पश्चिम बंगाल चुनाव 2021: टाटा की नैनो कार परियोजना में गई कई किसानों की जमीन वापस तो मिली लेकिन वह अब बंजर हो चुकी है

टाटा नैनो कार प्रोजेक्ट के लिए अधिग्रहित की गई जमीन किसानों को 2016 में वापस मिल गई। प्रोजेक्ट को 2008 में ही बंद कर दिया गया था। वापस मिली जमीन अब खेती के लायक नहीं है। पश्चिम बंगाल में आठ चरणों में होने वाला मतदान शुरू हो चुका है, इस बीच गाँव कनेक्शन ने सिंगूर के कुछ किसानों से मिला।

Gurvinder SinghGurvinder Singh   27 March 2021 6:30 AM GMT

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हुगली (पश्चिम बंगाल)। सुभाष पाल को तब बड़ा झटका लगा जब वर्ष 2016 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद राज्य की राजधानी कोलकाता से लगभग 45 किलोमीटर दूर पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के सिंगूर में टाटा की नैनो कार परियोजना के लिए अधिग्रहित की गई उनकी दो बीघा (0.26 हेक्टेयर) जमीन वापस कर दी गई। पांच साल बाद भी वह निराश हैं और पछता रहे हैं। कभी खूब उपजाऊ रही उनकी जमीन अब जोतने-बोने योग्य नहीं है।

"मैंने डर की वजह से जमीन दे दिया था क्योंकि तत्कालीन वाम सरकार का बहुत दबाव था। सरकार की नजर में आने के डर से मेरे जैसे कई लोगों ने बिना किसी विरोध के जमीन दे दी," सिंगूर के बरबरी गांव में रहने वाले पाल ने गाँव कनेक्शन को बताया। उनकी तरह सिंगूर के पांच गाँवों के 11,000 से अधिक किसानों ने प्रस्तावित टाटा की नैनो फैक्ट्री के लिए अपनी जमीन दी, जो प्रोजेक्ट कभी शुरू ही नहीं हुआ।

सत्तारूढ़ अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (TMC) 2011 में सिंगूर विरोध प्रदर्शनों के बल पर ही सत्ता में आई थी। प्रदेश के 294 निर्वाचन क्षेत्रों में से सिंगूर भी एक क्षेत्र है जहां 10 अप्रैल को मतदान होने हैं, लेकिन सिंगूर अब बड़ा मुद्दा नहीं है।

मुख्य लड़ाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भारतीय जनता पार्टी और ममता बनर्जी की टीएमसी के बीच है। दो मई को आने वाले चुनाव परिणामों में भाजपा को प्रदेश में मजबूत पैठ बनाने की उम्मीद है।

सिंगूर एक उदाहरण के रूप देखा जा सकता है- औद्योगिक भूमि में परिवर्तित खेतों को एक उग्र संघर्ष और आंदोलन के बाद किसानों को लौटा दिया गया। मुद्दे ने दूसरे देशों का ध्यान खींचा। सिंगूर की वजह से ही पश्चिम बंगाल में 1977 से राज कर रही 34 साल शासन करने वाली वाम सरकार गिर जाती है और ममता बनर्जी 2011 में सत्ता में आ जाती हैं।

किसान सुभाष पाल. सभी तस्वीरें गुरविंदर सिंह

"जब हमें अपनी जमीन वापस मिली तो वह समय हमारे लिए उत्सव जैसा था। हमने खेती फिर से शुरू करने का फैसला किया, लेकिन जमीन देखते ही हमारी उम्मीद खत्म हो गई। एक समय उपजाऊ मिट्टी थी जिस पर हम आलू, धान और जूट की खेती करते थे। लेकिन लोहे की छड़ों और अन्य निर्माण सामग्री के साथ जमीन कंक्रीट वाली जमीन में बदल गई।" पाल ने कहा।

पाल सीमांत किसानों की श्रेणी में आते हैं (एक हेक्टेयर से कम भूमि वाले) और खेत को फिर से खेती लायक बनाने के लिए बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है। "पैदावार अधिक नहीं है। यह एक बड़ा नुकसान है," उन्होंने कहा।

