जैविक खेती के लिए देश भर में मिसाल बन रहा है जैविक ग्राम केड़िया

इस गांव की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यहां के किसान रासायनिक खाद और कीटनाशकों से मिट्टी और पर्यावरण को होने वाले नुकसान के प्रति जागरुक हुए हैं और दूसरों को भी जागरुक करने में लगे हैं।

Daya SagarDaya Sagar   1 Nov 2019 5:09 AM GMT

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"कोई भी आदमी जहर खाना नहीं पसंद करेगा। जैविक खेती से सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि गांव के लोगों को केमिकल मुक्त पौष्टिक खाना मिलने लगा है। इस खेती से बचत भी अच्छी हो जाती है।"

बिहार के पहले जैविक गांव केड़िया के किसान सुमंत कुमार (42 वर्ष) गांव कनेक्शन को जैविक खेती के फायदे बताते हैं। सुमंत कुमार पिछले पांच सालों से जैविक खेती कर रहे हैं। शुरुआत की पहली फसल को छोड़ दिया जाए तो सुमंत कुमार को जैविक खेती से फायदा ही हुआ है। लागत 80 फीसदी तक घट गई है और उपज 100 से 110 फीसदी तक हो रहा है।

लगभग 100 परिवार वाले इस गांव में 50 से अधिक किसान परिवार जैविक खेती करते हैं, जिसमें रासायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग शून्य होता है। यहां के 45 एकड़ जमीन पर जैविक खेती हो रही है। जो परिवार जैविक खेती नहीं कर रहे हैं, वे भी धीरे-धीरे अब जैविक खेती की तरफ बढ़ रहे हैं। इसके अलावा आस-पास के गांवों के लोग भी केड़िया गांव के किसानों को देखकर जैविक खेती अपना रहे हैं।

सुमंत कुमार ने बताया कि जैविक खेती का लाभ समझने के लिए उनके गांव के लोगों को पूरे देश से बुलावा आता है। इसके अलावा देश और विदेश से लोग उनके गांव को देखने-समझने आते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि केड़िया गांव की फसलों, सब्जियों और फलों की अलग से पहचान भी होने लगी है और स्थानीय बाजार में उसके अच्छे दाम भी मिलने लगे हैं।

केड़िया में आयोजित 'जश्न-ए-जैविक' मेले में गांव के लोगों ने जैविक खेती से उत्पादित अनाजो, फलों और सब्जियों का प्रदर्शन किया।

बिहार के जमुई जिला मुख्यालय से लगभग 20 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित इस गांव की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यहां के किसान रासायनिक खाद और कीटनाशकों से मिट्टी और पर्यावरण को होने वाले नुकसान के प्रति जागरुक हुए हैं और दूसरों को भी जागरुक करने में लगे हैं।

अभी तक जैविक खेती नहीं शुरु कर पाए गांव के विजय यादव (48 वर्ष) कहते हैं, "जैविक खेती से मिट्टी की रक्षा होती है जबकि रासायनिक खेती से मिट्टी जल जाती है। अगर मिट्टी को बचाना है तो जैविक खेती को अपनाना ही होगा।" विजय ने बताया कि सरकार से मिले आर्थिक सहयोग के बाद वह भी इस बार से जैविक खेती शुरु करेंगे।

यह गांव पिछले दिनों सुर्खियों में तब आया जब यहां पर 'जश्न-ए-जैविक' नाम से एक कृषि मेले का आयोजन किया गया। गांव वालों द्वारा आयोजित इस मेले में बिहार के कृषि मंत्री प्रेम कुमार सहित राज्य के कई बड़े कृषि अधिकारी, देश-विदेश के पर्यावरण प्रेमी और आस-पास के गांवों के हजारों किसान शामिल हुए।

राज्य के कृषि मंत्री प्रेम कुमार ने इस आयोजन में शामिल होते हुए कहा, "जमुई का जैविक कृषि मॉडल धीरे-धीरे पूरा बिहार अपनाने जा रहा है। इसके लिए राज्य और केंद्र सरकार से भी किसानों को पर्याप्त सहयोग मिल रहा है। 2016 में राज्य सरकार ने गंगा के किनारे के 12 जिलों में 'जैविक कोरिडोर' बनाते हुए जैविक खेती की विस्तार की बात की थी। तीन साल में राज्य के 3500 हेक्टेयर जमीन पर जैविक खेती का प्रसार हुआ है।"


