बीटी कॉटन : कीटों के लिए नहीं, किसान और अर्थव्यवस्था के लिए बना जहर

Mithilesh DharMithilesh Dhar   20 Jan 2018 6:15 PM GMT

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बीटी कॉटन : कीटों के लिए नहीं, किसान और अर्थव्यवस्था के लिए बना जहरफायदे के लिया बनाया गया बीटी कपास अब किसानों की जान ले रहा है

जिस तकनीक का इजाद किसानों के लिए किया गया था वही अब किसानों की जान ले रहा है। हम बीटी कपास की बात कर रहे हैं। बीटी कपास किसानों के लिए जानलेवा साबित हो रहा है। बावजूद इसके इसे बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी इसके लिए किसानों को जिम्मेदार ठहरा रही है।

एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरों) के अनुसार नब्बे के दशक से अब तक लगभग 2 लाख 70 हजार किसान अपनी जान ले चुके हैं, और इसमें से लगभग 80 प्रतिशत किसान कपास की खेती से जुड़े हुए थे।

हाल ही में महाराष्ट्र के विदर्भ में बीटी ( बेलिस थ्यूरेनजिनेसिस ) कॉटन की खेतों पर कीटनाशक के छिड़काव के दौरान उसके चपेट में आने से 30 से ज्यादा किसानों की मौत हो गई, जबकि सैकड़ों को अस्पताल में भर्ती कराया गया। इस घटना के बाद से एक बार फिर बीटी कपास चर्चा में आ गया। हालांकि इसकी सबसे बड़ी निर्माता कंपनी मोनसेंटो का कहना है कि ये जानें किसानों की लापरवाही की वजह से गयी हैं।

ये आंकड़े आपको बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देंगे। भारत में जेनेटिक फसल के नाम पर बीटी कपास की ही खेती होती है। कपास में 90 फीसदी खेती बीटी कपास की हो रही है। ये भारत के कुल फसलों की खेती के पांच फीसदी रकबे में होती है लेकिन कुल इस्तेमाल में आने वाले कीटनाशकों का 55 फीसदी हिस्सा इसकी खेती में ही खप जाता है। इसकी खेती में बहुत महंगे रसायनों का इस्तेमाल हो रहा है, जिससे इसकी लागत आश्चर्यजनक रूप से कई गुना बढ़ जाती है। और किसानों को मिलता क्या है, ये तो हम देख ही रहे हैं।

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विदर्भ में हुई मौतों के बाद सरकार ने एसआईटी का गठन किया, कुछ अधिकारी सस्पेंड किए गये, कीटनाशक बेचने वालों के लाइसेंस रद्द किए गए और प्रतिबंधित कीटनाशक बेचने वालों को जेल भेजा गया। लेकिन इन सबके बीच एक सवाल जो दब गया वो ये कि आखिर किसानों को इतना कीटनाशक का प्रयोग ही क्यों करना पड़ रहा है ? जो कीटनाशक इस्तेमाल नहीं किये जाने थे वो भी इस्तेमाल किये गये। उन कीटनाशकों के इस्तेमाल के लिए किसान मजबूर क्यों हुए? और क्या इसकी बड़ी वजह 'बीटी कॉटन' है?

2002 से भारत में 'जीएम' यानी जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों के रूप में बीटी कॉटन बीज का इस्तेमाल सरकारी नीति के तहत बढ़ता गया। गुजरात और आंध्र प्रदेश के साथ महाराष्ट्र भी कपास की खेती में बीटी कॉटन का इस्तेमाल करने वाला अग्रणी राज्य हैं। यवतमाल के साथ विदर्भ के कपास उत्पादक किसान 'बीटी' के भरोसे ही हैं। बीटी कपास को बाजार में लाया इसलिए गया कि कपास की फसल को कीटों से बचाया जायेगा। बीटी कॉटन नुकसानदायक कीटों से मुकाबला करने में सक्षम होते हैं इसलिए इसके प्रसार पर हमेशा जोर दिया जाता रहा।

बात अगर इस साल की करें तो यवतमाल और जलगांव जिलों में फसल के भारी नुकसान के साथ महाराष्ट्र में औसत कपास उत्पादन में 13 प्रतिशत की गिरावट की आशंका है। महाराष्ट्र का करीब एक-तिहाई कपास क्षेत्र गुलाबी कीटों के हमले से ग्रस्त है। ये वो क्षेत्र हैं जहां सबसे ज्यादा बीटी कपास उगाया जाता है।

