भोपाल गैस कांड : 'वो हादसा जो कभी खत्म नहीं हुआ, डेढ़ लाख लोग आज भी बीमार'

भोपाल गैस त्रासदी, एक हादसा जिसने हजारों लोगों की जानें ले लीं और कई हजार लोगों की जिंदगी बर्बाद कर दी। ये एक ऐसी घटना थी, जो घटी तो एक बाद लेकिन उसके दर्द 35वें साल में भी लोग महसूस करते हैं.. सैकड़ों परिवारों को रोज ये हादसा दुख देकर जाता है Bhopal gas tragedy

Manish MishraManish Mishra   2 Dec 2019 7:27 AM GMT

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भोपाल (मध्य प्रदेश)। "दुनिया का सबसे बड़ा औद्योगिक हादसा भोपाल गैस कांड सिर्फ 02 दिसंबर-1984 को ही नहीं हुआ, बल्कि कई तरह से आज भी जारी है," गैस पीड़ितों के हक की लड़ाई लड़ रहीं रचना ढींगरा ने कहा।

यूनियन कार्बाइड से निकली गैस ने हजारों की जान ले ली लेकिन जो उसके शिकार हुए और बच गए उनकी जिंदगी मौत से बदतर हो गई। तमाम तरह की बीमारियों ने उन्हें घेर लिया। न कमाई का जरिया, न ही सरकार या कंपनी से उचित मुआवजा।

"आज भी डेढ़ लाख गैस पीड़ित होंगे जो गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं, कई बच्चे हैं जिनके मां-बाप को गैस लगी और बच्चे बीमारियां झेल रहे हैं," सामाजिक कार्यकर्ता रचना ढींगरा ने बताया।

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माँ-बाप की पूरी ज़िंदगी दवाएं खाते-खाते बीत गई, जबकि बच्चे भी कई बीमारयों से ग्रसित हें। वर्ष 1975 से झुग्गी बनाकर रहने वाली ओमवती के दर्द का अंदाजा ऐसे लगा सकते हैं कि कमाई का जरिया है नहीं और दोनों पोते विकलांग हैं।

"हमारा पूरा परिवार गैस पीड़ित है, जब गैस निकली तो परिवार में 10 लोग मौजूद थे, हमारे दो पोते अमन और विकास लाश की तरह घर में पड़े हैँ। उससे छोटे दो परिवार के बच्चे हैं उनके दिल में छेद है, सरकार ने 25-25 हजार रुपये मुआवजा दिया, बच्चों की जांचें नहीं हो पा रही हैं," ओमवती ने कहा।

लोगों की ज़िंदगियों की बेपरवाही का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब यूनियन कर्बाइड फैक्ट्री की नींव पड़ने की बात आई तो भोपाल नगर निगम ने घनी आबादी क्षेत्र होने के कारण उस स्थापित करने का अप्रूवल देने से मना कर दिया। लेकिन केंद्र सरकार का दबाव होने से कारण फैक्ट्री को उसी घने क्षेत्र में स्थापित करना पड़ा। इस बारे में वर्ष 1986 में मोरहाउस और सुब्रमण्यम ने एक रिसर्च पेपर में लिखा।

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ओमवती आगे बताती हैं, "अभी तक ज़िंदगी की लड़ाई लड़ रहे थे, अब मौत की लड़ाई पर आ गए हैं। अस्पतालों में जाते हैं तो महंगी दवाई काउंटर पर मिलती ही नहीं। काउंटर पर दस में से चार ही मिल पाती हैं। एक चाहे एक दवाई रजिस्टर में और पर्चे पर लिख देते हैं लेकिन वह काउंटर पर मिलती ही नहीं। जो मर गए वो गए उन्होंने पैसा नहीं खाया, जिसने खाया उसने खाया, लेकिन हम क्या करें, कहां जाएं?"

इन गैस पीड़ितों की दूसरी जो लड़ाई है उनके अस्तित्व और ज़िंदगी की। हादसे के बाद कई समाजिक संगठनों का आरोप है कि वहां के पीने के पानी में खतरनाक रसायन घुल गए। यह जहरीला पानी लोग अनजाने में पीते रहे।

"दूसरा हादसा इस शहर में हुआ है जिसे न लोग जानते हैं न समझते हैं, वह है प्रदूषण का हादसा। वर्ष 1972 से लेकर 1984 तक जब तक फैक्ट्री थी, तो उस दौरान टनों कचरा फैक्ट्री के अंदर और फैक्ट्री के बाहर दबा दिया गया। भू-जल में इस तरह के केमिकल पाए गए हैं। ऐसे लाखों लोगों का पीने का पानी दूषित है," रचना ढींगरा ने बताया।

भोपाल हादसे के 17 साल बाद पर्यावरण पर काम करने वाली संस्था ग्रीन पीस ने एक स्टडी की। इसके अनुसार पीने के पानी के जहरीला होने, मिट्टी खराब होने से समस्या मौजूदा समय में होने के साथ-साथ आगे की पीढ़ियों को खराब करेगी।

"ये जो डेढ़ लाख लोग गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं, उनकी गिनती कहीं भी नहीं है, यह भी देखने की कोशिश नहीं हो रही कि उनके स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ रहा है? हालांकि साफ पानी की व्यवस्था हुई, लेकिन समस्या दूर नहीं हुई," रचना ढींगरा ने बताया, "अभी तक ये हालात यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से चार किमी दूरी तक हैं, लेकिन उसके बाद और फैलेगा। नए लोगों को गिरफ्त में लेगा।"

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