बजट 2020 : मनरेगा में मजदूरी कम, फिर भी ग्रामीण मजदूरों को मनरेगा से आस

जब देश का बजट आने में एक महीने से भी कम का समय बचा है तो मनरेगा मजदूर आस लगाये बैठे हैं कि इस बजट में केंद्र सरकार उनके हितों को ध्यान में रखकर घोषणाएं करेगी।

Kushal MishraKushal Mishra   8 Jan 2020 1:24 PM GMT

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बजट 2020 : मनरेगा में मजदूरी कम, फिर भी ग्रामीण मजदूरों को मनरेगा से आस

एक रिपोर्ट बताती है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 13 करोड़ से ज्यादा लोगों को रोजगार मुहैया कराने वाली सबसे बड़ी योजना मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूरों की मजदूरी खेतों में काम करने वाले मजदूरों से भी कम है। ऐसे में अब जब देश का बजट आने में एक महीने से भी कम का समय बचा है तो मनरेगा मजदूर आस लगाये बैठे हैं कि इस बजट में केंद्र सरकार उनके हितों को ध्यान में रखकर घोषणाएं करेगी।

वर्ष 2005 में आई ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) का मुख्य लक्ष्य देश के गांवों का विकास और ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को रोजगार देना है। इस योजना के जरिए ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को प्रतिदिन की मजदूरी और साल में 100 दिन रोजगार की गारंटी दी जाती है, लेकिन समय पर भुगतान न होने और कम मजदूरी दर के कारण योजना के तहत काम करने वाले मजदूर निराश हैं।

पिछले साल (2019) में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने आचार संहिता लागू होने के दौरान चुनाव आयोग से मंजूरी लेकर मनरेगा मजदूरों की मजदूरी में राज्यवार 01 से 15 रुपए तक बढ़ोतरी की। वहीं गोवा, कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल, अंडमान एंड निकोबार और लक्षदीप की मनरेगा मजदूरों की मजदूरी में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई। इस बढ़ोतरी के बाद भी मनरेगा मजदूर खुश नहीं हैं।


राजस्थान के पाली जिले के रायपुर तहसील के कलालिया गांव की रहने वाली मनरेगा मजूदर आशा देवी 'गांव कनेक्शन' से फोन पर बताती हैं, "मैं और मेरे पति दोनों मनरेगा में काम करते हैं तो हमको 199 रुपए दिन के मिलते हैं। अगर खेतों में काम करें तो 250 से 300 रुपए तक मिल जाते हैं। मगर ज्यादा दिन खेतों में काम नहीं होता, उसके बाद हम मनरेगा के ही भरोसे हैं। कम से कम गांव में 100 दिन का काम तो मिल ही जाता है।"

आशा कहती हैं, "जब गांव में काम नहीं होता तो मेरे पति शहर (जयपुर) जाते हैं मजदूरी के लिए। अब घर तो चलाना ही है। अगर मनरेगा में ही हम लोगों को काम मिले और समय से मजदूरी मिले तो हम गांव छोड़कर क्यों जाएं। सरकार काम दे और मजदूरी अगर कम से कम 300 रुपए दे तो हम जैसे लोग अपने गांव में रहकर गुजर-बसर कर सकते हैं।"

राजस्थान में वर्ष 2019-20 में 07 रुपए मजदूरी मनरेगा में बढ़ाई गई और 199 रुपए दैनिक मजदूरी तय की गई। इससे पहले वर्ष 2018-19 और 2017-18 में मजदूरी दर में एक रुपए की बढ़ोतरी नहीं हुई और यह दर 192 रुपए ही थी।

मनरेगा में मजदूरी कृषि मजदूरी से भी कम

देश में मनरेगा मजदूरों के लिए काम करने वाली मनरेगा संघर्ष मोर्चा ने पिछले साल एक अध्ययन किया जिसमें दावा किया गया है कि देश के अलग-अलग राज्यों में मनरेगा मजदूरों की मजदूरी खेतों में काम करने वाली मजदूरों से भी कम है।


राजस्थान में मनरेगा संघर्ष मोर्चा से जुड़े मुकेश गोस्वामी 'गांव कनेक्शन' से बताते हैं, "अब 199 रुपए में क्या होता है। वो भी मजदूरों को समय से नहीं मिलता। इससे ज्यादा ग्रामीणों को खेतों में मजदूरी करने पर मिल जाता है। मगर सरकार ने 199 रुपए मजदूरी तय की है। सरकार अगर ग्रामीण क्षेत्रों की महंगाई के अनुसार न्यूनतम मजदूरी दर तय करे और समय पर भुगतान करे तो गांव के लोग शहरों में काम के लिए क्यों भागेंगे।"

