क्या शहर और पेड़ एक साथ रह सकते हैं?
क्या अर्बन प्लानिंग में शहरों के साथ पेड़ों को रखा जा सकता है या फिर अर्बन प्लानिंग में पेड़ों का अस्तित्व ही खतरे में आ चुका है।
Ranvijay Singh 31 Oct 2019 11:43 AM GMT
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में विधायकों के लिए रेस्ट हाउस बनाने की खातिर पेड़ों को काटने का काम चल रहा है। कुछ ऐसा ही पिछले दिनों मुंबई की आरे कॉलोनी में किया जा रहा था। आरे कॉलोनी में मेट्रो ट्रेन के लिए पार्किंग शेड तैयार करने की खातिर पेड़ों को काटा जा रहा था। इन खबरों से मिलती जुलती खबरें अलग-अलग समय पर आती रहती हैं, जहां शहरों को विस्तार देने की खातिर आंख मूंदकर पेड़ काटे जाते हैं।
ऐसे में सवाल उठते हैं कि क्या विकास के नाम पर पेड़ों को काटना ही एक मात्र रास्ता है। क्या अर्बन प्लानिंग में शहरों के साथ पेड़ों को रखा जा सकता है या फिर अर्बन प्लानिंग में पेड़ों का अस्तित्व ही खतरे में आ चुका है। इन्हीं सवालों को समझने के लिए गांव कनेक्शन ने कुछ विशेषज्ञों से बात की जो अर्बन प्लानिंग, पर्यावरण संरक्षण, पौधरोपण के क्षेत्र में काम कर रहे हैं।
इन विशेषज्ञों की बात समझने से पहले पृथ्वी पर पेड़ों की संख्या और भारत में पेड़ों की संख्या से जुड़े आंकड़े एक बार समझ लेने चाहिए। 2015 में आई Nature की रिसर्च के मुताबिक, पृथ्वी पर करीब 3.04 ट्रिलियन (खरब) पेड़ थे। भारत में यह संख्या 35 बिलियन (अरब) थी। अगर भारत की तुलना ब्राजील, कनाडा और चीन से करें तो भारत में पेड़ों की संख्या काफी कम लगती है। ब्राजील में 301 बिलियन पेड़, कनाडा में 318 बिलियन पेड़ और चीन में 139 बिलियन पेड़ थे।
अगर बात करें प्रति व्यक्ति पर पेड़ों की संख्या की तो विश्व में एक व्यक्ति पर 422 पेड़ थे। ब्राजील में एक व्यक्ति पर 1,494 पेड़, कनाडा में एक व्यक्ति पर 8,953 पेड़ और चीन में एक व्यक्ति पर 102 पेड़ थे। जबकि भारत में यह आंकड़ा घटकर एक व्यक्ति पर सिर्फ 28 पेड़ रह जाता है। ऐसे में इस रिसर्च से साफ होता है कि भारत में पेड़ों की संख्या बहुत अच्छी नहीं है।
जहां एक ओर पेड़ों की संख्या अच्छी नहीं है, वहीं दूसरी ओर शहरों के विकास के लिए लगातार पेड़ काटे जा रहे हैं। इस स्थिति पर बात करते हुए भोपाल के रहने वाले सामाजिक कार्यकता राकेश दीवान बताते हैं, ''भोपाल में कभी खूब हरियाली थी, लेकिन देखते ही दिखते शहर के विकास के नाम पर पेड़ काटे जाने लगे। भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलुरु की रिसर्च से पता चलता है कि 1992 में जिले का ग्रीन कवर 60% था, जोकि 2018 तक 11% ही रह गया। रिसर्च में यह भी बताया गया है कि अगर यह स्थिति ऐसी ही बनी रही तो 2026 तक ग्रीन कवर 4% रह जाएगा।''
