पूर्वोत्तर के मिजोरम और मणिपुर जैसे प्रदेशों के लोगों को कश्मीर या फिर हिमाचल प्रदेश के सेब का इंतजार अब नहीं करना पड़ेगा, क्योंकि अब यहां के किसानों न केवल सेब की खेती शुरू की, बल्कि इस बार अच्छे फल भी आए हैं।
मणिपुर के उखरुल जिले के पोई गाँव की अवुंगशी शिमरे अगस्टीना ने अप्रैल, 2019 में सेब के 55 पौधे लगाए थे, जिनमें इस बार फल भी आने लगे हैं। अगस्टीना गाँव कनेक्शन से बताती हैं, “मैंने साल 2019 में सेब की खेती की ट्रेनिंग ली थी, उसके बाद पालमपुर से सेब के पौधे मंगाकर लगा दिए थे, जो अच्छी तरह से से तैयार हो गए हैं और दो साल में ही फल भी देने लगे हैं।”
अगस्टीना जैसे कई लोगों ने ट्रेनिंग के बाद पौधे लगाए और अच्छा परिणाम भी आया है। पूर्वोत्तर के राज्यों में सेब की खेती को बढ़ावा देने में हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में स्थित सीएसआईआर-हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान का अहम योगदान है। यहां के वैज्ञानिक पिछले कई साल से किसानों को सेब की खेती के लिए प्रेरित कर रहे हैं। मणिपुर के उखरुल और मिजोरम के चम्फाई के किसानों ने सेब की खेती शुरू भी कर दी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने कार्यक्रम मन की बात में मणिपुर में हो रही सेब की खेती का जिक्र किया और अगस्टीना और दूसरे किसानों की तारीफ की।
सेब की खेती शुरू करने के बारे में अगस्टीना कहती हैं, “ट्रेनिंग के बारे में मुझे जानकारी राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व वरिष्ठ सदस्य सोसो शैज़ा से ट्रेनिंग के बारे में जानकारी मिली थी। पहले मैं दिल्ली में एक प्राइवेट कंपनी में जॉब करती थी, लेकिन साल 2016 में दिल्ली छोड़कर वापस मणिपुर आ गई, फिर जब ट्रेनिंग के बारे में पता चला तो लगा कि मुझे भी करना चाहिए। रिजल्ट भी अच्छा आया है, पिछले हफ्ते से ही हमने सेब तोड़ना शुरू कर दिया है। लॉकडाउन के कारण अभी इस बार बाहर नहीं भेज पाए हैं, लेकिन गाँव से बाहर भी लोगों की मांग बढ़ने लगी है।”
नॉर्थ ईस्ट में सेब की खेती की शुरूआत के बारे में सीएसआईआर-हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. राकेश कुमार बताते हैं, “साल 2016 में हमने लो चिलिंग किस्मों के बारे में किसानों को बताया था और उन्हें ट्रेनिंग के बाद पौधे भी उपलब्ध कराए थे। उसके बाद 2020 तक हम हर साल वहां पौधे उपलब्ध कराते रहे हैं। इस समय वहां 100 से ज्यादा जगह पर हमने ड्रेमोस्ट्रेशन प्लाट लगवाए हैं।”
लो चिलिंग किस्मों और दूसरी किस्मों में अंतर समझाते हुए डॉ राकेश कहते हैं, “वहां पर लो चिलिंग वैरायटीज में जैसे अन्ना, डॉरसेट गोल्डन, सन फूजी जैसी किस्मों लगवाई हैं। सेब की जो परंपरागत किस्में हैं, उनके मुकाबले कम चिलिंग ऑवर की जरूरत होती है। जो ट्रेडिशनल वैरायटीज हैं, उनकी चिलिंग ऑवर की जरूरत 1000 से 1500 घंटों की जरूरत होती है, जबकि इन किस्मों की चिलिंग ऑवर की जरूरत 300 से 500 घंटे की ही जरूरत होती है। तो यह किस्में उन इलाकों के लिए सही होती हैं, जहां कम ठंड पड़ती है।”