"खेत को जमीन लायक बनाने में लगभग चार साल लग गए। मैंने पिछले साल खेती फिर से शुरू की, लेकिन पैदावार अब पहले जैसी नहीं है," खासर भेरी गाँव के 60 वर्षीय प्रद्युत दास गाँव कनेक्शन से कहते हैं जिन्होंने सिंगूर प्रोजेक्ट में तीन बीघा (0.40 हेक्टेयर) जमीन दी थी। "मुझे दूसरी सब्जयों के अलावा सालाना 1,800 किलोग्राम धान और 2,500 किलोग्राम आलू मिल जाता था। अब पैदावार में 80 फीसदी की गिरावट है। अब खेती करने की इच्छा खत्म हो गई है, " वे आगे कहते हैं।

कोलकाता से दिल्ली को जोड़ने वाले दुर्गापुर एक्सप्रेस-वे के पास स्थित शांत सिंगूर शहर 18 मई 2006 को सुर्खियों में आया। तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने टाटा संस के चेयरपर्सन रतन टाटा के साथ एक संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में घोषणा की कि राज्य सरकार ने सिंगूर में 1 लाख रुपए की छोटी कार परियोजना को हरी झंडी दे दी है और इसके लिए लगभग 1,000 एकड़ (404 हेक्टेयर) जमीन का अधिग्रहण किया जाएगा।

सिंगूर - खेसर भेरी, गोपालनगर, सिंहेर भेरी, बाराबेरी और जोमल्लाह के पाँच गाँवों में फैले लगभग 11,000 किसानों ने टाटा नैनो परियोजना के लिए स्वेच्छा से अपनी जमीन दे दी। किसानों को मुआवजा देने के लिए राज्य सरकार ने भूमि को सली (एक फसल) भूमि और सोना (बहु-फसल) भूमि में बांट दिया।सली मालिकों को एक बीघा (0.13 हेक्टेयर) भूमि के लिए 2.95 लाख रुपए का भुगतान किया गया था, जबकि सोना भूमिधारकों को 4.2 लाख रुपए प्रति बीघा दिया गया था।

हालांकि लगभग 3,000 किसानों ने अपनी जमीन देने से मना कर दिया और यह कहते हुए विरोध किया कि सरकार उन्हें मजबूर कर रही है। 25 मई 2006 को उन्होंने राज्य सरकार पर बलपूर्वक भूमि अधिग्रहण का आरोप लगाते हुए सिंगूर में बड़े स्तर पर आंदोलन शुरू कर दिया।

सात महीने बाद तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी ने कोलकाता में भूख हड़ताल शुरू कर दी जो 26 दिनों तक चली। लंबे समय तक आंदोलन से नाखुश टाटा ने आखिरकार अक्टूबर 2008 में इस परियोजना को छोड़ दिया। इस समय तक सिंगूर में कारखाने पर काम लगभग पूरा हो गया था।

मूल रूप में नहीं मिली जमीन

बलपूर्वक भूमि अधिग्रहण से संबंधित मामला अदालतों में चला गया और आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने 31 अगस्त 2016 को अपने फैसले में सिंगूर में 997 एकड़ (403 हेक्टेयर) भूमि के अधिग्रहण को अवैध करार देते हुए सरकार को 12 सप्ताह में किसानों को जमीन वापस करने का निर्देश दिया।

जिन किसानों को उनकी जमीन वापस मिल गई, उन्होंने दावा किया कि सरकार ने आश्वासन दिया था कि जमीन को उसके मूल रूप में वापस कर दिया जाएगा, लेकिन वादा नहीं निभाया गया।

सनत दास कहते हैं कि नेताओं ने अपना वादा नहीं निभाया

खेसर भेरी के निवासी 43 वर्षीय सनत दास उन लोगों में शामिल थे जो अपनी जमीन देना चाहते थे, वे अपनी सात बीघा (लगभग एक हेक्टेयर) जमीन छोड़ने वाले थे। ओस कहते हैं कि क्योंकि वे एक उद्योग चाहते थे जिससे अधिक रोजगार पैदा होते।

वे कहते हैं, 'हमने बिना किसी दबाव के जमीन छोड़ दी क्योंकि हम यहां उद्योग स्थापित करना चाहते थे। हम कई घंटों के लिए खेत में कठिन परिश्रम के बजाय एक अच्छी नौकरी चाहते थे।" लेकिन, उन्होंने कहा कि नेताओं, जिन्होंने उपजाऊ भूमि वापस करने का वादा किया था, ने उन्हें धोखा दिया। इस खेत को वापस खेतीहर जमीन बनाने में कम से कम पचास हजार रुपए बीघा की जरूरत थी। हमें इसे खेती लायक बनाने के लिए पैसे उधार लेने पड़े।"

यह जमीन कभी सिंगूर प्रोजेक्ट के लिए दी गई थी.

