलन का बड़ा चेहरा बने राकेश टिकैत ने सिर्फ सिर्फ तीन कृषि कानूनों की वापसी से काम नहीं चलेगा, एमएसपी पर गारंटी दो कानून बनाओ। उन्होंने कहा कि आम आदमी को भी ज्यादा उत्साहित होने की जरुरत नहीं, ये समय लड्डू और मिठाई बांटने का नहीं है। आंदोलन जारी रहेगा।"

देश के प्रख्यात अर्थशास्त्री, खाद्य एवं निर्यात नीति विशेषज्ञ दिवेंदर शर्मा ने फैसले को लेकर कहा, "ये सबकी जीत है लेकिन अधूरी है। किसानों की पूरी जीत तब होगी, आंदोलन उस वक्त सफल माना जाएगा जब किसानों की उनकी उपज की गारंटी मिलेगी एमएसपी पर कानून बनेगा।"


ये कृषि कानूनों की वापसी के निर्णय का पहला पक्ष है। लेकिन कानून वापस लेने के फैसले के मायने और उसके बाद होने वाला असर दूसरा पक्ष है।

देश के जाने माने लेखक और अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाले गौतम चिकरमाने इस फैसले को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि के बिल्कुल विपरीत फैसला मानते हैं। गांव कनेक्शन से बात करते हुए गौतम चिकनमारे ने कहा, "पीएम नरेंद्र मोदी को एक रिफॉर्मर प्रधानमंत्री माना जाता है। उनकी छवि ऐसे रही है कि वो कड़े फैसले लेने के लिए जाने जाते हैं। लेकिन कृषि कानूनों के संबंध में उनका ये फैसला छवि के विपरीत है। कृषि कानूनों को लेकर इतना आगे बढ़ने के बाद वापस लेने का फैसला मेरी समझ में नहीं आ रहा है। इकनॉमिकली ये खतरनाक फैसला है, तो मुझे नहीं लगता कि पॉलिटिकली उन्हें कुछ मिलने वाला है।"


गौतम चिकरमाने कई किताबों के लेखक हैं। मौजूदा वक्त में वो ओरआरएफ के वाइस प्रेसीडेंट हैं। वो आगे कहते हैं, "1991 में पीवी नरसिम्हा राव के बाद नरेंद्र मोदी को रिफॉर्मर प्रधानमंत्री माना जाता है। जीएसटी, जनधन समेत कई बड़े फैसले इसी सरकार में लिए गए। कृषि कानूनों पर सरकार को जो यूटर्न है वो उनकी छवि को नुकसान पहुंचाने वाला है। अगर ये करना था तो शुरु के तीन महीने में किया जा सकता था। ये उन लोगों के साथ धोखे जैसा है जो कृषि कानूनों के समर्थन में थे। ये (पीएम) राजनीतिक हैं उन्हें फैसले के मायने ज्यादा पता होंगे, जो मैं अभी समझ नहीं पा रहा लेकिन, इससे अब दो बातें जरुर होंगी। एक तो लोग अपनी बातें मनवाने के लिए सड़क पर उतरना शुरु करेंगे, लंबे विरोध का दौर शुरु हो सकता है दूसरा विपक्ष को ये मजबूती मिली होगी कि मोदी को हराया भी जा सकता है।"

