बिहारः 17,685 लोगों पर सिर्फ एक डॉक्टर, कैसे सुधरेंगे हालात?

देश में सबसे फिसड्डी हैं बिहार के अस्पताल, अस्पतालों की बदहाली बन रही बच्चों की मौत का कारण।

Daya SagarDaya Sagar   21 Jun 2019 10:42 AM GMT

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बिहारः 17,685 लोगों पर सिर्फ एक डॉक्टर, कैसे सुधरेंगे हालात?फोटो- चंद्रकांत मिश्रा

- दया सागर/चंद्रकांत मिश्रा

मुजफ्फरपुर/ लखनऊ। बच्चों की जान के दुश्मन बने 'चमकी बुखार' एक्यूट सिंड्रोम इंसेफलाइटिस (एईएस) से जान बचाने के लिए शुरुआती 120 मिनट बहुत अहम होते हैं। बीमारी के चपेट में आने के बाद अगर बच्चे को सही समय पर इलाज मिल जाए तो उसकी जान बच सकती है। लेकिन बिहार की सही समय पर इलाज ही मुश्किल है। पहले झोलाछाप, फिर बीमार प्राथमिक स्वास्थ और स्वास्थ्य केंद्र से जिला अस्पताल और फिर मेडिकल अस्पताल पहुंचते-पहुंचते काफी देर हो जाती है।

बिहार में डॉक्टर, प्राथमिक और सामुदायिक अस्पताल, अस्पतालों में बेड और डॉक्टरों की भारी कमी है। 15 दिन में सवा सौ से ज्यादा बच्चों की मौत के बाद अब बिहार की स्वास्थ्य सेवाएं एक बार फिर सवालों के घेरे में हैं। मसलन जिस अस्पताल में बच्चों की सर्वाधिक भर्ती हो रही है, वह मुजफ्फरपुर का मेडिकल कॉलेज है। अस्पताल में एक एक बेड पर 2 से 3 बच्चों का इलाज हो रहा है। बच्चों के तीमारदार लगातार दवाओं और डॉक्टरों की कमी का आरोप लगा रहे हैं। अस्पताल में लोग साफ पानी, शौचालय तक के लिए भटकते देखे गए। लोगों ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन से लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तक इसकी शिकायत करने की कोशिश की।

राज्य में डॉक्टरों की भारी कमी

बच्चों की मौत के साथ ही बिहार, अपनी बदहाल स्वास्थ्य सेवाएँ और कुपोषण को लेकर लोगों के निशाने पर है। बदहाल अस्पतालों और डॉक्टरों की कमी से जूझते बिहार में डॉक्टरों की संख्या में देश में सबसे कम है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार देश में 11,082 की आबादी पर एक डॉक्टर है। इसमें भी बिहार की हालत सबसे खराब है।


मार्च, 2018 में राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे ने भी डॉक्टरों की कमी की बात को स्वीकार किया था। मार्च 2018 में बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने विधानसभा में एक प्रश्न के जवाब में कहा था, "बिहार में प्रति 17,685 लोगों पर एक डॉक्टर है। प्रदेश में कुल 6830 सरकारी डॉक्टर कार्यरत हैं।" इंडियन मेडिकल काउंसिल (आईएमसी) के मुताबिक 1681 व्यक्ति पर एक डॉक्टर की आवश्यकता होती है। हालांकि उन्होंने कहा था कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत राज्य में डॉक्टरों की नियुक्ति जल्द ही की जाएगी। लेकिन एक साल बीत जाने के बाद भी हालत जस के तस हैं।


सरकार और सरकारी एजेंसियां भी लगातार इस बात को स्वीकार कर रही हैं। 2017 में नेशनल रुरल मिशन की कैग समिति ने बिहार के दस जिला अस्पतालों का ऑडिट किया था। इस ऑडिट में 166 डाक्टरों और 224 नर्सों की कमी बताई गई थी। वहीं, 2018 में मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया (एमसीआई) के कुछ सदस्यों ने बिहार के तीन मेडिकल कॉलेजों का दौरा किया था। इस दौरे के बाद उन्होंने जो रिपोर्ट दी वह पूरे राज्य की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था को बयां करती हैं। एमसीआई ने जिन तीन कालेजों का दौरा किया था उसमें एमसीआई ने 250 सीट कम कर दी थी क्योंकि वहां पर 30 प्रतिशत शिक्षकों (डॉक्टरों) की कमी थी।

अस्पतालों की संख्या भी काफी कम

बिहार में सिर्फ डॉक्टर ही नहीं बल्कि अस्पतालों की संख्या भी मानक से बहुत कम है। बिहार की लगभग 10 करोड़ से ज्यादा की आबादी को देखते हुए राज्य में कुल 800 से 1000 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) होने चाहिए, लेकिन वर्तमान में इसकी संख्या 150 से भी कम है। इस तरह वर्तमान में बिहार में सीएचसी अस्पतालों संख्या, आदर्श मानक की 20 फीसदी भी नहीं है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के मानकों के अनुसार एक लाख की आबादी पर एक सीएचसी होना चाहिए। प्रत्येक सीएचसी में सर्जरी, एनस्थेसिया और पेडियाट्रिक सहित सात विभागों के स्पेशलिस्ट डॉक्टर होने चाहिए लेकिन बिहार के किसी भी सीएचसी में इनकी संख्या पूरी नहीं है।

