बाढ़ की तस्वीरों को देखकर इग्नोर करने वाले शहरी हिंदुस्तानियों देखिए, बाढ़ में जीना क्या होता है 

Mithilesh DharMithilesh Dhar   29 Aug 2017 1:22 PM GMT

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बाढ़ की तस्वीरों को  देखकर इग्नोर करने वाले शहरी हिंदुस्तानियों देखिए, बाढ़ में जीना क्या  होता है बिहार के सीतामढ़ी में सुरक्षित स्थानों पर जाते लोग। (फोटो-आईएनएस)

आप अंदाजा लगाइए, घर के बाहर जब बरसात के दिनों में भी आधा फिट पानी भरता है, या बारिश के चलते ट्रैफिक में फंसते हैं क्या हाल होता है आपका। तो उनके बारे में सोचिए जो कई महीने पानी के बीच दहशत में बिताते हैं।

पटना/लखनऊ। दूर-दूर तक फैले पानी के बीच डूबे हुए खेत, घर की छत और पेड़ पर सहारा लिए बैठे कई ग्रामीण। पानी के सैलाब में अपना कुछ जरूरी सामान बचाने के लिए केले के तनों पर तैरता आदमी, ऐसी तस्वीरें आप आजकल फेसबुक और ट्वीटर और टीवी टीवी पर खूब देख रहे होंगे। ये देश के बाढ़ ग्रस्त इलाकों की विभिषिका है।

इन तस्वीरों को देखकर आप थोड़ी देर के लिए परेशान होंते होंगे ना, शायद दया आती होगी और सरकारी तंत्र पर गुस्सा भी आता होगा, लेकिन थोड़ा ठहर कर सोचिए बिहार और असम और उन तमाम राज्यों के बारे जो दशकों से ये बाढ़ झेलते आएं, वो बाढ़ जो उनके लिए तबाही लेकर आती है, बर्बादी लेकर आती है।

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बिहार इन दिनों भीषण बाढ़ की चपेट में है। 13 जिलों के करीब 70 लाख लोग प्रभावित हैं। सैकड़ों लोग जान गंवा चुके हैं, जो लाखों लोगों का घर-जमीन, खेत-खलिहान सब पानी में समा चुके हैं। अगर आप वायरल होती इन तस्वीरों को थोड़ा ठहर कर देखेंगे तो उन पथराई और उदास आंखों में बेबसी साफ नजर आएगी। अगर आप ने बिहार मे कोसी इलाके और असम में ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे रहने वाले किसी पीड़ित से बाढ़ की त्रासदी पूछ ली तो आप समझ जाएंगे कि आप और हम नदियों से दूर गांव, कस्बों या शहर में रहने वाले लोग कितने खुशनसीब हैं।

बिहार के पूर्णिया में हालात ठीक नहीं हैं। कोसी और महानंदा के पानी ने यहां तांडव मचा रखा है। पूर्णिया शहर से 40 किमी दूर का क्षेत्र पूरी तरह डूब चुका है। शहर में अपना क्लीनिक चला रहे डॉ नसीम कहते हैं "पहली बारिश के साथ ही गाँवों में रात दिन-बांस कटने लगते हैं। मचान बनाने की तैयारी शुरू हो जाती हैं। खाने के ऐसे सामान जो ज्यादा दिनों तक खराब न हों, उसको जुटाने लगते हैं, ताकि पानी आए तो मुश्किल दिनों में वो काम आ सके।” डॉ नसीम का घर अक्षयपुर में है और इस वक्त उनके घर में करीब 4 हजार लोग रुके हैं। वो बताते हैं, घर और गांव में अब खाने का कुछ सामान नहीं बचा है।” नसीम का घर इन दिनों धर्मशाला से कहीं ज्यादा है।

अब आप अंदाजा लगाइए, घर के बाहर जब बरसात के दिनों में भी आधा फिट पानी भरता है, या बारिश के चलते ट्रैफिक में फंसते हैं क्या हाल होता है आपका। तो उनके बारे में सोचिए जो कई महीने पानी के बीच दहशत में बिताते हैं। कोसी, गंढक और महानंदा जैसी नदिया हर साल अरबों रुपए की संपत्ति को नुकसान पहुंचाती हैं और बिहार को गरीबी की गर्त में ढकेल देती हैं।

ये बाढ़ नहीं प्रलय है। 1987 के बाद ऐसी बाढ़ आई है। हमारे बिहार के लोग बाढ़ के साथ जीना सीख गए हैं लेकिन ये उनका सब कुछ छीन लेती है। नदियों के करीब रहने वाले लोग अपनी इच्छा नहीं प्रकृति की शर्तों पर जीते हैं।
गिरींद्रनाथ झा, पत्रकार और किसान, चनका पूर्णिया

