किसानों का दर्द : जमीन में दफन होकर करेंगे बेटी की विदाई

Mithilesh DharMithilesh Dhar   30 Oct 2017 9:04 AM GMT

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किसानों का दर्द : जमीन में दफन होकर करेंगे बेटी की विदाईभू-समाधि लिए किसान को पानी पिलाता एक सहयोगी।

लखनऊ। हम नहीं जानते कि कविता की बरात कहाँ आएगी। पूर्वी राजस्थान के एक गाँव में कल फूल चंद कुमावत की बड़ी बेटी कविता की 31 अक्टूबर को शादी है, लेकिन एक महीने से जगदीश और उनके 1350 साथी ज़मीन में गढ्ढे बना कर उन में बैठ कर ज़मीन अधिग्रहण के खिलाफ "भू-समाधि" करने पर तुले हैं।

"मेरी बेटी की शादी यहीं से होगी। हम उसे यहीं गड्ढे से आशीर्वाद दूंगा। आंदोलन छोड़ नहीं सकता," 57 साल के किसान फूल चंद ने गाँव कनेक्शन को आंदोलन स्थल से फ़ोन के माध्यम से बताया। "कल बेटी की शादी है। बारात यहीं आयेगी। जीने खाने के लिए मेरे पास सिवाय इस जमीन के कुछ भी तो नहीं है। अब तो इसी गड्ढे में जीना-मरना होगा।”

जयपुर बीस किलोमीटर दूर स्थित नींदड़ गाँव में 2 अक्टूबर से पुरुषों द्वारा शुरू किये गए आंदोलन में कुछ दिन बाद महिलायें भी शामिल हो गयीं, और 28 अक्टूबर को बच्चे भी शामिल हो गए। किसान की मांगें है कि या तो उनकी जमीन का उचित मुआवजा मिले या उनकी जमीन को सरकार को छोड़ दे। "सरकार किसानों का हित चाहती है तो हमारी मांगें मान ले, तभी हम अपना आंदोलन छोड़ेंगे।" फूल चंद ने कहा।

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इसी तरह 13 नवंबर को किसान जगदीश की बेटी भी शादी है। वो बारात भी आंदोलन स्थल पर ही आएगी। इस बारे में जगदीश ने कहा "हमने लड़के पक्ष वालों को बता दिया है। बारात भी यहीं आएगी। मेरी बेटी यहीं से विदा होगी।"

सरकार कोई भी हो, सब खुद को किसान हितैषी बताने से नहीं चूकती। जब किसानों का हित करना ही है तो उनकी मांगों पर ध्यान क्यों नहीं दिया जाता। राजस्थन की राजधानी जयपुर से करीब 20 किमी दूरी पर ही बसा नींदड़ गांव, जहां किसान अपनी खेती की भूमि को बचाने और उचित मुआवजे को लेकर ही कई सालों से सरकार से गुहार लगा रहे थे।

जब किसानों की आवाज हुक्मरानों तक नहीं पहुंची तो किसानों को जमीन समाधि सत्याग्रह का सहारा लेना पड़ा। हद तो तब हो गई जब जमीन में गड्ढा खोदकर 2 अक्टूबर से अपनी मांगों को शासन तक पहुंचाने की आस में बैठा नींदड़ का किसान सरकार के आने की राह ही ताक रहा है लेकिन राजस्थान की सरकार को राजधानी से महज चंद किलोमीटर दूर भूखे प्यासे किसान की परेशानी समझने और सुनने का वक्त भी ना मिला।

सचिवालय के गलियारों से लेकर पार्टियों के दफ्तर और मुख्यमंत्री व मंत्रियों के घर परिवार जब दिवाली की रोशनी में जगमगा कर शाही वैभव का बखान कर रहे थे। नींदड़ के अंधरे गड्ढों में बैठा किसान राज और राम दोनों से आस लगाए भूखा बैठा रहा। लेकिन ना राम उन तक पहुंचे और ना ही राज।

"जमीन नहीं रहेगी तो हम अपना परिवार कैसे पालेंगे। नेता और मंत्री तो बंगले में रहते हैं। वे हमारी परेशानी क्या समझेंगे। सरकार ने हमारी जमीन की कीमत 30 लाख प्रति बीघा तय की है, जबकि यहां तो अभी 4 करोड़ बीघे जमीन बिक रही है। न तो हमें पैसे मिल रहे हैं और न तो सरकार हमारी जमीन छोड़ रही है। हम इसी गड्ढे में दफन हो जाएंगे, लेकिन यहां से तभी जाएंगे जब सरकार हमारी मांगें मानेगी। " ये कहना है जयपुर, नींदड़ के किसान ह्रदयनारायण झाखड़ (55) की।

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ह्रदयनारायण अपनी खेतिहर जमीन के अधिग्रहण का पिछले 27 दिनों से विरोध कर रहे हैं। वहीं किसान जगदीश कहते हैं " हम अपनी जमीन नहीं देना चाहते। सरकार हमसे कौड़ियों के दाम में जमीन चाहती है। हमारे पास थोड़ी जमीनों के अलावा कुछ भी तो नहीं है। ये भी दे देंगे तो खाएंगे क्या।"