जबकि देश में महंगाई की बात करें तो पिछले साल नवंबर महीने में खुदरा महंगाई दर बीते तीन सालों में सबसे ऊपर पहुंच गई। अक्टूबर में जो खुदरा मुद्रा स्फीति दर 4.62 प्रतिशत थी, वही नवंबर में 5.54 प्रतिशत हो गई, लेकिन इस दर से मजदूरों की मजदूरी दर में बढ़ोतरी नहीं हुई है।

बिहार में तीन साल में बढ़े सिर्फ तीन रुपए

इसी तरह बिहार में सरकार ने वर्ष 2017-18 में 168 रुपए मनरेगा मजदूरी तय की। इसके बाद वर्ष 2018-19 में एक रुपए की भी बढ़ोतरी नहीं की गई और वर्ष 2019-20 में सिर्फ 03 रुपए बढ़ाए गए और मजदूरी दर 171 रुपए तय की गई।

बिहार के मनसाही ब्लॉक में चितौरिया ग्राम पंचायत के जितेंद्र पासवान और उनकी पत्नी सरस्वती देवी दोनों मनरेगा में काम करते रहे हैं। आज जितेंद्र पासवान सरपंच हैं मगर उनकी पत्नी आज भी मनरेगा में मजदूरी करती हैं।

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जितेंद्र पासवान 'गांव कनेक्शन' से फोन पर बताते हैं, "ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा के जरिए गांव की महिलाओं और पुरुषों को संगठित होकर काम करने का मौका मिलता है तो अपने आप में मनरेगा बहुत अच्छी योजना है। मगर सरकार ने पिछले कुछ सालों में इस पर ध्यान नहीं दिया और यही कारण है कि गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ा है।"

जितेंद्र कहते हैं, "मनरेगा में आज हमारे राज्य में 177 रुपए मजदूरी मिल रही है, जो बहुत ही कम है, जबकि 200 से 300 रुपए तो खेतिहर मजदूरी है। मगर मनरेगा में ग्रामीणों को काम का भरोसा होता है। हम चाहते हैं कि अगर सरकार ग्रामीण व्यवस्था को मजबूत करना चाहती है तो न्यूनतम मजदूरी को कम से कम 400 से 600 रुपए करने के साथ कम से कम 200 दिन का काम दे ताकि गांवों से पलायन रुके।"

छह राज्यों में नहीं बढ़ी मजदूरी दर

बीते सालों में मनरेगा की मजदूरी में बढ़ोत्तरी की बात करें तो वर्ष 2017-18 और 2018-19 के बीच देश के कुल दस राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एक रुपए भी मजदूरी में बढ़ोतरी नहीं की गई, इसी तरह वर्ष 2018-19 और 2019-20 के बीच छह राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मजदूरी में बढ़ोतरी नहीं की गई। इन राज्यों में पश्चिम बंगाल और कर्नाटक राज्य भी शामिल रहे।

पश्चिम बंगाल के पं. मेदिनीपुर जिले के दांता ब्लॉक के धनहालिया गांव के मनरेगा मजदूर संदीप सिंहा कहते हैं, "हमारे यहां खेतों में काम करने पर 300 से 350 रुपए तक मजदूरी मिल जाती है, मगर मनरेगा में मजदूरी 191 ही है और उसके पिछले साल भी इतनी ही थी। हमारे यहां एक रुपए भी बढ़ोत्तरी नहीं की गई। गांव में मनरेगा ही गरीबों के लिए रोजगार का साधन है तो कम से कम 300 रुपए न्यूनतम मजदूरी होनी ही चाहिए।"

संदीप मनरेगा में समय से मजदूरी न मिलने की भी शिकायत करते हैं। वह कहते हैं, "कभी-कभी हम मजदूरों को छह-छह महीने तक भुगतान नहीं मिलता है। कहते हैं अभी पैसा नहीं आया है, जब पैसा आएगा तब मिलेगा। जबकि कम से कम 15 दिनों के अंदर मजदूरों का भुगतान करने का प्रावधान है। अगर सरकार मजदूरी अच्छी दे और समय पर भुगतान करे तो मनरेगा बहुत अच्छी योजना है।"

कर्नाटक में रायपुर जिले के कोटकुन्दे पोस्ट के मामुरेट्टी गांव के नगाप्पा सगमकुंता 'गांव कनेक्शन' से फोन पर बताते हैं, "अभी जो मनरेगा में मजदूरी मिलती है उससे परिवार के लिए राशन का पैसा ही निकल पाता है। ऊपर से कभी-कभी दो-दो महीने बाद मजदूरी मिल पाती है। पिछली बार सरकार ने मनरेगा की मजदूरी में कोई बढ़ोत्तरी भी नहीं की। कम से कम 300 से 400 रुपए मजदूरी मिले तो थोड़ी बचत कर पाएगा। इलाज-पानी में खर्चा कर पाएगा।"

समय पर भुगतान न मिलने से भी परेशान मजदूर

मनरेगा के तहत कई राज्यों में समय पर मजदूरी का भुगतान न मिलना भी मजदूरों को शहरों की ओर पलायन करने और मजदूरी करने के लिए मजबूर करता है।