पूर्णिया के चनका मे रहने वाले किसान और पत्रकार गिरींद्र नाथ झा बताते हैं, “ये बाढ़ नहीं प्रलय है। 1987 के बाद ऐसी बाढ़ आई है। हमारे बिहार के लोग बाढ़ के साथ जीना सीख गए हैं लेकिन ये उनका सब कुछ छीन लेती है। नदियों के करीब रहने वाले लोग अपनी इच्छा नहीं प्रकृति की शर्तों पर जीते हैं।” वो आगे बताते हैं, शहर में थोड़ा जल भराव होता है तो व्हाटअप पर तस्वीरें वायरल होने लगती हैं। दिल्ली में बारिश के बाद जलभराव होता है तो टीवी और सोशल मीडिया में ख़बरें चलती हैं डूब गई दिल्ली। लेकिन एक बार कोसी-महानंदा के आसपास रहकर देखिए, विपत्तियों के बीच रहने का इनका जीवट देखिए तो एक बार।”

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बाढ़ और कोसी को लेकर काफी समय से काम कर रहे पटना निवासी रेडिया कोसी के लेखक और पत्रकार पुष्य मित्र कहते हैं, " उत्तर बिहार भीषण बाढ़ की चपेट में है। किशनगंज से लेकर चंपारण तक फैले उत्तर बिहार के तराई इलाके में आप जहां भी जाएंगे, सड़कों के किनारे, नहरों, तटबंधों, पुलों, स्कूलों की छत पर आपको पॉलीथीन की शीट के नीचे सर छिपाये लोग नजर आएंगे। पिछले साल भी तकरीबन ऐसा ही नजारा था, बस इलाके बदल गये थे।”

कुछ लोग बाढ़ का फायदा भी उठाते हैं। दिल्ली-पंजाब-हरियाणा-मुंबई से इस दौरान मजदूरों के एजेंट भी पहुंचते हैं और मानव तस्कर भी। जवान मजदूरों, बच्चों और स्वस्थ महिलाओं को छांट कर अच्छे पैसे देकर ये ले जाते हैं, बूढ़े बुजुर्ग यहीं रह जाते हैं। यह एक अंतहीन प्रक्रिया है, जो लोगों को और गरीब, लाचार और बेबस बनाती है।
पुष्प मित्र, रेडियो कोसी के लेखक

पुष्प मित्र आगे बताते हैं, “बाढ़ में कुछ लोग मुनाफे की फसल काटने आते हैं। दिल्ली-पंजाब-हरियाणा-मुंबई से इस दौरान मजदूरों के एजेंट भी पहुंचते हैं और मानव तस्कर भी। जवान मजदूरों, बच्चों और स्वस्थ महिलाओं को छांट कर अच्छे पैसे देकर ये ले जाते हैं, बूढ़े बुजुर्ग यहीं रह जाते हैं। यह एक अंतहीन प्रक्रिया है, जो लोगों को और गरीब, लाचार और बेबस बनाती है।”

पूर्णिया के एक जवाहर नवोदय विद्यालय में कई दिनों से 20 बच्चे फंसे हुए हैं। उनका गाँव बाढ़ में पूरी तरह बह चुका है। बच्चों के घर वाले किस हालात में हैं, हैं भी या नहीं, ये उन्हें नहीं पता। बस कुछ का खाना मुश्किल से बचा है। अररिया के केंद्रीय विद्यालय में टीचर और बाढ़ से प्रभावित लोगों की मदद कर रहीं नीमा सिंह ने बताया, “पहले 60 से ज्यादा बच्चे स्कूल में फंसे थे, कुछ को किसी तरह घर तक पहुंचाया गया। अभी भी 20 बच्चे फंसे हैं। ये बच्चे इसलिए नहीं जा रहे क्योंकि इऩ्हें पता ही नहीं है कि इनके घर बाढ़ में समा चुके हैं, घर वालों के बारे में भी कोई ख़बर नहीं है।”

नीमा आगे बताती हैं अररिया पूरी तरह डूबा हुआ है। पूरी आबादी प्रभावित है। हजारों घर डूब गये हैं। रोजमर्रा की चीजें लोगों के पास नहीं हैं। एक नाव पर 20 से 25 लोग सवार हो रहे हैं। नाव में पानी भर रहा। लोग एक दूसरों को धक्का दे रहे हैं। हालात बहुत खराब हैं। नीमा कहती हैं "पास के गाँव के संतोष जो अभी गंगटोक में रहते हैं, उनकी पत्नी और बच्चों का कुछ पता नहीं चल पा रहा है।

