संसद में पूछा गया, सफाई कर्मचारियों की सैलरी किसान की आमदनी से ज्यादा क्यों, सरकार ने दिया ये जवाब

Arvind ShukklaArvind Shukkla   1 Aug 2017 8:24 PM GMT

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संसद में पूछा गया, सफाई कर्मचारियों की सैलरी किसान की आमदनी से ज्यादा क्यों, सरकार ने दिया ये जवाबकिसान ।

आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक देश के 17 राज्यों में मध्यम वर्ग के किसानों की औसत सालाना आदमनी ही 20000 रुपए से कम है, जबकि एक चपरासी की हर महीने की सैलरी 20 हजार के आसपास है।

नई दिल्ली। लोकसभा में सरकार से सवाल पूछा गया कि देश में सफाईकर्मचारी की सैलरी किसान की आमदनी से कहीं ज्यादा है, ऐसा क्यों। सरकार ने इसका जो जवाब दिया वो किसान नेताओं को नागवार गुजरा है।

लोकसभा में डॉ. सत्यपाल सिंह और सोनाराम चौधरी ने सवाल पूछा कि क्या सरकार इस बात से अवगत है कि पूरे देश में किसानों की आमदनी, सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले सफाई कर्मचारी से कम है। यहां तक कि उत्तर प्रदेश में भी।

इस सवाल के जवाब में केंद्रीय कृषि कल्याण राज्य मंत्री और बीजेपी सांसद एसएस अहलुवालिया ने कहा कि सफाई कर्मचारी और किसान की दैनिक मजदूरी में तुलना नहीं की जा सकती है क्योंकि दोनों का काम अलग है और काम करने का तरीका भी। जबकि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएसओ) की पिछली रिपोर्ट 2012-13 के मुताबिक किसान की मासिक आमदनी 6426 रुपए है। जबकि ये आमदनी 2002-03 में महज 2115 रुपए महीना था। एनएनएसओ हर 10 साल पर किसानों की आमदनी पर सांकेतिक सर्वे करता है। अगला सर्वे 2022-23 में होना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर इसी सर्वे में किसानों की आमदनी दोगुनी होने की बात करते हैं।

लोकसभा में पूछा गया सवाल
दिया गया जवाब

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इतना ही नहीं खुद सरकार के आंकड़ें किसानों की बदहाली की गवाही देते हैं, आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक देश के 17 राज्यों में मध्यम वर्ग के किसानों की औसत सालाना आदमनी ही 20000 रुपए से कम है, जबकि एक चपरासी की सैलरी 20000 रुपए के आसपास है। एनएसएसओ के मुताबिक कृषि सम्पन्न पंजाब में किसान की आमदनी 18059, हरियाणा में 14434 जबकि बिहार में मात्र 3588 रुपए है, पूरे भारत में किसानों की आमदनी 6424 है, इसमें भी सिर्फ कृषि से होने वाली वाली आय निकाली जाए तो वो आधी ही होगी।

देश में किसानों की हालत कितनी बदतर है, ये महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश, यूपी के बुंदेलखंड इलाके से आने वाली रिपोर्ट कहती हैं। आए दिन आत्महत्या और किसानों के पलायन की ख़बरें बताती हैं कि किसानों के लिए खेती से घर चलाना मुश्किल हैं। आत्महत्या का सिलसिला पंजाब में भी शुरू हो गया है।

किसान आय ग्रोथ की सरकारी रिपोर्ट

किसान की आमदनी के सवाल पर पिछले दिनों गांव कनेक्शन की विशेष सीरीज में पूछे गए एक सवाल के जवाब में निर्मल सिंह बरार ने कहा था कि किसानों की आमदनी की बात छोड़िए, उनकी तो फसल की लागत का मूल्य निकालना मुश्किल है।कृषि उत्पादों की उपभोक्ता के स्तर पर कीमत और किसान के स्तर पर लागू कीमत में 50 से 300 प्रतिशत तक का अंतर होता है।” बरार पिछले एक दशक से किसानों की आर्थिक स्थिति पर काम कर रहे हैं।

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देश के जाने माने कृषि पत्रकार और मैग्सेसे अवार्ड विजेता पी साईनाथ कहते हैं, देश में किसान की आमदनी का जरिया बहुत अनिश्चित है, किसी और पेशे से उसकी तुलना करके देखिए समझ में आ जाएगा कि उसकी आमदनी कितनी कम है।“