एक आकलन के मुताबिक, पिछले कुछ साल में भोपाल में अलग-अलग प्रोजेक्ट्स के लिए 10 हजार पेड़ काटे गए हैं। इनमें सेन्ट्रल बिजनेस डिस्ट्रिक्ट (सीबीडी), बीआरटीएस कॉरिडोर, स्मार्ट सिटी जैसे कई महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट्स शामिल हैं। पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था GSEED की एक रिपोर्ट भी इस ओर इशारा करती है कि भोपाल में बहुत तेजी से पेड़ों को काटा जा रहा है। GSEED की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 10 साल (2009-19) में भोपाल और इसके आस-पास के क्षेत्र में करीब 5 लाख पेड़ काटे गए हैं। इसकी वजह से 2009 से लेकर 2019 तक भोपाल का वन क्षेत्र 35% से घटकर सिर्फ 9% रह गया है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि जिन पेड़ों को काटा गया उनमें से कई 50 साल तक पुराने थे।
ऐसा नहीं है कि पेड़ों पर चल रही इन अंधाधुन्ध कुल्हाड़ी की चोट को रोकने के लिए कुछ प्रयास नहीं किए गए। राकेश दीवान बताते हैं, ''जब मध्य प्रदेश में नई सरकार बनी तो भोपाल से 15 वरिष्ठ नागरिकों का एक दल मुख्यमंत्री कमलनाथ से मिलने गया था। इस दल में मैं भी मौजूद था। हमने सोचा था कि हो सकता है नई सरकार का पर्यावरण को लेकर अलग नजरिया हो और यह बात-बात पर पेड़ों को काटना बंद हो जाए, लेकिन जैसा सोचा था वैसा हुआ नहीं।''
''हमारी मुलाकात के दौरान मैंने उनसे कहा, पिछले 10-12 साल साल में भोपाल का तापमान दो से तीन डिग्री तक बढ़ गया है। यह इसलिए हुआ है कि बहुतायत में पेड़ काटे गए हैं। अब आप मुख्यमंत्री बने हैं तो एक ऑर्डर कर दीजिए कि अबसे कोई जंगल नहीं काटा जाएगा। अगर बहुत जरूरी हुआ तो उसकी अनुमति पाने का तरीका कठिन कर दिया जाए। अभी क्या होता है कि नगर निगम का बाबू भी पेड़ काटने का निर्देश दे देता है। जबतक वन विभाग को पता चलता है पेड़ कट चुका होता है और फिर किसी की जवाबदेही तय नहीं होती। इसके जवाब में मुख्यमंत्री जी ने कहा- 'विकास के लिए जंगल काटने ही पड़ते हैं।' इस जवाब से आप समझ सकते हैं कि जब हमारे समाज के निर्णय करने वाले लोगों का दृष्टिकोण इस प्रकार का है तो आप जंगल बचाने के बारे में भूल ही जाइए।'' - राकेश दीवान कहते हैं
राकेश दीवान जिस दृष्टिकोण की बात कर रहे हैं उसका एक नजारा हाल ही में मुंबई की आरे कॉलोनी में पेड़ों के काटे जाने पर भी देखने को मिला था। मुंबई मेट्रो के लिए पार्किंग शेड तैयार करने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने आरे कॉलोनी के जंगल के 2702 पेड़ काटने के आदेश दे दिए थे। जहां एक ओर इस आदेश का लोगों ने विरोध करना शुरू किया, वहीं केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर पेड़ काटने के फैसले का समर्थन करते नजर आए थे।
प्रकाश जावड़ेकर ने दिल्ली मेट्रो का उदाहरण देते हुए कहा था, ''दिल्ली में मेट्रो आज दुनिया में सबसे अच्छी मेट्रो है। बाहर के देशों के लोग यहां आकर मेट्रो को देखते हैं कि इसका विकास कैसे हुआ। जब पहला मेट्रो स्टेशन बना तो 20-25 पेड़ गिराने की जरूरत थी, तो लोगों ने इसका विरोध किया लेकिन एक पेड़ के बदले पांच पेड़ लगाये गये और पिछले 15 साल में पेड़ बड़े हो गये हैं। वहां 271 स्टेशन बने, दिल्ली का जंगल भी बढ़ा, पेड़ भी बढ़े और दिल्ली में तीस लाख लोगों के लिये सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था हुई। मतलब यही है कि विकास भी और पर्यावरण की रक्षा भी, दोनों साथ में हुये।''