एक खास किस्म का कीड़ा, जिसे इल्ली या स्थानीय भाषा में बोंडअली कहते हैं, उसका प्रभाव अचानक बढ़ गया है। इसके साथ पिंक वालमार्म भी कहर ढाने लगा। इसके डर से किसान अधिक मात्रा मे कीटनाशकों का इस्तेमाल कर रहे हैं। बावजूद इसके वो अपनी फसल तो नहीं बचा पाये, और आपनी जान भी गंवा रहे हैं।

महाराष्ट्र यवतमाल के गांव इंद्रठांण के कपास किसान नेमराज राजुरकर दो एकड़ में बीटी कपास की खेती करते हैं। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया "इस साल तो पिछले साल की अपेक्षा आधा उत्पादन भी नहीं होगा। पूरी फसल गुलाबी कीट के चपेट में है। हम विभाग के संपर्क में हैं। वे प्रयास कर रहे हैं। लेकिन आधे से ज्यादा फसल बर्बाद हो चुकी है, बीटी कपास पर अब कीटनाशकों का कोई प्रभाव नहीं हो रहा।"

महाराष्ट्र कृषि विभाग की जानकारी के अनुसार, अकेले यवतमाल जिले में 2016-17 में कुल 6,53,316 लीटर कीटनाशक किसानों ने खरीदे। इस साल अप्रैल से 15 अक्टूबर तक, यानी सिर्फ सात महीनें में यह खरीदारी 5,65,648 लीटर की हुई है। इन आंकड़ों से कीटनाशक की बढ़ती मांग का अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन जो वजह ज्यादा कीटनाशक के इस्तेमाल के लिए मजबूरी बनी, उसके बारे में भी तो बात होनी चाहिए।

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आईसीएआर (केंद्रीय कपास अनुसंधान केंद्र, नागपुर) के प्रधान वैज्ञानिक डॉ शिवाजी म्हाल्बा पाल्वेवो कहते हैं, "बीटी मे अब अप्रभावी जीन आ गए हैं। तो कंपनियां बोलगार्ड 1 को छोड़ बोलगार्ड 2 बीज मार्केट में लायीं। लेकिन ये सामान्य किसानों तक नहीं पहुंच रहीं। एक न एक दिन यह होना ही था। कंपनियों ने सरकार से वादा किया था की 'बीटी' की फसल पर रोग नही आएंगे। लेकिन अब वैसी स्थिति नहीं है। अनेक तरह के रोग, कीड़े कपास की फसल पर दिखाई दे रहे हैं। इसीलिए हम 'बीटी' का विरोध कर रहे हैं। सरकार इसके सशक्त पर्याय देने का प्रयास कर रही है।"

ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि जब बीटी पर आने वाले कीड़ों के बदलाव के बारे में अगर सबको पता था तो कुछ प्रयास क्यों नहीं किये गये? अगर जरूरी कोशिशें की जातीं तो विदर्भ या पंजाब के किसान कुछ कम कीटनाशकों का इस्तेमाल करते और उनकी जान बच चकती है। 2015 में पंजाब के मालवा क्षेत्र में 15 कपास किसानों ने आत्महत्या कर ली थी। इन सभी किसानों की फसलों पर सफेद मक्खी का प्रकोप इतना था कि पूरी की पूरी फसल बर्बाद हो गयी। ऐसे में इनके सामने सिवाय आत्महत्या के और कोई रास्ता बचा नहीं था।

महाराष्ट्र नांदड़ के माहुर निवासी कपास किसान फारुख पठान कहते हैं "मैने 5 हेक्टेयर में कपास की खेती की है। पूरी फसल खराब हो गई है। कीट ने पौधों को ही खत्म कर दिया है। मेरे आसपास के कई किसानों की पूरा का पूरा कपास बर्बाद हो रहा है। हमने कीटनाशकों का प्रयोग किया है। लेकिन उसका कोई लाभ नहीं हुआ। मेरे साथ कई किसानों ने मिलकर कीटनाशक कंपनियों पर केस भी किया है।"