किसान के दर्द और उसकी आर्थिक स्थिति को समझने के लिए 1980 के दशक में कृषि उत्पादों की तुलना करते हैं, अस्सी के दशक में गेहूं 1 रुपए किलो था और सरकारी दफ्तर के चपरासी की सैलरी 80 रुपए मासिक। आज 2017 में उसी ग्रेड में चपरासी को कम से कम बीस हजार मिलते हैं गेहूं 15-16 रुपए किलो ही बिकता है। किसान के उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी की रफ्तार काफी सुस्त है, यही वजह है कि खुद सरकारी आंकड़ों में देश में किसानों की वार्षिक आय 20 हजार का आंकड़ा नहीं पार कर पाई।

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जिस अनुपात में कृषि के अलावा बाकी सेक्टर में सैलरी और महंगाई बढ़ी किसान का धान, गेहूं, गन्ना और सब्जियों के दाम नहीं बढ़ें। किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए जुलाई के आखिरी हफ्ते में लखनऊ में प्रदर्शन करने पहुंचे हजारों किसानों की अगुवाई करने वाले भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत कहते हैं, “किसानों की हालत इसलिए बदतर है क्योंकि सरकारों की डिक्शनरी में एग्रीकल्चर (कृषि) शब्द है ही नहीं। अगर किसान को कर्ज और गरीबी से निकालना है तो सराकर को चाहिए की राष्ट्रीय स्तर पर कृषि नीति बनाए और हर किसान को प्रति हेक्टयर 25-30 हजार रुपए की सीधी सब्सिडी दे। साथ ही उपज का लाभकारी मूल्य भी मिले।’

दिल्ली में रहने वाली कृषि नीति विश्लेषक रमनदीप सिंह मान भारत में किसान होने को गुनाह बताते हुए कहते हैं, “सरकार जब किसी चपरासी तक की सैलरी तय करती है तो ये मानती है कि उसके ऊपर कम से कम तीन लोग निर्भर हैं ऐसे में उसे इनती सैलरी दी जाए कि वो 2700 कैलोरी वाला खाना खा सके। जबकि किसान के लिए ऐसा कुछ नहीं है। अरे आप सैलरी नहीं दे सकते तो कोई बात नहीं किसान के लिए कम से बीमा की ही व्यवस्था कर दो, कोई तो आमदनी का जरिया हो उसके पास।’

किसानों की आमदनी कैसे बढ़े और इसे लेकर लगातार आवाजे उठ रही हैं। पिछले दिनों में वरिष्ठ कृषि नीति विश्लेषक देविंदर शर्मा की अगुवाई में मध्यप्रदेश में किसान संसद हुई, जिसमें किसान आय आयोग गठन की बात हुई, ताकि हर किसान की एक आय निश्चित किया जा सके।

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सरकार लागत मूल्य से 50 फीसदी ज्यादा लाभ देने की स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को मानने से इंकार कर रही है तो उसे कृषि आय को बढ़ाने के वैकल्पिक तरीके खोजने चाहिए, आखिर किसान अन्न उगाने की सजा क्यों भुगते. क्यों न अमेरिका की तर्ज पर भारत के किसानों के जनधन खातों में बाजार से हुए नुकसान की भरपाई की जाए।
देविंदर शर्मा, कृषि विशेषज्ञ

मध्यप्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक किसान लाभकारी मूल्य की मांग कर रहे हैं, जबकि जानकार बताते हैं, कि सरकार विश्व व्यापार संगठन के दबाव में कृषि की सब्सिडी लगातार खत्म करती जा रही है, ये अलग बात है कि अमेरिका जैसे विकसित देश किसानों को बंपर सब्सिडी दे रहे हैं।

देश में कृषि क्षेत्र के प्रति बढ़ती सरकारी उदासीनता का ही परिणाम है कि देश मे जहां खेतों का आकार घट रहा है वहीं खेती छोड़ने वाले किसानों की संख्या बढ़ रही है। स्टेट ऑफ इंडियन एग्रीकल्चर (2015-16) की रिपोर्ट बताती है कि एक तरफ जहां देश में खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ रहा है वहीं दूसरी तरफ इसका फायदा किसानों को नहीं मिल रहा है। किसान खेती के सहारे घर नहीं चला पा रहे। देश में वर्ष 2001 में जोतों (खेतों) की संख्या 75.41 मिलियन थी जो अब बढ़कर 92.83 हो गई है, छोटे होते खेतों की वजह जनसंख्या का बढ़ना और पारिवारिक विघटन (बंटवारे हैं)

              

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