केंद्रीय पर्यावरण मंत्री के एक पेड़ के बदले पांच पेड़ लगाये जाने के दावे पर आरे कॉलोनी में पेड़ काटे जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पिटिशन दाखिल करने वाले ऋषभ रंजन कहते हैं, ''आप इस दावे को ऐसे ही समझ सकते हैं कि आरे कॉलोनी के जंगल में 2700 के करीब पेड़ काटने का आदेश था और इसकी जगह सिर्फ 400 पेड़ लगाने की बात है। एक बात तो साफ होनी चाहिए कि आप जंगल को काट कर फिर जंगल तैयार नहीं कर सकते। जहां तक बात आरे कॉलोनी की है तो यह पहले नो डेवलपमेंट जोन में था, यानि यहां कोई निर्माण कार्य नहीं हो सकता था। फिर 2015 में जानबूझकर इसे नो डेवलपमेंट जोन से बाहर किया गया और फिर जो हुआ वो सबके सामने है। पेड़ों को काटने के प्रति सरकार की तत्परता का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जब तक हम कोर्ट से स्टे ऑडर लेकर आए तब तक 2 हजार पेड़ काटे जा चुके थे, यानि जितने पेड़ काटने थे, वो काटे जा चुके थे।''
Union Minister of Environment Prakash Javadekar on #AareyForest: In Delhi, 271 metro stations have been made and tree cover has also increased. This is development and preservation of nature. https://t.co/iiQn40PdZk
— ANI (@ANI) October 5, 2019
वर्ष 2017 में भारतीय विज्ञान संस्थान बंगलुरु का एक अध्ययन सामने आया था। इसके मुताबिक, मुंबई शहर का 94% हिस्सा पिछले चार दशकों में कंक्रीटयुक्त हुआ है। यानि यहां भी ग्रीन स्पेस तेजी से कम हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक, इस शहरीकरण की अंधी दौड़ में मुंबई की 60 फीसदी वनस्पति और 65 फीसदी जल निकाय नष्ट हो गए।
ऋषभ रंजन कहते हैं, ''सरकार की ओर से कहा जाता है कि हम एक पेड़ काटते हैं तो कई पेड़ लगाते हैं, लेकिन रिपोर्ट्स देखें तो यह बात खोखली नजर आती है। पौधरोपण के नाम पर खानापूर्ति होती है और जहां कहीं पौधे लगाए भी जाते हैं, उनमें से कितने बचते हैं इसका कोई आंकड़ा नहीं होता।'' पौधरोपण से जुड़ी जिन रिपोर्ट्स की बात ऋषभ कर रहे हैं वैसी ही एक रिपोर्ट नियंत्रक और महालेखा-परीक्षक (कैग) ने जारी की थी।
कैग की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली सरकार ने 2014-17 के बीच 36.57 लाख पौधों को लगाने का लक्ष्य रखा था, लेकिन सरकार की ओर से 28.12 लाख पौधरोपण ही किया गया। यानि लक्ष्य से 8.45 लाख पौधे कम लगाए गए। इतना ही नहीं रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि दिल्ली पेड़ संरक्षण कानून, 1947 के तहत पेड़ प्राधिकरण बनाया गया था। इस प्राधिकरण ने 2014-17 के दौरान सिर्फ एक बार बैठक की है। जबकि इस प्राधिकरण को अनिवार्य तौर पर करीब 12 बैठकें आयोजित करनी थीं।