विदर्भ जन आंदोलन समिति (वीजेएएस) के प्रमुख किशोर तिवारी गाँव कनेक्शन से कहते हैं "वे बीटी कपास पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे थे, जिसे दस साल पहले देश भर में 10 एकड़ भूमि पर प्रयोग करने की अनुमति दी गई थी।"

तिवारी आगे कहते हैं "आज और खास तौर से महाराष्ट्र द्वारा जून 2005 को इसके वाणिज्यिक उत्पादन के प्रयोग की अनुमति दिए जाने के बाद बीटी कपास का उत्पादन 10 हजार एकड़ से बढ़कर 1.2 करोड़ एकड़ भूमि पर होने लगा है। बीटी कपास महाराष्ट्र में अब तक 10 हजार किसानों की जान ले चुका है।" बीटी कपास की फसल 2005 से चार लाख एकड़ क्षेत्र में असफल रही और इस साल यह 42 लाख एकड़ भूमि में असफल रही। विदर्भ सूखे क्षेत्र में जीएम प्रौद्योगिकी के गलत चुनाव का उदाहरण है, क्योंकि इसमें ज्यादा सिंचाई की जरूरत होती है, और यहां पानी कम होने कारण ये संभव नहीं है।"

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भारत में 90 फीसदी खेतों में अब जीन संवर्धित बीटी कपास उगाया जाता है। अमेरिकी कंपनी मोनसेंटो ने कपास के बीज में बासिलस थुरिंजिएंसिस (बीटी) बैक्टीरिया का जीन डाला ताकि पौधा कीड़ों से बचा रहे। कपास का ये बीज महंगा है। भारत मोनसैंटो के लिए बड़ा बाजार है। यहां एक करोड़ बीस लाख हेक्टेयर में कपास की खेती की जाती है। बीटी कपास के कारण विदर्भ में होने वाला कपास बिलकुल गायब हो गया है। ये दवाइयां अक्सर बहुत जहरीली होती हैं लेकिन फिर भी बिना मास्क और दस्ताने पहने डाली जाती हैं।

देश की लगभग 64 प्रतिशत जनसंख्या की कृषि-कार्यो में संलग्नता तथा कुल राष्ट्रीय आय के लगभग 27.4 प्रतिशत भाग के स्रोत के रूप में कृषि महत्त्वपूर्ण हो गयी है। देश के कुल निर्यात में कृषि का योगदान 18 प्रतिशत है। कृषि ही एक ऐसा आधार है, जिस पर देश के 5.5 लाख से भी अधिक गाँवों में निवास करनी वाली 75 प्रतिशत जनसंख्या प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से आजीविका प्राप्त करती है।

  • देश में विगत 12 वर्षों में कपास उत्पादन
  • इकाई – (क्षेत्र- मिलियन हे., उत्पादन- मिलियन गांठ)
  • वर्ष क्षेत्र उत्पादन
  • 2002-03 7.67 8.62
  • 2003-04 7.60 13.73
  • 2004-05 8.79 16.43
  • 2005-06 8.68 18.50
  • 2006-07 9.14 22.63
  • 2007-08 9.41 25.88
  • 2008-09 9.41 22.28
  • 2009-10 10.13 24.02
  • 2010-11 11.24 33.00
  • 2011-12 12.18 35.20
  • 2012-13 11.98 34.22
  • 2013-14 11.69 36.59
  • 2014-15 11.69 36.59
  • 2015-16 11.91 33.80
  • 2016-17 ---- 32.12

(स्त्रोत- कृषि मंत्रालय, भारत सरकार)

कपास के लिए जमीन का बहुत उपजाऊ होना जरूरी नहीं है लेकिन इसे बढ़ने के लिए लगातार पानी चाहिए। कुछ बीटी कपास सूखा बिलकुल नहीं झेल सकते और विदर्भ में पानी की बड़ी समस्या है। वहां के किसान मानसून पर निर्भर हैं।

किशोर तिवारी बताते हैं "बीटी कपास की खेती पर लगभग दो-ढाई करोड़ किसान परिवार निर्भर करता है और इनमें से ज्यादातर किसान ऐसे हैं, जिनके पास दो हेक्टेयर से भी छोटी जोत है। बीटी कपास की एक पैकेट लगभग 450 ग्राम की होती है। बीटी कपास-1 की कीमत प्रति पैकेट 750-825 रुपए और बीटी कपास-2 की कीमत प्रति पैकेट 925-1,050 रुपए की मिल जाती है। एक एकड़ जमीन के लिए कम-से-कम तीन पैकेट बीज की जरूरत होती है। लेकिन हर साल अखबारों में इसकी काला बाजारी की रिपोर्ट आती है।