राजस्थान के मनरेगा संघर्ष मोर्चा के मुकेश गोस्वामी 'गांव कनेक्शन' से बताते हैं, "राजस्थान में ही 11 अक्टूबर के बाद से अब तक भुगतान नहीं हो सका है। ऐसे में अब तक करीब 700 करोड़ रुपए मजदूरी का और करीब 1200 करोड़ रुपए निर्माण सामग्री का बाकी है। हम कई बार मुख्यमंत्री से लेकर केंद्रीय मंत्रियों को पत्र लिख चुके हैं, मगर अब तक समस्या का हल नहीं हो सका है। जरूरी यह है कि मजदूरों को समय पर भुगतान मिले और ज्यादा से ज्यादा काम मिले।"

यह भी पढ़ें : Economic Survey 2019: मनरेगा के आंकड़ों से बनाई जाए गांवों में कार्य योजना

दूसरी ओर केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से दिसंबर में मनरेगा की योजनाओं का बेहतर क्रियान्वयन के लिए झारखंड राज्य को छह पुरस्कार दिए गए। झारखंड को समय से मजदूरी का भुगतान के लिए पहला पुरस्कार दिया गया।

झारखंड में लातेहर जिले के मनिका ब्लॉक के जामवो गांव की मनरेगा मजदूर रीता देवी फोन पर बताती हैं, "मनरेगा में कम से कम पैसा हम मजदूरों को समय से मिल जाता है मगर मजदूरी सिर्फ 171 रुपए ही है जो बहुत कम है। यहां खेतिहर मजदूरों को 300 रुपए मिल जाते हैं तो कम से कम 300 रुपए मनरेगा में भी दिए जाएं। हम सरकार से चाहते हैं कि अभी 100 दिनों का ही काम मिलता है, लेकिन कम से कम 200 दिन का काम हम जैसे मनरेगा मजदूरों को मिलना चाहिए।"

'मजदूरों को ज्यादा दिन तक मिले काम'


उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में पिसांवा ब्लॉक के अल्लीपुर गांव में मनरेगा मजदूर रामबेती भी ज्यादा दिनों तक काम दिए जाने की सरकार से गुजारिश करती हैं। रामबेती कहती हैं, "गांव में जो लोग भूमिहीन हैं, खेती नहीं करते हैं, उनके लिए मनरेगा ही रोजगार का साधन है। ऐसे में साल में सिर्फ 100 दिन का काम मिलना कम है। सरकार को चाहिए कि हम जैसे मजदूरों को कम से कम 200 दिन मनरेगा में काम दे और न्यूनतम मजदूरी को कम से कम 300 रुपए दे ताकि लोग गांव में रहकर ही काम करें।"

दूसरी ओर मनरेगा के तहत ग्रामीणों को ज्यादा काम मिले, इसके लिए छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से पहल की गई और ग्रामीण क्षेत्रों में साल के 150 दिन तक रोजगार देने की गारंटी दी गई।

छत्तीसगढ़ के लुण्ड्रा ब्लॉक के बिल्हमा गांव के मनरेगा मजदूर धरम साथ बताते हैं, "पहले केंद्र की ओर से 100 दिन का काम मनरेगा में मिलता था, मगर राज्य सरकार ने पिछले तीन सालों से 150 दिन का काम दिया। इससे जो लोग काम न मिलने पर खाली बैठे रहते थे या फिर शहर मजदूरी के लिए जाते थे, उनको गांव में ही काम मिला। मगर अभी हमारी मजदूरी सिर्फ 176 रुपए ही मिल रही है जो बहुत कम है। हमारी मांग है कि सरकार कम से कम 300 रुपए तो एक जॉब कार्ड मजदूर को दे ताकि अपने परिवार का गुजारा चला सके।"

ग्रामीण मामलों में जानी मानी अर्थशास्त्री और दिल्ली में जेएनयू में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर जयती घोष 'गांव कनेक्शन' से फोन पर बताती हैं, "जब देश में मंदी से अर्थव्यवस्था गड़बड़ाई हुई हो तो इस समय ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा से ज्यादा रोजगार देने के लिए मनरेगा की बहुत जरूरत है जबकि केंद्र सरकार ने इस पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना दिया जाना चाहिए था। कई राज्यों में भी मनरेगा के तहत केंद्र की ओर से पूरा बजट राज्यों को नहीं मिला है।"

जयती घोष कहती हैं, "देश के ग्रामीण स्तर पर मनरेगा अपने आप में बहुत बड़ी कामयाब योजना रही है। ऐसे समय में जब शहरों में भी मंदी का असर दिखा है और बेरोजगारी बढ़ी है तो ग्रामीण स्तर पर अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए मनरेगा से बेहतर विकल्प सरकार के पास है ही नहीं। ऐसे समय में मनरेगा पर सरकार को विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए।"


    

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