आंगनबाड़ी कार्यकत्री: नामुमकिन को मुमकिन करती महिला श्रमशक्ति, व्यवस्था को जिसकी परवाह नहीं

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आंगनबाड़ी कार्यकत्री: नामुमकिन को मुमकिन करती महिला श्रमशक्ति, व्यवस्था को जिसकी परवाह नहींमासिक सेक्टर मीटिंग में हिस्सा लेती आंगनबाड़ी कार्यकत्रियां। फोटो: कविता कुरूगंती

मैंने जब ओडिशा की एपीपीआई (अजीम प्रेमजी फिलैन्थ्रोपिक इनिशिएटिव) टीम से पूछा, "आपकी मुलाकात कितनी आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों से हुई?" तो जवाब मिला, "बहुत ज्यादा से नहीं।" टीम के सदस्यों में से बहुतों ने सिर्फ ट्रेनिंग सेंटरों में आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को देखा था। यह टीम ओडिशा में बच्चों के बीच पोषण के स्तर को बेहतर करने में सरकार की मदद के लिए बनाई गई थी।

मेरे हिसाब से अगर हम (एपीपीआई) एक संस्था के तौर पर ऐसे कार्यक्रम की योजना बना रहे हैं जो ओडिशा में लाखों बच्चों की जिंदगी बदल दे, तो उस लिहाज से ऊपर से नीचे की ओर सूचनाओं के प्रवाह का हमारा तरीका ठीक नहीं है। इसकी जगह, क्यों न हम जमीनी हालात के बीच, इस तंत्र के भीतर, आंगनबाडी कार्यकत्रियों के बीच समय बिताएं। पर क्या इससे हमारा नजरिया बदलेगा? क्या उन्हें देखकर हम कुछ बुनियादी बातें सीख पाएंगे, और राज्य में चल रहे पोषण कार्यक्रम से जुड़े नए विचार दे पाएंगे?

आंगनबाड़ी कार्यकत्रियां अपनी सामान्य जिम्मेदारियों के अलावा प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा का दायित्व भी निभाती हैं। फोटो: कविता कुरूगंती

देश में 14 लाख आंगनबाड़ी कार्यकत्री हैं, साल 2018-19 के बजट में इनके लिए 16,335 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। आंगनबाड़ी देश की समेकित बाल विकास परियोजना (आईसीडीएस) का आधार है। आईसीडीएस बाल विकास के लिए समर्पित दुनिया का सबसे बड़ा समुदाय आधारित कार्यक्रम है। ओडिशा में ही 1.30 लाख आंगनवाड़ी कार्यकत्री और आंगनवाड़ी सहायिकाएं हैं।

यह पूरा ढांचा सिर्फ महिलाओं से बना है: आंगनवाड़ी कार्यकत्री, सहायिका, सुपरवाइजर और बाल विकास परियोजना अधिकारी सभी महिलाएं ही हैं। इसके बावजूद राष्ट्रीय और राज्यों के स्तर पर इनकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं हैं, इन महिलाओं का कोई अस्तित्व नहीं हैं वे महज एक संख्या भर हैं।

इस बारे में न तो कोई जानकारी है और न ही जानने की कोई रुचि कि इन महिलाओं को कौन सी बात प्रेरित करती है, उनका जीवन, उनका काम कैसा है, या कि जमीनी स्तर पर काम करने वाले इन कार्यकर्ताओं से बने इतने बड़े ढांचे को गतिमान बनाने के लिए और क्या किया जा सकता है।

हमने फैसला लिया कि हमें क्षेत्र में समय बिताना चाहिए। इसलिए हमने 20 दिन ओडिशा के मुनीगुडा ब्लॉक में गुजारे। यहां 174 आंगनबाड़ी कार्यकत्री और 174 आंगनबाड़ी सहायिकाएं हैं। इन महिलाओं को पहचानना बहुत आसान है, आंगनबाड़ी कार्यकत्री पीले किनारे वाली लाल साड़ी पहनती हैं, जबकि सहायिकाएं सफेद किनारी वाली नीली साड़ियां पहनती हैं।