रिसर्च फाउंडेशन फॉर साइंस, टेक्नोलॉजी एंड इनवायरमेंट की निदेशक डॉ वंदना शिवा अपनी वेबसाइट नवदान्या डॉट ओआरजी पर लिखती हैं "जैव प्रौद्योगिकी संघ विज्ञान तथा प्रचार के मध्य अंतर स्पष्ट करने में सक्षम नहीं है। बीटी फसलों के बारे में प्रचारित बात कि ये अधिक उत्पादन देती हैं और कीटों का इन पर प्रभाव नहीं पड़ता, कोरा झूठ सिद्ध हो चुकी है। प्रचार के ठीक विपरीत ये फसलें कीटों को आकर्षित करने वाली, किसानों को कर्ज के संकट में घसीटने वाली और बदहाली की प्रतीक बन चुकी हैं। बीटी के नाम पर मोनसेंटो जैसी बड़ी कम्पनियां कीटनाशक और रासायनिक उर्वरकों के माध्यम से किसानों को लूटकर अपनी तिजोरियां भरने का कार्य कर रही हैं। अब समय आ गया है कि सरकार इस लूट के कुचक्र से देश को बचा लें।"

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बीटी कपास है क्या?

इस बारे में आईसीएआर (केंद्रीय कपास अनुसंधान केंद्र, नागपुर) के प्रधान वैज्ञानिक डॉ शिवाजी म्हाल्बा पाल्वेवो कहते हैं "दरअसल, बीटी कपास को मिट्टी में पाए जाने वाले बैक्टीरिया बेलिस थ्यूरेनजिनेसिस से जीन निकालकर तैयार किया जाता है। इस जीन को Cry 1AC का नाम दिया गया। माना जाता है कि इस बीज को कीड़े नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं। लेकिन कुछ सालों के दौरान ही इस जीन से तैयार फसल को कीड़े नुकसान पहुंचाने में सक्षम हो गये। भारत में पहले से मौजूद कई सारी किस्मों से हाइब्रिड करा कर यहां कई अलग-अलग नामों से बीटी कपास के बीज तैयार किए। इस खेल में माहिको का कुल साझेदारी मात्र 26 फीसदी की है। माहिको ने पहला फील्ड ट्रायल 1999 में किया। अगले वर्ष यानि 2000 में भी बड़े स्तर पर फील्ड ट्रायल किए गए और वर्ष 2001 में कंपनी को एक साल का और मौका दिया गया।"

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किशोर तिवारी बताते हैं "वर्ष 2009 में मोसेंटो ने भारत में एक फील्ड सर्वे आयोजित करवाया तो पता चला कि गुजरात के अमरेली, भावनगर, जूनागढ़ और राजकोट जिले में बीटी कॉटन में लगने वाले कीड़े ने अपनी प्रतिरोधी क्षमता का विकास कर लिया और वे फसलों का नुकसान करने में सक्षम हो गए। मोसेंटो ने एक विज्ञप्ति जारी कर कहा कि इसमें कीटों की प्रतिरोधी क्षमता विकसित होना बहुत स्वाभाविक और उम्मीद के अनुरूप है।

उन्होंने तर्क दिया कि चूंकि Cry 1AC प्रोटीन एक शुरूआती जिनेटिक फसल है और यह थोड़ी अविकसित किस्म है इसलिए ऐसा होना बहुत लाजिमी है। मोसेंटो ने किसानों को साथ में यह सलाह भी दी कि जरूरत के हिसाब से रसायनों का इस्तेमाल किया जाए और कटाई के बाद खेत में अवशेषों और जो गांठे खुली हुई नहीं हैं, उनका उचित तरीके से प्रबंधन किया जाए। कंपनी ने बीटी कपास की दूसरी किस्म वर्ष 2006 में Cry 2 Ab को दो प्रोटीन डालकर बोलगार्ड 2 को दुनिया के सामने रखा। कंपनी का कहना है कि इस किस्म में कीट प्रतिरोधी क्षमता विकसित नहीं कर पाए हैं।"

    

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