क्या है मामला

जयपुर विकास प्राधिकरण ने नीदड़ गांव की 1350 बीघा जमीन पर आवासीय कॉलोनी विकसित करने की योजना बनाई है। प्राधिकरण ने खेत खाली करने को लेकर किसानों को नोटिस जारी कर दिए हैं। प्राधिकरण किसानों को जो मुआवजा दे रहा है, वह बाजार दर से काफी कम है। किसानों का कहना है कि पहली बात तो वे अपना खेत नहीं खोना चाहते, यदि फिर भी सरकार जमीन लेना चाहती है तो बाजार दर के आधार पर मुआवजा दे। प्राधिकरण अधिकारी इसके लिए तैयार नहीं है। नाराज किसानों ने दो अक्टूबर से जमीन सत्याग्रह (समाधि सत्याग्रह) शुरू किया था। पहले चरण में 22 किसानों ने गड्ढों में बैठकर जमीन समाधि ली थी। अब किसानों की संख्या करीब 1350 पहुंच गई है, इतने ही गड्ढे अब खोदे गए हैं। महिलाएं और बच्चे भी जमीन सत्याग्रह में शामिल हो रही हैं।

27 दिनों से चल रहा जमीन समाधि सत्याग्रह

सत्याग्रह 27 दिन से चल रहा है। धरना स्थल पर शनिवार को किसानों के सैकड़ों बच्चों ने अपनी माता-पिता के साथ गड्ढों में बैठकर जमीन समाधि ली। लोगों ने दीपावली व दूसरे त्योहार भी धरना स्थल पर ही मनाए हैं। सरकार की तरफ से कोई सकारात्मक पहल नहीं की गई है। राज्य के स्वायत्त शासन मंत्री श्रीचंद कृपलानी के विधानसभा सत्र शुरू होने से पूर्व बातचीत के लिए बुलाया, लेकिन मांगों को लेकर कोई सकारात्मक आश्वासन नहीं दिया।

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भू-समाधि आंदोलन से अब बच्चे जुड़ गए हैं।

कौड़ियों के भाव जमीन चाहती है सरकार

नींदड़ की 1350 बीघा जमीन को अधिग्रहण करने की अधिसूचना जयपुर नगर निगम ने 2010 में जारी की थी। तब भूमि अधिग्रहण 1884 के कानून के तहत किया जा रहा था। उस कानून के तहत किसानों को उनकी जमीन के बदले बहुत कम दाम मिल रहा है। मुआवजा 2010 के रेट के अनुसार तय किया गया है। ऐसे में इस समय जिस जमीन की कीमत 3-4 करोड़ प्रति बीघा है सरकार उसे 30 लाख रुपए प्रति बीघा ले रही है।

किसान नेता आैर नींदड़ बचाओ किसान संघर्ष समिति के संयोजक नागेंद्र सिंह ने कहा " सरकार 2010 में हुए सर्वे के अनुसार रेट दे रही वो भी 1894 कानून के तहत। सरकार 30 लाख रुपए प्रति बीघा मुआवजा दे रही है जो कि बहुत कम है। जबकि यहां 4 करोड़ से ज्यादा प्रति बीघा जमीन का रेट है। ऐसे में सरकार किसानों के साथ अन्याय कर रही है। हम कई बार मंत्रियों से गुहार लगा चुके हैं लेकिन सरकार हमारी मांगें मानने को तैयार नहीं है।"

नींदड़ बचाओं युवा किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष कैलाश बोहरा व उपाध्यक्ष गोपाल कुमावत का कहना है कि लोग अपना काम-धंधा व परिवार छोड़ कर 27 दिन से आंदोलन कर रहे है। लेकिन जेडीए व सरकार की हठधर्मिता व कब्जा करने की नीति ने संवेदनहीनता की हदें पार कर दी।

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नागेंद्र सिंह आगे कहते है "किसान अपनी जमीन देना ही नहीं चाहते। कई किसान ऐसे हैं जिनके पास आय का कोई दूसरा साधन नहीं है। वैसे में वे क्या करेंगे। अगर सरकार जमीन अधिग्रहित करेगी तो लगभग 2500 परिवार इससे प्रभावित होंगे। यहां ज्यादातर मजदूर और किसान ही हैं। ऐसे में वे अपनी जमीन किसान को नहीं देना चाहते। जमीन का अधिग्रहण नए कानून के तहत होना चाहिए। 31 मई 2013 को आवास जारी हुआ, लेकिन किसानों ने इसका विरोध किया। कुछ जमीन किसानों ने सरकार को सरेंडर की है, वे भी अब हमारे साथ आंदोलन में हैं। किसान दोबारा सर्वे कराने चाहते हैं। इसके लिए हमारी सरकार के प्रतिनिधियों से बात हुई लेकिन उनका कहना है सर्वे के साथ-साथ हम काम भी शुरू कर देंगे। सरकार किसानों की बात सुन ही नहीं रही।"

