अलाव, जहां सर्दियों में किस्से-कहानियों का दौर चला करता था

गाँव में घुसते ही मोहल्ले के नुक्कड़ पर जल रहे अलाव पर लोगों का झुण्ड, देर रात तक किस्से-कहानियों का दौर, भुने आलू और शकरकंद का स्वाद , सर्दियों में मोटे अनाजों के पकवान अब सिर्फ यादों में बचे हैं।

Neetu SinghNeetu Singh   3 Jan 2020 5:24 AM GMT

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कानपुर देहात (उत्तर प्रदेश)। "पहले मोबाइल टीवी नहीं था, तब इन अलावों के आसपास खूब भीड़ रहती थी, अब तो सब रजाई में बैठकर फोन चलाते रहते हैं, किसको फुर्सत है कहानी सुनने की।" अलाव ताप रहे दिनेश कटियार (45 वर्ष) कहते हैं।

आज से पांच छह साल पहले जबतक मोबाईल जैसे उपकरणों की भरमार नहीं थी तब ग्रामीण क्षेत्रों में सर्दी के मौसम में ये अलाव ही मनोरंजन का माध्यम होते थे। इन अलाव पर ठंड से बचने के साथ-साथ कभी किस्से-कहानियां तो कभी लोक संगीत और आल्हा होते। लड़ाई-झगड़े भी यहीं निपटते और एक दूसरे की मदद भी होती। ग्रामीण फसलों की चर्चा के साथ भुने आलू और शकरकंद का लुत्फ भी उठाते।

"छह सात साल से अलाव पर किस्से कहने का सिलसिला न के बराबर बचा है। अलाव सिर्फ ठंड से नहीं बचाता था, ये मनोरंजन का भी एक माध्यम था। यहां पूरे मोहल्ले की मिल जाती थी। अब तो ये नजारा कभी-कभार ही देखने को मिलता है।" दिनेश कटियार कहते हैं। ये कानपुर देहात के निंदापुर गाँव के रहने वाले हैं।

घने कोहरे के बीच सुबह सात बजे अलाव के लिए कुछ लकड़ियां जलाते अस्सी वर्षीय सुदामा प्रसाद अकेला की उंगलियां कांप रही थीं।

'इस ठंड में यह आग ही बुढ़ापे का सहारा है, अलाव पहले भी जलते थे और अब भी, फर्क केवल इतना बचा है कि अब गाँव के नुक्कड़ पर नहीं, अपने दरवाजे पर आग जलाकर ताप लेते हैं।" सुदामा प्रसाद ये कहते हुए अपनी हथेलियों को आग सेंकने में मग्न थे। ये नजारा कानपुर देहात जिला मुख्यालय से लगभग 45 किलोमीटर दूर राजपुर ब्लॉक के नैनपुर गाँव का था।

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अलाव पर आग सेकते अस्सी वर्षीय सुदामा प्रसाद अकेला उनकी पत्नी और दिनेश कटियार

सुदामा प्रसाद की तरह कई दरवाजों पर उस वक़्त आग जल रही थी। हर आग के ढेर पर घर के दो चार लोग बैठे आग से अपनी सर्दी बचा रहे थे। कुछ देर बाद इस अलाव पर आसपास के कुछ और लोग भी जमा हो गये। रिपोर्टर के ये पूछने पर कि क्या पहले भी ऐसे ही अलाव जलते थे? इस पर सुदामा प्रसाद बोले, "अब गाँव में पहले जैसी बात कहाँ बची है? पहले तो रात-रातभर जगकर लोग किस्से-कहानियां सुनते थे। मोहल्ले में एक जगह शाम को सूरज ढलते ही आग जलने लगती थी, धीरे-धीरे लोगों जमावड़ा होने लगता था।"

भारत के गांव में अलाव वो ठिकाना होता है जिसे लोग सर्दी के मौसम में जलाते हैं। सीमित संसाधनों के बीच जीवन गुजार रहे लोगों के लिए ठंड से बचने का अलाव ही एक जरिया होता है। पर पिछले कुछ सालों में बढ़ते आधुनिकीकरण की वजह से नुक्कड़ पर जलने वाले अलाव अब दरवाजों तक सीमित हो गये हैं। अगर किसी के घर में फसल आने से पहले अनाज खत्म हो गया तो उसे खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती, अलाव पर ही बातचीत में कोई न कोई उनकी मदद के लिए तैयार हो जाता था। अब गांवों में भी पहले जैसा भाईचारा नहीं बचा है।