केड़िया गांव के किसानों ने जैविक खेती पर चर्चा करने के लिए 'जैविक माटी किसान समिति' नाम से एक समूह बनाया है। गांव के युवा सुनील कुमार (26 वर्ष) कहते हैं कि इस समूह का नाम ही 'जैविक माटी (Living Soil)' है, जिसका मतलब है कि हमें अपनी मिट्टी को जिंदा रखना है।

सुनील बताते हैं कि इस समिति की मीटिंग्स में जिले के आला कृषि अधिकारी और ग्रीनपीस संस्था के स्वयंसेवी भी आते हैं और जैविक खेती करने के नए-नए तरीकों को किसानों से साझा करते हैं।

केड़िया गांव के किसान जैविक खाद के साथ ही खेत में कीड़े लगने पर जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं। उन्होंने अलग-अलग तरह के कीटनाशकों को बीजामृत, जीवामृत, नीमास्त्र और अमृत पानी का नाम दिया है, जो कि वे गोबर, नीम, मिट्टी, गुड़, बेसन, पीपल आदि से घर पर ही तैयार होते हैं और जिनकी लागत भी ना के बराबर आती है।

गांव के उपेंद्र यादव (45 वर्ष) बताते हैं, "इस गांव में 3000 से अधिक देसी गायें हैं, जिसकी वजह से गांव वालों को जैविक खेती अपनाने में आसानी हुई। देसी गाय का गोबर जैविक खेती के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है। इससे वर्मी कम्पोस्ट, जैविक खाद के अलावा कई प्रकार के जैविक कीटनाशक बनते हैं और फसलों की सुरक्षा होती है। इस गाय के गोबर का उपयोग बायोगैस बनाने में भी होता है, जिससे ऊर्जा की बचत होती है और घर की रसोई बिना धुएं के आसानी से पकती है।"

केड़िया के एक घर में बना पशु शेड और गायें। जैविक खेती में गायों का विशेष महत्व है।

केड़िया गांव में किसानों के बीच जैविक खेती का प्रचार-प्रसार करने वाली संस्था ग्रीनपीस के इश्तियाक अहमद ने बताया कि ग्रीनपीस ने किसानों और सरकार के बीच में बस एक पुल का काम किया। वह कहते हैं, "मनरेगा, स्वच्छ भारत मिशन, जैविक कृषि योजना सहित केंद्र और राज्य सरकार की तमाम सरकारी योजनाएं हैं, जिसकी मदद से केड़िया गांव में जैविक खेती को संभव और आसान बनाया गया। इन योजनाओं से वर्मी कम्पोस्ट बेड, पशु शेड, बायोगैस प्लांट, इकोसैन टॉयलेट, कुओं सहित कई मूलभूत ढाचों के विकसित करने में मदद मिली, जो कि जैविक खेती में बहुत जरुरी है।"

केड़िया गांव में सरकार के सहयोग और सब्सिडी से अब तक 250 से अधिक वर्मी बेड, 22 बायोगैस प्लांट, 40 कुएं, पशुओं के लिए 15 सीमेंटेड शेड और 20 इकोसैन शौचालय बनाए गए हैं। कृषि विभाग इन्हें स्थापित करने के लिए कुल लागत का 50 फीसदी सब्सिडी किसानों को देता है।

केड़िया के घरों में ऐसे वर्मी बेड आसानी से देखे जा सकते हैं

जैविक खेती के अपने लाभ हैं तो अपनी सीमाएं भी। गाय के मामले में भी यही बात साबित होती है। केड़िया गांव में हमें कुछ किसान ऐसे भी मिलें जिनके पास सिर्फ एक या दो गायें हैं और वे इसी वजह से जैविक खेती नहीं कर पाते हैं।

अपने खेत में कटाई का काम कर रही गांव की पिंकी देवी बताती हैं कि उनके पास सिर्फ एक गाय है इसलिए वह जैविक खेती नहीं कर पाती हैं। कहती हैं कि गरीबी की वजह से वह गाय नहीं खरीद पा रही। उनके पास एक सवाल भी है, "जिनके पास मवेशी नहीं हैं, वे जैविक खेती कैसे करेंगे?"