“अभी मिजोरम में कम से कम दस हजार से ज्यादा पेड़ लगे होंगे। हमने इसे एक पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर शुरू किया था। मिजोरम की जिला ग्रामीण विकास एजेंसी के साथ मिलकर हमने प्रोजेक्ट शुरू किया था। सारी तकनीकि गाइडलाइंस सीआईएसआर की थी, यहीं से पौधे भी उपलब्ध कराए गए थे। पौधे कैसे लगाने हैं, बाग कैसे तैयार करना है, बाद में पौधौं की कैसे देखभाल करनी है, वो सारी चीजे हमने बतायी थी, डॉ राकेश ने बताया।
सीएसआईआर-हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान के निदेशक डॉ. संजय कुमार बताते हैं, “2016 में हमने सबसे पहले वहां के किसानों को सेब की खेती के बारे में बताया था। नॉर्थ ईस्ट में सेब की खेती को बढ़ावा देने के लिए हमने नॉर्थ ईस्टर्न रीजन कम्युनिटी रिसोर्स प्रोजेक्ट (NERCORMP)से ओएमयू किया था, जिसमें किसानों को खेती सारी जानकारी देनी थी। शुरूआत मिजोरम से हुई थी, उसके बाद अब मणिपुर में कई किसानों ने सेब की खेती शुरू कर दी है। इस बार किसानों की बहुत अच्छी फसल भी आयी है।
मिजोरम का चम्फाई और मणिपुर का उखरुल दोनों जिले म्यामार से लगे हुए हैं, यहां पर ज्यादातर क्रिश्चियन आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं। शुरूआत में वैज्ञानिकों को उन्हें ट्रेनिंग देने में काफी परेशानी हुई, क्योंकि बहुत से लोग न हिंदी समझ पाते थे और न ही इंग्लिश। लोग अपनी स्थानीय भाषा बोलते और समझते हैं। ऐसे में जिला उद्यान विभाग और डीआरडीए के लोग साथ में रहते थे।
चम्फाई जिले के सहायक जिला उद्यान अधिकारी के. जोनुनसंगा गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “साल 2016 में हमने ट्रायल शुरू किया था, अच्छा रिजल्ट भी आया है। अभी फल आने लगा है, सीआईएसआर की मदद से ऐसा हो पाया है। अभी जिले में 100 से ज्यादा किसान सेब की खेती से जुड़ गए हैं। आने वाले कुछ साल में यहां भी बाहर से सेब नहीं मंगाना पड़ेगा।”
नॉर्थ ईस्ट में सेब की खेती के फायदे गिनाते हुए डॉ राकेश कहते हैं, “यहां के प्रदेशों में सेब की खेती की अपार संभावनाएं हैं, नहीं तो अभी तक हिमाचल या फिर कश्मीर से सेब जाता हैं, इससे कॉर्बन फुटप्रिंट में कमी आएगी, क्योंकि अगर यहां से सेब नहीं जाएगा तो प्रदूषण में भी कमी आएगी।”
क्या इससे पहले नॉर्थ ईस्ट में सेब की खेती हुई थी, इस बारे में राकेश कहते हैं, “इससे पहले वहां पर सेब की खेती नहीं हुई थी, जब हमने पता करने की कोशिश की तो पता चला कि साल 1992 में एक-दो पौधे लाए थे, लेकिन उनमें फल नहीं लगे थे। सीआईएसआर ने साल 2016 में पहली बार वहां पर सेब लगाने का प्रयास किया और लोगों को नई होप दी की यहां पर भी सेब की खेती हो सकती है। यहां पर ज्यादातर किसान धान की ही खेती करते हैं, इसके साथ ही पाइन एप्पल और केला की खेती करते हैं।”
उखरुल जिले के पोई गाँव की अवुंगशी शिमरे अगस्टीना के बाग के सेबों को देखकर आसपास के दूसरे किसान भी अब सेब की खेती करना चाहते हैं। अगस्टीना कहती हैं, “यहां पर हर कोई मुझसे सेब के बारे में बात कर रहा और पौधे लगाना चाहता है, कई लोगों ने तो अभी से ही सेब की बाग लगाने की तैयारी भी शुरू कर दी है।