'ये भारत के अन्नदाता ये कैसी बेहाली रे, सारा जग का पेट भरे तू तेरी झोली खाली रे'...अलाव पर बैठे सुदामा प्रसाद अकेला ने खेती-किसानी से जुड़े ऐसे कई लोकगीत सुनाए जो उन्होंने खुद लिखे हैं।

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अभी भी ग्रामीण अलाव तापते हैं लेकिन पहले जैसी भीड़ नहीं रहती

अपने देश में अलाव की धार्मिक मान्यताएं भी हैं। जैसे ओडिशा में अलाव जलाकर अग्नि पूर्णिमा त्योहार मनाया जाता है जो माघ पूर्णिमा के दौरान फरवरी महीने के बीच में पड़ती है। मकर संक्रान्ति से एक दिन पहले सिख समुदाय के लोग लोहड़ी मनाते हैं। पंजाब और हरियाणा जैसे प्रदेश में यह पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है, इसमें भी अलाव ही जलाये जाते हैं। लोग सूखी लकड़ियों को इकट्ठा करके पिरामिड तैयार करते हैं फिर इसकी पूजा होती है। इस अलाव में तिल के दाने के साथ मिठाई, गन्ना, चावल और फल भी डाले जाते हैं। इसके बाद लोग ढोल की थाप पर भांगड़ा और गिद्दा करते हैं।

कुछ दूरी पर एक दूसरे अलाव पर आग ताप रहे कहानीकार राजेश कुमार (55 वर्ष) कहते हैं, "आज से पांच साल पहले तक जब मैं कहानियां सुनाने बैठता तो आस-पड़ोस के बच्चे मुझे घेर कर बैठ जाते थे और घंटों कहानियां सुनते थे। जबसे ये मोबाइल आया है तबसे बच्चे पूरे समय मोबाइल में किट-पिट करते रहते हैं। बच्चों को गेम से फुर्सत नहीं मिलती और बड़ों को व्हाट्सएप और यूट्यूब चलाने से फुर्सत नहीं। अब कहानी सुनने का किसी के पास वक़्त ही नहीं बचा है।"

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ठंड से जानवरों को ऐसे बचाते हैं ग्रामीण

राजेश कुमार की तरह कहानीकार और सुदामा प्रसाद अकेला की तरह लोकगीत और आल्हा गाने वाले पहले हर गाँव में तीन चार लोग होते थे। सर्दियों में ऐसे लोगों की बड़ी पूछ रहती थी। हर कोई इन लोगों को अपने मोहल्ले में जल रहे अलाव पर लेकर जाता था। गाँव में ऐसे लोग हैं तो अभी भी लेकिन अब सुनने वालों की संख्या कम हो गयी है जिसकी मुख्य वजह ग्रामीणों को मोबाईल और टीबी लगती है।

"इन उपकरणों से जितनी हमारी जिन्दगी आसान हुई है उतना ही भाई-चारा कम हुआ है। अब एक साथ लोग अलाव पर देर तक बैठते ही नहीं हैं। पहले कहानी के शौकीन लोग अपने दरवाजे पर लकड़ी का इंतजाम करके अलाव लगवाते थे।" अलाव के ढेर में लकड़ी रखते हुए राजेश कहते हैं, "इन कहानियों में आल्हा, राजा-रानियों की कहानियां, परियों की कहानियां, राजा विक्रमादित्य, पंचतंत्र, चार पाई के चार पाँव जैसी तमाम कहानियां रहती थीं।"

पहले गाँव के नुक्कड़ों पर आग जलाना चलन में था। सर्दी का मौसम शुरू नहीं हुआ अलाव जलने शुरू हो जताए और दो तीन महीने तक जलते रहते। एक अलाव पर तापने वाले हर व्यक्ति की ये जिम्मेदारी रहती वो हर दिन लकड़ियों का इंतजाम करने में सहयोग करे। सभी की मदद से लकड़ी का इंतजाम होता और वो कभी खत्म नहीं होती थी। सर्दी के मौसम में खेतों में जो गर्म चीजें पैदा होती थीं ग्रामीण उसका सेवन ज्यादा करते थे जिससे सर्दी कम लगे।