हालांकि किसान सुमंत कहते हैं कि गांव में ऐसे लोगों की संख्या काफी कम है जिनके पास 8 या 10 गाय ना हो। वह आगे बताते हैं, "इकोसैन शौचालय की मदद से हम इंसान के मल-मूत्र का भी उपयोग खाद बनाने में करते हैं। खेत से हम अन्न उपजाते हैं, उसे खाते हैं और उसे फिर से खेत को ही वापिस दे देते हैं।"

इकोसैन शौचालय की विशेषता बताते हुए सुमंत कहते हैं, "आदमी का मल-मूत्र सबसे अधिक उर्वरा शक्ति लिए होता है, इसलिए हम इकोसैन शौचालय का प्रयोग करते हैं। इसमें दो अलग-अलग टंकियों में मानव के मल-मूत्र को संरक्षित किया जाता है। सफाई के लिए पानी की जगह राख और मिट्टी टंकियों में डाला जाता है। एक साल बाद यह खाद बनकर तैयार हो जाता है, जिसे हम टंकियों से निकाल कर खेतों में प्रयोग करते हैं।"

हालांकि जमुई गांव में कई ऐसे घर भी मिले, जो जैविक खेती तो करते हैं लेकिन उनके यहां इकोसैन शौचालय नहीं है। पूछने पर उपेंद्र यादव कहते हैं कि धीरे-धीरे हमने जैविक खेती को अपनाया, इसी तरह हम इकोसैन शौचालय को भी अपना लेंगे। फिलहाल गांव के 100 घरों में से सिर्फ 20 में इकोसैन शौचालय है।

सुमंत गांव कनेक्शन को बताते हैं कि जैविक खेती करने से ना सिर्फ खेतों की उर्वरा शक्ति मजबूत हुई है बल्कि गांव का जल स्तर भी सुधरा है। वह कहते हैं, "जमुई जिले में ही कई जगहों पर 200 से 250 फीट पर पानी आता है लेकिन केड़िया में आपको 20 से 25 फीट पर पानी मिल जाएगा। हमारे गांव में 40 से अधिक कुएं हैं, जिनसे हमें सिंचाई में सुविधा होती है और बोरवेल की भी जरुरत नहीं पड़ती।"

केड़िया गांव में जगह-जगह पर कुएं भी बनवाए गए हैं, जिससे सिंचाई में मदद मिलती है। गांव के लोगों ने सरकार द्वारा बोरवेल कराने से इनकार कर दिया था।

जैविक खेती का पूरा गणित समझाते हुए गांव के सतेंद्र यादव कहते हैं, "एक एकड़ की फसल में पहले 5 से 6 हजार की लागत आती थी। इसके अलावा सिंचाई का खर्चा अलग से आता था। लेकिन जैविक खेती करने के बाद यह लागत एक से दो हजार रुपये में सिमट गई। सिंचाई में भी जहां पहले चार बार खेत में पानी देना पड़ता था, वहीं जैविक खेती में सिर्फ दो या तीन बार ही पानी देना पड़ता है। इससे सिंचाई की लागत भी कम आती है। कीड़े कम लगते हैं, तो कीटनाशक का पैसा भी बच जाता है।"

दूसरे गांवों के लोग भी हो रहे हैं प्रभावित

केड़िया से 20 किलोमीटर दूर स्थित गांव डुमरकोला के निरंजन कुमार कहते हैं कि उनके गांव के लोग केड़िया के किसानों से सीखकर जैविक खेती को अपना रहे हैं। उन्होंने बताया, "डुमरकोला गांव के 30 किसान एक समिति बनाकर बीते एक साल से 30 एकड़ में जैविक खेती कर रहे हैं और लाभ कमा रहे हैं। इससे जमीन बंजर होने से बच रही है।"

कुछ ऐसी ही बात पड़ोसी गांव के किसान रतन यादव (64 वर्ष) भी कहते हैं, जिनके गांव में दस लोगों ने हाल ही में जैविक खेती शुरु की है।

केड़िया के किसान सतेंद्र यादव कहते हैं, "जैविक खेती में लागत कम मेहनत अधिक है। अगर आप मेहनत करेंगे तो जरुर सफल होंगे।"


    

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