ब्लॉक में आपको दिन पर ये महिलाएं दिखाई देंगी- सेंटर जाते हुए, वापस घर लौटते हुए। कुछ बसों से जाती हैं, कुछ को उनके पति सेंटर पर छोड़ जाते हैं, कुछ लंबी दूरी तय करके आती हैं और कुछ पास में ही रहती हैं।

सरकार ने इन आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को निश्चित दिशानिर्देश दे रखे हैं- उदाहरण के लिए कोई काम इन्हें दो मिनट में पूरा करना है, दूसरा पांच मिनट में। कुछ खास "दिवस" मनाने के लिए कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। कुछ विशेष दिनों पर बच्चों को खाने में अंडे दिए जाते हैं, किसी दिन उन्हें टीके लगाए जाते हैं, फिर कभी बच्चों का वजन तौलने के लिए उन्हें सेंटर पर लाया जाता है। इसके बाद मीटिंगें होती हैं जिनके लिए उन्हें मीटिंग सेंटरों पर जाना पड़ता है, घर-घर घूमना पड़ता है, गर्भवती और दूध पिलाने वाली माताओं से मिलना पड़ता है। कुल मिलाकर यह एक नामुमकिन सा लगने वाला व्यस्तता का सिलसिला है।

छोटे बच्चों को पढ़ाने के अलावा आंगनबाड़ी कार्यकत्रियां स्वयं सहायता समूहों के गठन और प्रशिक्षण में भी मदद करती हैं। फोटो: कविता कुरूगंती

जैसा इतना ही काफी नहीं था, अब आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को कुछ अतिरिक्त जिम्मेदारियां भी सौंपी गई हैं। इनमें है प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा (ईसीई), इसके अंतर्गत ये छोटे बच्चों को पढ़ाती हैं, इसके अलावा स्वयं सहायता समूहों का गठन और प्रशिक्षण देना। इन दोनों ही कामों के लिए न तो उनकी भर्ती हुई थी और न ही इनका कोई प्रशिक्षण इन्हें मिला है।

आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को अपनी दैनिक गतिविधियां रजिस्टर में दर्ज करनी पड़ती हैं। हर महिला को 13 रजिस्टर साथ लेकर चलना पड़ता है। 50 पेज मोटे इन रजिस्टरों में सैकड़ों आंकड़े दर्ज होते हैं। इनमें बच्चों की ऊंचाई और वजन, उन्होंने कब भोजन लिया, नई मांओं को कब ट्रेनिंग दी गई, प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा, सर्वे और जागरुकता कार्यक्रम से जुड़े आंकड़ों की जानकारी होती है।

हाथों से लिखे हुए इन रजिस्टरों में आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों का जैसे पूरा जीवन समाया होता है। सरकारी व्यवस्था की सौंपी हुई ढेरों भूमिकाओं में उनका प्रदर्शन कैसा रहा, उसका एकमात्र सबूत ये रजिस्टर ही तो हैं। इसके बावजूद उनकी हैसियत महज आंकड़े इकट्ठे करने वाली कर्मचारी से ज्यादा नहीं है। लेकिन सबसे कम पढ़ी-लिखी आंगनबाड़ी कार्यकत्री को भी इनकी अहमियत पता है इसलिए वह इन रजिस्टरों को सहेज कर रखती है। अधिकांश सेंटरों में इन्हें स्टील की अलमारियों में बंद करके रखा जाता है, चूहों की पहुंच से बहुत दूर। जब आप उनसे मिलने जाते हैं तो यही पहली चीज है जो आपको दिखाई जाती है। पूछा जाता है- आप रजिस्टर देखना चाहते हो?