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अलाव तापती श्रीमती देवी

घने कोहरे के बीच नीम के पेड़ के नीचे सुबह-सुबह आग ताप रहीं 65 वर्षीय श्रीमती देवी कहती हैं, "हमारे जमाने में रात से ही चकिया पीसने लगते। जानवरों के कटिया मशीन से चारा काटते, देर रात खेतों में पानी लगाते। हर आदमी मेहनत का इतना काम करता था कि सर्दी ज्यादा लगती ही नहीं थी। अब तो चाहें जितने कपड़े पहनों चाहें जितना आग तापो पर ठिठुरन नहीं जाती।"

आग से निकल रहे धुएं से आँख में निकले आंसू पोछते हुए श्रीमती देवी बोलीं, "बाजरा, ज्वार, तिल और अलसी के लड्डू, सोंठ का गुड़ जैसी कई गर्म चीजें लोग सर्दी के मौसम बनाते थे। मोटा खाते थे, मोटा पहनते थे तभी सर्दी लगती नहीं थी अब वो बात कहाँ बची।"

ग्रामीण सर्दी के मौसम में रात में सोने के लिए धान से निकलने वाले पुआल को बिछा लेते थे उसके ऊपर बिछौना बिछा लेते जिससे सर्दी कम लगे। घर के सभी लोग इस बिछौने पर सोते थे, कुछ जगह अभी भी यही इंतजाम है। ग्रामीण अभी भी जानवरों को जूट के बोरे पहनाकर उनकी सर्दी बचाते हैं।

कानपुर नगर के चौबेपुर ब्लॉक के निगोहा गाँव में रहने वाले अलाव ताप रहे नौ साल के रूद्र ने बिना अटके शिव स्तुति सुनाई। रूद्र कहते हैं, "जब मैं चार साल का था तबसे मुझे हनुमान चालीसा और शिव स्तुति याद है। हमारे बाबा रात में आग जलाकर हमें बिठा लेते थे, हम वहां से उठे न इसलिए यही सब सुनाकर मन बहलाते रहते थे।" दो साल पहले रूद्र के बाबा नहीं रहे वो उन्हें याद करते हुए कहते हैं, "बाबा को बहुत याद करता हूँ। बाबा के समय जब अलाव जलता था तो जो भी दरवाजे से निकलता उन्हें आग तापने के लिए बुला-बुलाकर बैठाते। पहले हमारे दरवाजे सर्दियों में खूब भीड़ रहती लेकिन अब कोई नहीं आता।"

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रूद्र अपने मम्मी-पापा और बहन के साथ आग तापते हुए

सुबह के आठ बजे चूल्हे पर आलू की कचौड़ी बना रहीं सिद्धन देवी (45 वर्ष) कहती हैं, "सर्दियों भर पहले बथुआ के पराठे, सरसों का साग, मक्का और बाजरा की रोटी यही सब बनता था। तब गरीबी थी तो लोग मन से खाते थे अब के बच्चे तो ये सब खाना पसंद ही नहीं करते।"

"अब लोग लकड़ी जुटाने में मदद ही नहीं करते, पेड़ कम हुए और लकड़ी महंगी हो गयी इसलिए खरीदकर कोई जला नहीं पाता। सबलोग अपने दरवाजे ही लकड़ी का थोड़ा बहुत जुगाड़ कर लेते हैं। अब की पीढ़ी में बर्दाश्त करने की क्षमता ही नहीं बची है। अब अगर अलाव एर कुछ लोग इकट्ठा भी हों तो छोटी-छोटी बातों में लड़ाई-झगड़े होने लगते।" अनिरुद्ध शर्मा (50 वर्ष) कहते हैं। ये कानपुर देहात जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर दूर मैथा ब्लॉक के बैरी दरियाव गाँव के रहने वाले हैं।

सुदामा प्रसाद कहते हैं, "जबसे गाँव के लोग शहर आने लगे तबसे उनमे भी शहर जैसा स्वभाव हो गया है। अब वो अपने से ही मतलब रखते हैं। पहले तो पड़ोसी की तकलीफ अपनी होती थी लेकिन अब लोगों को मतलब ही नहीं। अलाव भी आपस में भाईचारा बढ़ाते थे लेकिन अब वो सब कहाँ है।"


  

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