यह रिपोर्ट इस बात को समझने के लिए काफी है कि देश में पौधरोपण कार्यक्रम कितनी संजीदगी से चलते हैं। इन्हीं कार्यक्रमों पर बात करते हुए आपदारोधी बुनियादी ढाचों के क्षेत्र में कार्य करने वाली संस्था 'SEEDS' के संस्थापक सदस्य अंशु शर्मा कहते हैं, ''सिर्फ पौधों को लगाना ही सही तरीका नहीं हो सकता, हमें यह देखते हुए पौधे लगाने चाहिए कि कौन सा पौधा उस स्थान के हिसाब से सही है। लेकिन सरकारी मशीनरी में इस चीज पर कुछ खास काम होते नहीं दिखता है।''
अंशु शर्मा कहते हैं, ''कई बार यह देखने में आता है कि सड़क बनाते वक्त पेड़ काटे जाते हैं और बाद में पौधरोपण के नाम पर सड़कों के किनारे यूकेलिप्टस के पेड़ लगा दिए जाते हैं। यह इसलिए भी किया जाता है कि यूकेलिप्टस जल्दी बड़े हो जाते हैं और उसे काटने पर कीमत भी निकल आती है। लेकिन इन पेड़ों से जितना फायदा होना था, उससे कहीं ज्यादा नुकसान हो गया है। इन पेड़ों ने ग्राउंड वॉटर को तेजी से सोख लिया और इनकी पत्तियां एसिडिक होती हैं जो जमीन भी खराब करती हैं।''
अंशु शर्मा जिन यूकेलिप्टस के पेड़ों की बात कर रहे हैं उनके पौधरोपण पर कर्नाटक की राज्य सरकार ने बैन भी लगा रखा है। फरवरी 2017 में राज्य सराकर की ओर से जारी आदेश में कहा गया था कि इन पेड़ों की वजह से भी कर्नाटक में तेजी से ग्राउंड वॉटर का लेवल नीचे गया है। जनवरी 2019 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने भी इस आदेश को सही ठहराते हुए यूकेलिप्टस के पौधरोपण पर बैन जारी रखा है।
अंशु शर्मा कहते हैं, ''पौधरोपण के लिए हमें पुरानी प्लानिंग को देखना चाहिए। पुरानी प्लानिंग से मतलब है कि हम ज्यादा से ज्यादा लोकल पौधे लगाएं, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। हम सिर्फ हरियाली बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं। जबकि पेड़-पौधे सिर्फ हरियाली के लिए नहीं होते, यह जीवन का एक हिस्सा हैं।''
अर्बन प्लानिंग में पेड़ों की स्थिति को समझाते हुए अंशु शर्मा कहते हैं, ''अर्बन प्लानिंग में लैड यूज प्लान जब बनता है तो उसमें यह देखा जाता है कि कितना रिहायशी इलाका है, कितना व्यावसायिक इलाका है, कितना ट्रांस्पोटेशन है, कितना ग्रीन और ओपन स्पेस है और कितनी वॉटर बॉडी हैं। जहां तक बात है ग्रीन और ओपन स्पेस को रखने की तो यह नक्शे पर सिर्फ हरा रंगने तक रहा है। हमें जरूरत है ग्रीन स्पेस की परिभाषा को बदलने की। ग्रीन स्पेस का मतलब कभी यह नहीं होना चाहिए कि कितनी हरियाली है। हरा दिखना और उस हरे के पीछे इकोलॉजी क्या है उसे समझने की जरूरत है। जब हम देखते हैं तो दिल्ली बड़ी हरी नजर आती है, लेकिन क्या यहां लगे पेड़-पौधे यहां के हिसाब से हैं। इस बात को समझने की जरूरत है।''
इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट (ISFR) 2017 को देखें तो पता चलता है कि 2015 से 2017 के बीच भारत के वनक्षेत्र में 1% (8,021 वर्ग किमी) की बढ़ोतरी हुई है। भारत का कुल वन क्षेत्र 7,08,273 वर्ग किमी है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 21.54% है। साथ ही सरकार इस प्रयास में लगी है कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 33 प्रतिशत वन क्षेत्र घोषित किया जा सके। हालांकि इन प्रयासों के इतर शहरीकरण की होड़ में काटे जा रहे पड़ें को देख यह कहा जा सकता है कि 33 प्रतिशत वन क्षेत्र का लक्ष्य अभी काफी दूर कड़ी लगती है।
ऐसा भी नहीं है कि जंगल बढ़ाने और पेड़ों को लगाने का काम नहीं हो रहा है। सरकार और कुछ दूसरी संस्थाओं की ओर से यह काम लगातार किया भी जा रहा है। ऐसी ही एक संस्था है SayTrees. यह संस्था पौधरोपण के क्षेत्र में काम करती है। इस संस्था के कोर मेंबर दुर्गेश अग्रहरि बताते हैं, ''फिलहाल देश में पेड़ों के प्रति जितनी जागरूकता होनी चाहिए वो मुझे नहीं दिखती है। सबसे पहले तो हमें पेड़ों को एक वस्तु समझने की अपनी आदत को त्यागना होगा। अभी मैं खबर देख रहा था कि लखनऊ में पेड़ों को रंग दिया गया। यह बहुत ही खतरनाक था। उस पेड़ पर कितने छोटे-छोटी जीव रहते होंगे, यह उन सबके लिए खतरनाक है।''
दुर्गेश अग्रहरि पेड़ों को पेंट करने की जिस खबर की बात कर रहे हैं वो घटना इसी साल अक्टूबर में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में घटित हुई थी। लखनऊ नगर निगम के उपाध्यक्ष अरुण कुमार तिवारी ने राजधानी के पॉश इलाके गोमती नगर में पेड़ों पर पेंट करने का एक पायलट प्रोजेक्ट चलाया था। इस प्रोजेक्ट के लिए 115 मीटर जगह चिन्हित की गई थी, जिसमें करीब 100 पेड़ों को पेंट करना था। इन पेड़ों पर केमिकल पेंट किया जा रहा था। जब मीडिया में यह खबर प्रकाशित हुई तो वन विभाग ने इस काम पर रोक लगा दी।
उपाध्यक्ष अरुण कुमार तिवारी ने उस वक्त गांव कनेक्शन से बताया था, ''पिछली बार हमारा वार्ड 'राजीव गांधी द्वितीय' प्रदेश में स्वच्छता में तीसरे नंबर पर आया था और लखनऊ में पहले स्थान पर था। ऐसे में यह ख्याल आया कि अब तीसरे की जगह नंबर एक की लड़ाई लड़ें तो अच्छा होगा। हमने अधिकारियों से बात की और फिर यह प्लान तैयार किया। हमारी कोशिश है कि यह मॉडल पूरे लखनऊ में लागू किया जाए।''
दुर्गेश अग्रहरि कहते हैं, ''पेड़ हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। यह बात हम लोग जानते हैं, लेकिन उस पेड़ से हमें सीधे तौर पर कुछ मिलता नजर नहीं आता तो हम उसे नजरअंदाज कर जाते हैं। इसलिए पेड़ों को बचाने, खास तौर से शहरों में पेड़ों को बचाने के लिए जागरूरकता कैंपेन चलाने की जरूरत है। जब लोग समझेंगे तभी स्थिति बदल सकती है। और यह प्रयास एक बार का न हो, यह लगातार करते रहना है। स्कूल के बच्चों को पौधरोपण कार्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए, जिससे उन्हें पेड़ों का महत्व समझ आ सके। हमने 2015 से लेकर अबतक करीब ढाई लाख पेड़ लगाए हैं और यह सबकी सहभागिता से हो पाया है।''
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