ओडिशा: तुम्बा शिल्प की सुंदरता आदिवासी परिवारों की आजीविका का साधन

भारतीय रसोई में इसकी उपलब्‍धता खूब होती है, लेकिन विनम्र दिखने वाली लौकी को शायद ही कभी गंभीरता से लिया जाता है। हालांकि अपने स्वाद के लिए जानी जाने वाली ये सब्‍जी ओडिशा के आदिवासी तुम्बा कलाकारों के लिए आजीविका का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। वे इन सब्जियों को सुखाकर, तराशकर और रंगों से सजाकर उत्पाद बनाते हैं।

Ashis SenapatiAshis Senapati   18 March 2023 1:12 PM GMT

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ओडिशा: तुम्बा शिल्प की सुंदरता आदिवासी परिवारों की आजीविका का साधन

अधिकांश भारतीयों के लिए लौकी की सब्जी (लौकी करी) मेहमानों को परोसे जाने के लिए बहुत अच्‍छा व्यंजन नहीं माना जाता। पारंपरिक तरीके से पकाए जाने वाली इस सब्‍जी को शाकाहारी खाने वाले लोग ज्‍यादा पसंद करते हैं।

साधारण घिया (लौकी का दूसरा नाम) से स्वादिष्ट खाना बनाने के लिए कई प्रयोग क‍िये जाते हैं। मसलन इससे कोफ्ता भी बनाया जाता है जजो पकने के बाद ज्‍यादा स्‍वाद‍िष्‍ट लगता है। हालाँकि ओडिशा के रायगढ़ जिले में लौकी एक सब्जी से कहीं अधिक है - यह ग्रामीण क्षेत्रों में आदिवासी कलाकारों के लिए आजीविका कमाने का एक साधन है।

“मैं पिछले दो वर्षों से तुम्बा शिल्प वस्तुओं को बनाकर अपना खर्च चला रहा हूं। मैं कई अन्य ग्रामीणों की तरह नौकरी पाने के लिए इधर-उधर नहीं भाग रहा क्योंकि मैं तुम्बा शिल्प के कारण आत्मनिर्भर हूं। मैं सूखे तुम्‍बा (उड़िया में लौकी) को तराशने और रंगने से बने उत्पादों को बेचकर प्रति माह लगभग 10,000 से 15,000 रुपए कमाता हूं," ओडिशा के रायगढ़ जिले के करुबाई गाँव की आदिवासी निवासी चंदिनी सरका गाँव कनेक्शन को बताती हैं।


सरका रायगढ़ जिले के सैकड़ों आदिवासी कारीगरों में से एक हैं जो सदियों पुरानी तुम्‍बा शिल्प का अभ्यास करती हैं जो आदिवासी जीवन शैली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। पुराने दिनों में सुंदर आकार के तुम्बा कंटेनरों का उपयोग पानी या स्थानीय रूप से उत्पादित शराब को स्टोर करने के लिए किया जाता था। किसान पारंपरिक बीजों को तुम्बा के बर्तनों में संरक्षित करते हैं और ये जनजातियां लौकी से वाद्य यंत्र बनाने के लिए भी जानी जाती हैं। रायगढ़ जिले में कम से कम 200 आदिवासी परिवार हैं जो अपनी आजीविका के लिए तुम्बा शिल्प पर निर्भर हैं।

आदिवासी कलाकारों का समर्थन कर रहा स्थानीय प्रशासन

“स्थानीय प्रशासन ने आदिवासी कलाकारों को प्रोत्साहित करने के अपने प्रयासों में ग्रामीणों को तीन स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) स्थापित करने में मदद की है। सरकार से आर्थिक मदद पाकर अब लोग शिल्पकारी कर रहे हैं। एक एसएचजी को हमारे कारोबार के विस्तार के लिए सरकार से 500,000 रुपए मिलते हैं," करुबा गांव की 28 वर्षीय प्रतिमा सरकार ने गांव कनेक्शन को बताया।