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पश्चिमी चंपारण जिले में भी इस बार बाढ़ की तबाही से हजारों ग्रामीणों प्रभावित हुए हैं। यहां काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता आलोक कुमार बताते हैं, आज तो पानी कम हो रहा है लेकिन कल तक कहीं 3 फीट पानी था तो कहीं 5, घर खेत की छोड़ों सड़कें और रेलवे ट्रैक तक बह गए हैं। बाढ़ वाले इलाकों का साल के 3-4 महीने बड़ी मुश्किल से कटते हैं। कोसी में तो लोगों के घरों से 2-2 महीने तक पानी नहीं निकलता।” वो बताते हैं, बगहा में भी सैकड़ों लोग अपना घर छोड़ चुके हैं। ज्यादातर घर कच्चे हैं क्योंकि पक्के घर का भी ठिकाना नहीं रहता।”

बिहार में तबाही का मंजर कई इलाकों में है। पूर्णिया के नसीम कहते हैं, “बाढ़ किसान का सब कुछ छीन लेती है। अऩाज बह जाता है, अगले साल के लिए बीज नहीं बचते। कई बार तो गाय-भैंस भी नहीं बता पाते हैं। इस बार भी तमाम लोग अपने पालतु पशु को साथ लेकर आए हैं, तो मेरे आंगन में बंधे हैं। खुद मेरे के चचेरे भाई का 6 कमरों का घर बह गया, अनाज का एक दाना नहीं बचा।”

बाढ़ प्रभावित इलाकों के लोग प्रकृति को अच्छे से समझते हैं। वो नदियों में पानी के रंग को देख कर समझ जाते हैं कि बाढ़ आऩे वाली है। गेरुआ पानी यानी बाढ़। फिर वे उन अस्थायी जगहों पर हफ्तों से लेकर दो-दो महीने तक रहते हैं। इस बीच उन्हें जो सबसे अधिक परेशानी होती है वह खाने की, साफ पानी की, दवाओं की, क्योंकि हर जगह राहत नहीं पहुंचती है।

इन पानी के साथ जीना नसीब है।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इस बार की बाढ़ में भी जो ढाई लाख लोग बेघर हैं, उनमें से एक लाख को ही सरकारी सहायता केंद्रों में जगह मिली है। जाहिर सी बात है कि डेढ़ लाख से अधिक लोग ऐसे ही जगहों पर हैं। कभी कोई संस्था या कभी सरकारी रिलीफ बांटने वाला पहुंच गया तो चूड़ा-गुड़ हासिल हो जाता है। वरना भीख मांगने की नौबत आ जाती है। फिर धीरे-धीरे यही लोग पलायन करने लगते हैं।

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पुष्पमित्र मायूसी के साथ कहते हैं, “बाढ़ हर साल आती है और लोगों का इस तरह से खुले में दिन काटना उनकी नियति बन गई है। कुछ इलाके में तो लोग इस कदर अभ्यस्त हो चुके हैं कि पहले से ही नहरों पर या तटबंधों के किनारे झुग्गियां डाल लेते हैं। सरकारी मदद और राहत तब पहुंचती है जब जब इंसान तबाही झेल कर बर्बाद हो जाता है। रिलीफ फंड बस मुखिया और बीडीओ के बंदरबांट के लिए होता है।”

सुपौल के रहने वाले टीचर और कवि मिथिलेश कुमार राय बताते हैं, “वे लालपुर से फॉरबिसगंज वाया भीमपुर जा रहे थे, फॉरबिसगंज अररिया का एक महत्वपूर्ण बाजार है। नेपाल से बिल्कुल सटा हुआ है। परमान नदी के जद में आने के कारण यह बाढ़ से पूरी तरह प्रभावित है। यहां बाढ़ प्रभावित लोगों तक सरकार मदद नहीं पहुंच पा रही। लोग मजबूरन सड़क तक आकर जाम लगा रहे हैं। वहां हजारों लोग बाढ़ में फंसे हुए है।”

नदियों का पानी कुछ दिनों में उतर जाएगा, जमीन भी सूख जाएगी लेकिन वो जख्म तो तेज पानी देकर जाएगा बिहार के लोग कई महीनों तक उससे जूझते रहेंगे और कुछ तो पूरी उम्र।

        

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