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी)-

ठीक इसी तरह बिहार में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) का भी अकाल है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के मानकों के अनुसार हर 30 हजार की आबादी पर एक पीएचसी होना चाहिए। बिहार की जनसंख्या को देखते हुए राज्य में कम से कम 3000 पीएचसी सेंटर होने चाहिए लेकिन राज्य में पीएचसी की संख्या सिर्फ 1900 है। इस तरह बिहार में 53 हजार की आबादी पर एक पीएचसी है।


जिस मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार का कहर बरपा है, वहां पर भी पीएचसी की कमी है। 51 लाख की आबादी वाले इस जिले में सिर्फ 103 पीएचसी है, जबकि मानकों के अनुसार जिले में ऐसे 170 पीएचसी होने चाहिए। इन 103 में से भी 98 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की न्यूनतम मानकों को पूरा नहीं करते, वहीं जो बचे पांच हैं उनको भी केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के एक एजेंसी ने जीरो रेटिंग दिया है।

जब कोई आम आदमी पहले बीमार पड़ता है तो सामान्यतया उन्हें पहले पीएचसी और फिर सीएचसी लाया जाता है। इसके बाद ही उसे जिला अस्पताल या मेडिकल कॉलेज लाया जाता है। अब जीरो रेटिंग वाले पीएचसी में बीमारों का इलाज कैसे होगा, इसका अंदाजा आप सहज ही लगा सकते हैं।

गांव कनेक्शन की टीम जब मुजफ्फरपुर जिले के मीनापुर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर पहुंची तो वहां पर सिर्फ एक डॉक्टर ही मौके पर मिले। इस अस्पताल में बिजली, पानी और शौचालय किसी भी चीज की व्यवस्था नहीं थी। डॉक्टर ने नाम ना छापने की शर्त पर गांव कनेक्शन से बताया कि मीनापुर पीएचसी के अन्तर्गत कुल 6 अपर पीचएचसी भी आते हैं। इस हिसाब से इन सात अस्पतालों में कुल 14 डॉक्टरों की तैनाती होनी चाहिए। लेकिन वर्तमान में इस अस्पताल में सिर्फ दो डॉक्टर हैं जो रोस्टर में घूम-घूम कर इलाज करते हैं।

अस्पतालों में बेड की संख्या भी कम

जनसंख्या के आधार पर हर 500 लोगों पर एक बेड होना चाहिए जबकि बिहार में 8645 लोगों पर अस्पताल में एक बेड है। इस तरह से बेड के मामले में भी बिहार भारत का सबसे फिसड्डी का राज्य है। आपको बता दें कि भारत का राष्ट्रीय औसत 1,908 लोगों पर एक बेड है।

स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में बिहार सबसे फिसड्डी राज्य

बिहार स्वास्थ्य पर खर्चे के मामले में भी देश का सबसे फिसड्डी राज्य है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार स्वास्थ्य पर 348 रूपए प्रति व्यक्ति खर्च करता है जबकि पूरे देश का औसत बिहार के दोगुने से भी अधिक (724) है। बिहार अपनी जीडीपी का सिर्फ एक फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करता है, जबकि पूरे देश का औसत 1.3 फीसदी है। बिहार सरकार ने 2017-18 के बजट में स्वास्थ्य के क्षेत्र में 1000 करोड़ रूपये की कमी की थी।


2015-16 के केंद्रीय बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बिहार में एक नया एम्स बनाने की घोषणा की थी। लेकिन चार साल बाद अभी तक इसके लिए जमीन नहीं मिल पाई है।

तब भी हुई थी घोषणाएं, अब भी हो रही हैं!

2014 में भी इस बीमारी से मुजफ्फरपुर में 139 बच्चों की मौत हुई थी। तब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने 100 बेड के एक नए अस्पताल का वादा किया था और मेडिकल कॉलेज की सीट 150 से 250 तक बढ़ाने की बात कही थी। उन्होंने इस बीमारी को लेकर मुजफ्फरनगर में एक हाई लेवल रिसर्च सेंटर खोलने की बात कही थी ताकि इस रहस्यमयी बीमारी पर रिसर्च कर उसके रोकथाम का उपाय किया जा सके।


लेकिन इसके बाद उन्हें स्वास्थ्य मंत्री के पद से हटा दिया गया और यह योजना ठंडे बिस्तर में चली गई। हाल ही के मुजफ्फरपुर अस्पताल के अपने दौरे में हर्षवर्धन ने इस बात को स्वीकार भी किया। उन्होंने फिर से एक हाई लेवल रिसर्च सेंटर और मेडिकल कॉलेज कैंपस में ही 100 बेड के एक पीडियाट्रिक इंटेंसिव केयर यूनिट बनाए जाने की घोषणा की। इसके अलावा डॉक्टरों की कमी को पूरा करने और 750 बेड वाले इस अस्पताल को 2500 बेड के अस्पताल में तब्दील करने की बात की जा रही है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार यह सिर्फ 'घोषणा' ही नहीं साबित होगी बल्कि इसे जमीन पर अमल में भी लाया जाएगा, ताकि फिर कोई बच्चा असमय ही काल के गाल में ना समा पाए।

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