हर महीने एक समूह की सभी आंगनबाड़ी कार्यकत्रियां अपने सेंटर बंद करके मासिक सेक्टर मीटिंग में हिस्सा लेती हैं। इस मीटिंग में महीने भर की समीक्षा की जाती है और अलग-अलग रजिस्टर में लिखे हुए आंकड़ों को इकट्ठा किया जाता है। हर सेक्टर में 30 आंगनबाड़ी कार्यकत्रियां और एक सुपरवाइजर होता है।

इन आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को एक मंथली परफॉर्मेंस रिपोर्ट (एमपीआर) भरनी होती है- इसमें उन्हें अपने रजिस्टरों के आंकड़े एमपीआर फॉर्म में भरने होते हैं। इसके बाद इन्हें जिला कार्यालयों में भेज दिया जाता है। आंकड़ों की मात्रा और इस कार्य की जटिलता को देखते हुए एक दिन की सेक्टर मीटिंग पर्याप्त नहीं है, इसलिए एक प्री-सेक्टर मीटिंग की जाती है जिसमें आंकड़े व्यवस्थित किए जाते हैं।

बच्चों का वजन तौलने के बाद आंगनबाड़ी कार्यकत्रियां इसे रजिस्टर में दर्ज करती हैं। फोटो: कविता कुरूगंती

इन प्री-सेक्टर मीटिंगों में सीखने के लिए बहुत कुछ होता है। हम भारतीय अक्सर ग्रुप स्टडी की चर्चा करते हैं, ये प्री-सेक्टर मीटिंग असल मायनों में ग्रुप स्टडी की ही तरह होती हैं। बड़ा अद्भुत माहौल होता है- लाल और पीली साड़ियां पहने महिलाएं किसी एक सेंटर पर इकट्ठा होती हैं। वे गोल घेरों में बैठती हैं और आपस में खूब चर्चा करती हैं। इनमें से कुछ महिलाएं फॉर्म भरना जानती हैं, कुछ नहीं जानतीं। अलग-अलग समूह, अलग-अलग रजिस्टरों से अलग-अलग फॉर्म भरते हैं। इसलिए आंकड़ों की सटीकता और प्रामाणिकता को लेकर समस्या बनी रहती है।

भुवनेश्वर में, इन आंकड़ों को एक ऐसी समस्या के रूप में देखा जाता है जिनका विश्लेषण नहीं हो सकता, माना जाता है कि इनसे आपको कोई उपयोगी जानकारी नहीं मिलती साथ ही ये सटीक भी नहीं हैं। सत्ता में बैठे लोगों के पास एक समाधान है कि इन्हें कंप्यूटरीकृत डिजिटल आंकड़ों का रूप दे दिया जाए। राष्ट्रीय पोषण मिशन के तहत भी प्रस्तावित समाधान कॉमन एप्लिकेशन सॉफ्टवेयर ही बताया गया है। माना गया है कि यह एक ऐसे डिजिटल मंच के रूप में काम करेगा जिससे कार्यकुशलता बढ़ेगी, चीजों की रियल टाइम मॉनीटरिंग की जा सकेगी और अगली पंक्ति में काम करने वाले कार्यकर्ताओं की मदद हो पाएगी।

प्रस्ताव यह है कि हर आंगनबाड़ी कार्यकत्री को एक टैब दिया जाए जिसमें वह मौके पर ही आंकड़े दर्ज करे। माना जा रहा है कि इससे आंकड़े जुटाने की प्रक्रिया को नियंत्रित किया जा सकेगा ताकि उनकी सटीकता सुनिश्चित की जा सके। उदाहरण के लिए अगर कोई आंगनबाड़ी कार्यकत्री किसी गर्भवती महिला या स्तनपान कराने वाली मां से मिलने जाती है तो आंकड़े दर्ज करने से पहले उसे मां को विडियो दिखाना होगा।

लेकिन इसमें समस्या यह है कि हम जिन महिलाओं से मिले उनमें से अधिकतर को तो सामान्य फोन इस्तेमाल करना भी नहीं आता था, बहुत से बहुत वे फोन पर बात भर कर पाती थीं। लेकिन जब उनसे आईवीआर मेसेज के जरिए "एक दबाने" को कहा गया तो बहुत कम महिलाएं ही ऐसा कर पाईं। ऐसे में स्मार्टफोन और टैब इस्तेमाल करना तो दूर की बात है।