इस मामले में जेडीए के डिप्टी कमिश्नर राजकुमार सिंह ने कहा "आंदोलन कर रहे किसान से मंत्री जेडीसी, कलेक्टर व मंत्री स्तर पर 6 बार बात हो चुकी है। लेकिन किसान जिस तरह से सर्वे की बात कर रहे हैं, वह कानूनी व तकनीकी से रूप संभव नहीं है। जायज व संभव मांगें जेडीए व सरकार ने मान ली है। संघर्ष समिति बेवजह आंदोलन व सर्वे की मांग कर रही है। हम कोई भी गलत मांगें पूरी नहीं कर सकते।"

60 वर्षीय किसान बाबूलाल सिंह बातते हैं " मेरे पास तो जीने खाने के लिए यही 7 बीघा जमीन है। ये भी सरकार ले रही है। मेरे बच्चे मजदूरी करते हैं और मैं यहां पशुपालन करता हूं। अब सरकार कह रही है कि जमीन खाली कर दूं। खाली कर दूंगा तो करूंगा क्या ? इससे तो अच्छा है कि आंदोलन करते ही दम निकल जाए, मरना तो बाद में भी है।"

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क्या है भूमि अधिग्रहण विधेयक 1894

यूं तो सालों से भूमि अधिग्रहण का मुद्दा उठता रहा है। किसानों, मजदूरों, मछुआरों के जीवन की नींव रही भूमि को जबरन छीनकर राज्‍य अपना विकास नियोजन आगे बढ़ाता रहा और स्‍वावलंबी श्रमजीवी समाज बराबर उजड़ता रहा। 1984 में अंग्रेजों की ओर से शुरू की गई ये प्रथा 2013 तक चली। 2013 में कांग्रेस की सरकार ने इस प्रथा की शर्तों में कुछ वाजिब बदलाव किया। भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 (The Land Acquisition Act of 1894) भारत और पाकिस्तान दोनों का एक कानून है जिसका उपयोग करके सरकारें निजी भूमि का अधिग्रहण कर सकतीं हैं। इसके लिए सरकार द्वारा भूमि मालिकों को क्षतिपूर्ति (मुआवजा) देना आवश्यक है।

अंग्रेजों के जमाने के इस भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के अनुसार सार्वजनिक उद्देश्य के तहत किसी भी जमीन को बगैर बाजार मूल्य के मुआवजा चुकाए सरकार अधिग्रहण कर सकती है। इसमें 'सार्वजनिक उद्देश्य' की परिभाषा के तहत शैक्षणिक संस्थानों का निर्माण, आवासीय या ग्रामीण परियोजनाओं का विकास शामिल है। भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 में कई कमियाँ थीं। इसमें भू-स्वामी की सहमति के बिना भूमि अधिग्रण करने की कार्रवाई करने, सुनवाई की न्यायोचित व्यवस्था की कमी, विस्थापितों के पुनर्वास एवं पुनर्व्यवस्थापन के प्रावधानों का अभाव, तत्काल अधिग्रहण का दुरुपयोग, भूमि के मुआवजे की कम दरें, मुकदमेबाजी आदि प्रमुख थीं।

किसान नए कानून के तहत जमीन क्यों देना चाहते हैं

2013 में कांग्रेस सरकार ने भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास के लिए विधेयक का जो मसौदा तैयार किया था उसके प्रावधानों के मुताबिक मुआवज़े की राशि शहरी क्षेत्र में निर्धारित बाजार मूल्य के दोगुने से कम नहीं होनी चाहिए जबकि ग्रामीण क्षेत्र में ये राशि बाजार मूल्य के छह गुना से कम नहीं होनी चाहिए।

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भूमि अधिग्रहण तथा पुनर्वास एंव पुनर्स्थापना विधेयक 2011' के मसौदे में इस बात का प्रावधान है कि अगर सरकार निजी कंपनियों के लिए या प्राइवेट पब्लिक भागीदारी के अंतर्गत भूमि का अधिग्रहण करती है तो उसे 80 फ़ीसदी प्रभावित परिवारों की सहमति लेनी होगी। मसौदे में लिखा गया कि सरकार ऐसे भूमि अधिग्रहण पर विचार नहीं करेगी जो या तो निजी परियोजनाओं के लिए निजी कंपनियाँ करना चाहेंगी या फिर जिनमें सार्वजनिक परियोजनाओं के लिए बहु-फसली जमीन लेनी पड़े।

यानी बहु-फ़सली सिंचित भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता। वर्तमान भाजपा सरकार ने भी 2015 में भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास और पुनर्स्‍थापन (संशोधन) अध्‍यादेश, 2015 में संशोधन की मंजूरी दे दी। अधिनियम के प्रावधानों में बदलाव से किसानों को समुचित सरकार की ओर से अनिवार्य रूप से अधिग्रहीत भूमि के बदले में बेहतर मुआवजा, पुनर्वास और पुनर्स्‍थापन लाभ मिलना चाहिए।

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