देश में कृषि सुधार लाने के लिए कोविड लॉकडाउन के दौरान जून 2020 में कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश (Farmers' Produce Trade and Commerce (Promotion and Facilitation) Act, 2020) आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन (The Essential Commodities (Amendment) Bill), मूल्य आश्वासन पर किसान (संरक्षण एवं सशक्तिकरण) समझौता और कृषि सेवा अध्यादेश (The Farmers (Empowerment and Protection) Agreement of Price Assurance and Farm Services Bill) को अध्यादेश के रुप में लाया गया था, जो सितंबर 2020 में कानून बनकर लागू हुए। कृषि अध्यादेशों की घोषणा के बाद से ही विरोध और समर्थन के स्वर उठने लगे थे, एक धड़ा इसे कृषि अर्थव्यवस्था और किसानों के जीवन में अमूलचूल परिवर्तन लाने वाला बता रहा था दूसरा किसान संगठन समेत दूसरा वर्ग इसे खेती के लिए आत्मघाती मान रहा था, उनका कहना था इससे खेती में कॉरपोरेट हावी हो जाएंगे, मंडियां खत्म हो जाएंगी, एमएसपी पर खरीद धीरे-धीरे बंद हो जाएंगी। जिसे लेकर पंजाब से विरोध के स्वर उठे देश के कई राज्यों में फैले। 26 नवंबर 2020 से कई राज्यों के किसान दिल्ली की सीमाओं पर डटे हैं। इस दौरान कई बार हंगामा, हिंसा और सियासी उठापटक हुई और अब खुद पीएम नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान किया है।


"ये बहुत गलत फैसला है, जिसका कोई कारण और स्पष्टिकरण नहीं है। इस फैसले ने देश के किसानों के सामने एक बड़ी त्रासदी खड़ी कर दी है। किसान अब फिर बिचौलियों और शोषण करने वालों के जाल में फंसेंगे।" अर्थशास्त्री और सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता विजय सरदाना कहते हैं। कृषि कानूनों के हिमायती रहे सरदाना इस फैसले को बेहद गलत मानते हैं।

उन्होंने आगे कहा, "पीएम ने खुद कहा कि ये सही कानून था अच्छा फैसला था एक छोटा सा ग्रुप था जो नाराज था, इसका मतलब क्या है, ये लोकतंत्र में कौन सा स्पष्टिकरण है। मैंने अपने जीवन इससे खराब कोई डिजिसन नहीं देखा।"

सरदाना के मुताबिक कृषि कानूनों की वापसी से कृषि, कृषि निर्यात, किसान और इस क्षेत्र में शुरु हो रहे एग्री स्टार्टअप और नए सुधारों पर असर पड़ेगा।

देश में ग्रामीण मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह लंबे समय से कृषि और किसानों से जुड़े रहे हैं, इसके साथ ही वो संसदीय व्यवस्था और मामलों को भी बारीकी से समझते हैं।

अरविंद कुमार सिंह कहते हैं, "इसके पीछे दो कारण हैं 29 नवंबर से संसद का शीतकालीन सत्र शुरु हो रहा है। सरकार को जानकारी है कि इस बाद सत्र में यही मुददा है जो विपक्ष लेकर आ रहा है। दूसरा तत्कालिक कारण है कि यूपी, पंजाब और अन्य राज्यों में चुनाव हैं। यूपी और पंजाब में केंद्रीय मुद्दा बनना ही था। पश्चिम बंगाल में कृषि कानून एक मुद्दा बना रहा है। कई राज्यों के उप चुनाव में जो परिणाम आए सरकार को ये बात समझ आई गई कि ये उन्हें भारी पड़ रहा है। कृषि कानूनों का विपरीत असर भी है, एमपी और यूपी में बहुत सारी मंडियां खाली पड़ी रही। कृषि क्षेत्र में बातें तो बुहत हो रही लेकिन कई मुद्दे हैं। फर्टीलाइजर क्राइसिस (उर्वरक संकट) भी एक मुद्दा है। आजाद भारत में कभी ऐसा हुआ कि किसान आ गए हों और एक साल तक जमे रहो हों।"

वहीं, आप देखिए कि देश में कितने सारे संगठन उनके आपसी मनमुटाव में भी हैं लेकिन किसान आंदोलन के मु्ददे पर वो सब एक रहे हैं। फिर लखीमपुर जैसा केस हो गया। इस दौरान लगातार ये मैसेज जा रहा था कि सरकार के कदम किसान विरोधी हैं, ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार कृषि कानूनों को वापस लेने के फैसले से ये दिखाने की कोशिश की है कि किसान विरोधी और हठधर्मी नहीं है।"


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