किसानों ने बताया कि पैसा खर्च करने के बावजूद जमीन अब पहले जैसी नहीं रही।

सिंगूर एक दशक पहले भूस्वामियों के लिए सोने की खान में बदल गया था, क्योंकि जमीन की कीमतों में टाटा के आने के साथ काफी तेजी से बढ़ोतरी हुई थी। एक बार जब परियोजना रद्द हो गई तब जमीन की कीमतें बहुत तेजी से कम हो गईं। दुर्गापुर एक्सप्रेसवे के आसपास के एक क्षेत्र में अभी भी जमीन की कीमत अच्छी है लेकिन अंदरूनी हिस्सों में कोई मांग नहीं है।

टाटा के बाहर निकलने और उनकी जमीन की हालत को लेकर किसानों में भारी गुस्सा और आक्रोश है। "यह अब एक बंजर भूमि है। हम खरीदारों का इंतजार कर रहे हैं ताकि हमें अच्छी कीमत मिल सके। हमें अपनी जमीन बेचकर खुशी होगी। हम अब राजनेताओं के लिए मुद्दा नहीं हैं जिन्होंने बस अपना फायदा देखा और हमारे लिए कुछ नहीं किया। हम यहां उद्योग के लिए तैयार हैं।" प्रद्युत दास कहते हैं।

टीएमसी ने अपने विधायक को नहीं दिया टिकट

युवा पीढ़ी और मध्यम आयु वर्ग की पीढ़ी जिन्होंने अपने सपने टाटा फैक्ट्री के इर्द-गिर्द बनाए थे, उनका मोहभंग हो चुका है। "मेरे जैसे सैकड़ों युवाओं को काम बंद होने से पहले ही टाटा संस ने भर्ती कर लिया था। हमें लगभग बारह हजार रुपए महीने का शुरुआती वेतन मिल रहा था, जो 2008 में एक बड़ी बात थी। अब सब कुछ खत्म हो गया है। मैं कोलकाता में एक निजी कंपनी में अकाउंटेंट के रूप में काम करता हूँ और मैं 10 हजार रुपए कमाता हूँ," 35 वर्षीय सुब्रत घोष ने गाँव कनेक्शन को बताया।

सत्तारूढ़ तृणमूल पार्टी को भी लगता है कि जमीनी स्तर पर जनता के मूड का पता चल गया है। पार्टी ने सिंगूर के अपने चार बार के विधायक रवींद्रनाथ भट्टाचार्य को टिकट देने से इनकार कर दिया है, जो बुढ़ापे का हवाला देते हुए 2001 से जीत रहे हैं।

सिंगूर के ग्रामीण

हालांकि इस राजनीतिक दिग्गज ने पार्टी बदल दिया और भाजपा से उसी सीट के लिए टिकट हासिल कर लिया। उन्होंने भ्रष्टाचार और कम काम के लिए पंचायत अधिकारियों को दोषी ठहराया, "यह सच है कि अधिकांश भूमि को खेती के लायक बनाया जाना बाकी है। स्थानीय पंचायत स्तर में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हुआ है। यहां तक कि फैक्ट्री से सामान भी चोरी हो गया। मामले को पुलिस के सामने लाया गया लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।"

हालांकि, सिंगूर से तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार बेचारम मन्ना ने कहा कि ज्यादातर जमीन पहले से ही खेती योग्य हो चुकी हैं, "हम अब तक नब्बे प्रतिशत भूमि को खेती में वापस लाने में कामयाब रहे हैं। हम किसानों को समर्थन दे रहे हैं। भाजपा राज्य सरकार को उद्योग विरोधी के रूप में दिखाने करने की कोशिश कर रही है।"

हालांकि, राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस बार सत्तारूढ़ तृणमूल के लिए एक कड़ी लड़ाई होगी, "इस गुस्से का अंदाजा ऐसे लगाया जा सकता है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी सिंगूर विधानसभा सीट पर 10,000 से अधिक वोटों से पीछे हो गई थी जब भाजपा के लॉकेट चटर्जी ने हुगली को जीता था," कोलकाता स्थित वरिष्ठ पत्रकार सुवाशीष मित्रा कहते हैं।

"हर चुनाव अलग होता है, लेकिन यह लड़ाई आसान नहीं होगी- खासकर तब जब सत्ताधारी दल एक दशक पहले सिंगूर से घ पहली बार सत्ता में आए थे," मित्रा ने आगे कहा।

अनुवाद- संतोष कुमार

इस खबर को अंग्रेजी में यहां पढ़ें-

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