हद से ज्यादा काम, बहुत कम वेतन, राज्य सरकारों की उदासीनता जैसी तमाम अड़चनों के बावजूद आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों की निष्ठा की बात ही कुछ और है। जब वे प्री-सेक्टर मीटिंग के लिए इकट्ठा होती हैं, प्रार्थना करती हैं, गीत गाती हैं उनमें गंभीरता और ईमानदारी झलकती है।

उनसे बातचीत के दौरान हमें लगा कि वे वास्तव में कुछ करना चाहती हैं। अपनी परेशानियों के बारे में वे खुलकर बात करती हैं वहीं वे अपनी कमियों को छिपाने की कोशिश भी नहीं करतीं।

वे प्रतिमाह 6,000 रुपए के वेतन में अनुबंध पर काम कर रही हैं, इनमें से कुछ तो पिछले 30 से 40 साल पहले से यह काम कर रही हैं। यही काम करते-करते वे बुजुर्ग हो गई हैं। हैरानी की बात है इतने समय काम करने के बाद भी उनके बर्ताव में रुखापन नहीं दिखाई देता, बल्कि उनमें बच्चों के प्रति प्रेम और बढ़ा ही है।

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अगर आप इन्हें भुवनेश्वर में बैठे नीति निर्माताओं की नजर से देखेंगे तो आंगनबाड़ी कार्यकत्रियां ऐसे लोग हैं जिन्हें नियंत्रित करना है, जिनका प्रबंधन करना है, जिन पर नजर रखी जानी है, जिन्हें प्रशिक्षण के जरिए अनुशासित बनाना है और जिन से काम कराना है। लेकिन इन्हें कार्यकत्रियों की ऐसी विशाल सेना के रूप में नहीं देखा जाता जिन्हें और बेहतर परिणाम के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

यह एक ऐसा संवर्ग है जिसमें केवल और केवल महिलाएं हैं। आंगनबाड़ी कार्यकत्री, सहायिकाएं, सुपरवाइजर, बाल विकास परियोजना अधिकारी तक सब महिलाएं हैं। एक राष्ट्र के रूप में हमें ऐसे संस्थान पर गर्व होना चाहिए। लेकिन हम इस महिला श्रमशक्ति का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। महिलाओं के बारे में जितनी बातें कही जाती हैं कि वे परिवार, समाज और विकास को लेकर कितनी जिम्मेदार हैं, वे सब यहां साक्षात देखी जा सकती हैं। लेकिन व्यवस्था को इसकी परवाह तक नहीं है।

उन्हें काम करते देख, हमें हैरानी होती है कि उन्हें कुशल बनाने के नाम पर जो पारंपरिक तकनीकी प्रशिक्षण दिया जा रहा है क्या उसकी जगह हमें उन्हें थोड़ा और सम्मान नहीं दे सकते, क्या और मानवीयता से पेश नहीं आ सकते ताकि वे अपने लक्ष्य तक पहुंच सकें।

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क्या उन्हें इतना सक्षम बनाया जा सकता है कि वे अपना लक्ष्य खुद तय कर सकें और उसे एक अपेक्षाकृत खुली व्यवस्था के जरिए लागू करें। यह कोई असंभव काम नहीं है। इन महिलाओं से मिलने पर अहसास होता है कि उन्हें प्रेरित किया जा सकता है। वे जो आज कर रही हैं उन्हें उसी तरह काम करना है। यह मौजूदा दृष्टिकोण से कहीं अधिक प्रभावी होगा जो उन पर थोपा गया है कि वे किसी प्रशिक्षण केंद्र में जाएं, ऐसा करें, इसे सीखें।

आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों के साथ 20 दिन बिताने के बाद हमने कुछ प्रयोग किए। हमारा पहला प्रयोग था आईवीआर प्रणाली का इस्तेमाल। हालांकि यह महिलाओं के लिए थोड़ा मुश्किल साबित हुआ क्योंकि उन्हें "एक दबाएं" जैसे सरल निर्देश को समझने में भी उलझन हो रही थी।

इसके बाद हमें लगा क्यों न हम और सरल और पारंपरिक तरीका इस्तेमाल करें। क्यों न हम मुनीगुडा में एक लोकल कॉल सेंटर स्थापित करें जिसमें दसवीं पास स्थानीय लड़कियां हों। ये लड़कियां हर रोज आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को फोन करके उनसे इकट्ठा किए हुए आंकड़े पूछें और फिर उन्हें दर्ज करें। जैसे आपने आज बच्चों को अंडे दिए? कितने दिए? क्या उनकी माताएं आई थीं? कितने बच्चे आए थे?

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हमें पता है कि इन आंकड़ों की क्वॉलिटी उतनी ही खराब होगी जितनी हाथ से भरे हुए पहले के आंकड़ों की, लेकिन कम से कम ये डिजिटलाइज तो होंगे। ऐसा करने से प्री-सेक्टर मीटिंग में बर्बाद होने वाला समय बचेगा, आंकड़ों का विश्लेषण आसान हो जाएगा और सेक्टर मीटिंग में सही मायनों में आंकड़े सामने आएंगे।

जब हमने इस बारे में आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों से पूछा तो वे "एक दबाएं, दो दबाएं" वाले तरीके की जगह इसे अपनाने में ज्यादा उत्साह दिखा रही थीं।

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दूसरे प्रयोग में हमने हाथ में लिए गए कामों की गुणवत्ता बेहतर करने पर ध्यान केंद्रित किया। जिन कुछ गांवों में हम गए थे वहां एक स्वयंसेवी संगठन था जो शिक्षा दीदी को ट्रेनिंग दे रहा था। ये शिक्षा दीदी आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों की मदद प्रारंभिक बाल्यवस्था शिक्षा में करती थीं। हमें विचार आया कि क्यों न हम एक पोषण दीदी नाम का पद बनाएं जो आंगनबाड़ी केंद्रों के बाहर मांओं और गर्भवती महिलाओं पर अपना ध्यान केंद्रित करे क्योंकि 2 वर्ष तक के बच्चों में कुपोषण के अधिकांश मामले आंगनबाड़ी केंद्रों के बाहर ही पाए गए हैं। इस तरह अगर आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों के पास ऐसा सहयोगी होगा जिसपर वे निगरानी रख पाएंगी, उस सहयोगी का काम करने का रूटीन हो तो उसे दिया हुआ काम दिशानिर्देशों के मुताबिक हो पाएगा।

हमें विश्वास है कि वास्तविक धरातल पर पहुंचकर वहां की परिस्थितियां देखकर, उनसे सीखने का हमारा यह तरीका प्रथम पंक्ति के दूसरे कार्यकर्ताओं जैसे स्वास्थ्य के क्षेत्र में आशा और एएनएम वगैरह पर लागू हो सकता है। इसके अलावा यह कृषि क्षेत्र में छोटे किसानों और शिक्षा में शिक्षकों पर भी काम करेगा। इस तरीके से हम एपीपीआई में पारंपरिक समाधानों की जगह ज्यादा व्यावहारिक समाधान पर विचार कर सकेंगे।

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(इस लेख को अनंथपद्मनाभन गुरूस्वामी और कविता कुरूगंती ने तैयार किया है। अनंथपद्मनाभन गुरूस्वामी अजीम प्रेमजी फिलैन्थ्रोपिक इनिशिएटिव (एपीपीआई) के सीईओ हैं। कविता कुरूगंती एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो किसान अधिकारों के लिए वर्षों से काम कर रही हैं। यह लेख idronline में प्रकाशित हो चुका है।)

      

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