“हम बर्तन, कप, बोतल, फूल के बर्तन, गुड़िया, पक्षी, जानवर, कटोरे, बर्तन, वाद्य यंत्र, वॉल हैंगिंग और मास्क जैसी वस्तुएं बनाते हैं। लौकी की खेती करना आसान है और इसके लिए बहुत कम देखभाल की आवश्यकता होती है। एक बार सूख जाने पर सख्त खोल वाली लौकी हमेशा के लिए रह सकती है और अनिवार्य रूप से एक नरम लकड़ी होती है, ”तुम्बा कलाकार ने कहा।

रायगड़ा स्थित प्रेरणा आर्ट एंड क्राफ्ट सेंटर के निदेशक हिमांशु शेखर पांडिया गाँव कनेक्शन को बताते हैं कि हर साल लौकी से बनी सैकड़ों चीजें आसपास के गाँवों और दूर के शहरों जैसे कटक और भुवनेश्वर में बिकती हैं।


“ज्यादातर परिवार लौकी के सामान को सहयोगी रूप से बनाते हैं जिसमें सभी सदस्य योगदान देते हैं। हम उन्हें उचित प्रशिक्षण भी प्रदान कर रहे हैं, उन्होंने कहा।

“हमने पिछले दो वर्षों में लगभग 200 आदिवासी महिलाओं को प्रशिक्ष‍ित किया है। प्रत्येक महिला को तीन महीने तक चलने वाले प्रशिक्षण के दौरान सरकार की ओर से 9,000 रुपए मासिक वजीफा मिलता है। पहले लौकी से सिर्फ वाद्य यंत्र और बर्तन बनाते थे। प्रशिक्षण लेने के बाद उन्होंने फूल के बर्तन, कप, प्लेट, चम्मच, टेबल लैंप, गुड़िया, जानवर, आभूषण और अन्य सामान बनाना शुरू किया।”

प्लास्टिक से जैविक में प्रवेश

पांडा के अनुसार तुम्बा शिल्प के विभिन्न उत्पादों के आने से प्लास्टिक उत्पादों पर निर्भरता कम हुई है।

“आज कल लौकी के बनी वस्‍तुओं की मांग खूब है। शहर के लोग सुंदर तुम्बा उत्पादों को ढूंढ रहे हैं क्योंकि उत्पाद पर्यावरण के अनुकूल, बायोडिग्रेडेबल हैं और प्लास्टिक के उपयोग को कम करते हैं। तुम्बा शिल्प वस्तुओं को बनाने के लिए मुख्य कच्चे माल के रूप में भारी निवेश की आवश्यकता नहीं होती है। लौकी गाँवों में बहुतायत से उपलब्ध है," पांडिया ने कहा।

अधिकारी ने यह भी कहा कि विकास आयुक्त हस्तशिल्प, केंद्र सरकार, ओडिशा ग्रामीण विकास और विपणन सोसायटी (ORMAS) एक सरकार द्वारा संचालित संगठन और जिला उद्योग केंद्र शिल्प-व्यक्तियों को सरकार द्वारा आयोजित शिल्प मेलों में अपने उत्पादों को बेचने में मदद करते हैं।


ओआरएमएएस के संयुक्त निदेशक बिपिन राउत ने गाँव कनेक्शन को बताया कि तुम्बा शिल्प आखिरकार परिपक्व हो गया है और इसने बाजार में अपनी अलग जगह बना ली है और लोगों के द‍िलों को खूब भा रहा। सरकार के ईमानदार प्रयासों के लिए धन्यवाद।

“तुंबा से बनी वस्‍तुएं लोकप्रिय हो रही हैं क्योंकि इसका उत्पादन सस्ता है और यह 100 प्रतिशत पर्यावरण के अनुकूल है। यहां के शिल्पकार लौकी से असंख्य उपयोगी वस्तुएं बनाते हैं। लौकी को सुखाने के बाद शिल्पकार उन्हें तराश कर रंगते हैं और बहुत सी सुंदर वस्तुएं बनाते हैं। 1970 के दशक में प्लास्टिक की वस्तुओं की बढ़ती मांग ने इस शिल्प को भारी नुकसान पहुँचाया। लेकिन जब से पर्यावरण-मित्रता की धारणा उभरी है, तुम्बा शिल्प की मांग फ‍िर से बढ़ी है शिल्पकारों ने पैसा कमाना शुरू कर दिया है,” राउत ने कहा।

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