जलवायु परिवर्तन और बारिश की अनिश्चितता ने बढ़ाई जम्मू के किसानों की मुश्किलें

Nidhi JamwalNidhi Jamwal   15 Oct 2018 10:59 AM GMT

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जलवायु परिवर्तन और बारिश की अनिश्चितता ने बढ़ाई जम्मू के किसानों की मुश्किलेंफोटो: निधि जम्वाल

जम्मू। जम्मू जिले के भलवाल तालुका के अपर जंदियल गांव के सरपंच बलवीर सिंह जम्वाल कहते हैं "हम कंडी क्षेत्र में रहते हैं, यह जम्मू का सूखाग्रस्त इलाका है, यहां सिंचाई की कोई सुविधा नहीं है। इसलिए हमारी फसलें और हमारी खान-पान की आदतें पूरी तरह मौसमी बारिश पर निर्भर हैं।" वह आगे बताते हैं, "कंडी में आमतौर पर उड़द या कुल्थ की दाल उगाई जाती है क्योंकि यह शुष्क खेती के अनुकूल हैं और बहुत कम बारिश में भी हो जाती है। दिसंबर में पहली बारिश के बाद हम कुल्थ खाते हैं।"

इसके बाद बलबीर एक स्थानीय परंपरा का जिक्र करते हैं जिसमें मकर संक्रांति पर खेतों से आए ताजा चावल और उड़द की खिचड़ी बनाई जाती है। बलबीर अफसोस जताते हुए कहते हैं, "लेकिन बारिश के बदले ढर्रे की वजह से हमें दलहन, मक्का, बाजरा और गेहूं की अपनी पारंपरिक फसलें उगाने में दिक्कत हो रही है।"

पिछले खरीफ के मौसम में, असमय भारी बारिश की वजह से रविंदर सिंह की मक्का की फसल का 75 प्रतिशत बर्बाद हो गया था। फोटो: निधि जम्वाल

पड़ोसी लोअर जंदियल गांव के सरपंच रविंदर सिंह जम्वाल भी उतने ही परेशान हैं। रविंदर कहते हैं, "कंडी इलाके के गांव खरीफ और रबी की फसलों के लिए पूरी तरह बारिश पर निर्भर हैं। पिछले लगभग दो दशक में बारिश के पैटर्न में बदलाव आया है। पहले, सर्दियों में बारिश दिसंबर के आखिर से शुरू होकर मार्च तक होती थी। लगातार दो-तीन दिन तक पानी की झड़ी लगी रहती थी। अब ऐसी बारिश दुर्लभ हो गई है, इसका सीधा असर हमारी रबी की फसलों खासकर गेहूं पर पड़ता है।"

अरविंद प्रकाश सिंह शेरे कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज ऐंड टेक्नॉलजी, जम्मू में ऑल इंडिया कोऑर्डिनेटेड रिसर्च प्रोजेक्ट ऑन ड्राइ लैंड एग्रीकल्चर के इंचार्ज और वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं। अरविंद प्रकाश सिंह के मुताबिक, सूखा ग्रस्त कंडी इलाके के किसानों के सामने अनियमित वर्षा का जोखिम सबसे ज्यादा है। इनमें से अधिकतर लोग जीवनयापन के लिए खेती करते हैं। खेती पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निबटने के लिए उनके पास कोई उपाय नहीं है। वह कहते हैं, "अनियमित मॉनसून और कम होती शरद ऋतु की बारिश स्थानीय खेती को प्रभावित कर रहे हैं। लेकिन हमारे पास इनके असर से जुड़े जमीनी आंकड़ों की कमी है।"

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जम्मू का सूखाग्रस्त कंडी इलाका

2015 में प्रकाशित 'जम्मू और कश्मीर राज्य के कंडी इलाके में फसल प्रणाली के अध्ययन' के मुताबिक, जम्मू और कश्मीर में चार अलग-अलग कृषि जलवायु क्षेत्र हैं। ये हैं उपोष्णकटिबंधीय जम्मू क्षेत्र (समुद्र तल से 800 मीटर ऊपर), मध्यवर्ती / अर्द्ध समशीतोष्ण मध्य पहाड़ी क्षेत्र (समुद्र तल से 800-1,500 मीटर), समशीतोष्ण कश्मीर घाटी (औसत समुद्र तल से 1,500-2,500 मीटर ऊपर) और लद्दाख के ठंडे शुष्क क्षेत्र (औसत समुद्र तल से 2,500 मीटर से अधिक ऊंचाई पर स्थित क्षेत्र)।

2015 के इस अध्ययन के अनुसार, राज्य में केवल 42 प्रतिशत खेती योग्य भूमि सिंचित है, बाकी की 58 प्रतिशत बारिश पर निर्भर है। राज्य की 81 प्रतिशत जोतों का आकार एक हेक्टेयर से कम है।

सूखा ग्रस्त कंडी इलाके के पूर्व में रावी नदी और पश्चिम में मुनावर तवी नदी है।

सूखा ग्रस्त कंडी इलाके के पूर्व में रावी नदी और पश्चिम में मुनावर तवी नदी है। शिवालिक पर्वत इसके उत्तर में और सिरोवाल इसके दक्षिण में हैं। (देखें मैप 1और 2)। राज्य में कंडी इलाके का क्षेत्रफल लगभग 812 वर्ग किलोमीटर है। यह क्षेत्र पांच ब्लॉक के तहत आता है- जम्मू (189वर्ग किलोमीटर), अखनूर (147 वर्ग किलोमीटर) और सांबा (163 वर्ग किलोमीटर) ये तीन ब्लॉक जम्मू जिले के हैं, कठुआ (158वर्ग किलोमीटर) और हीरानगर (155 वर्ग किलोमीटर) ब्लॉक कठुआ जिले में आते हैं। यह जानकारी इंडियन सोसायटी ऑफ रिमोट सेंसिंग नामके जर्नल में छपी थी।

कंडी में रहने वाले लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती है, इनमें से अधिकांश छोटे या सीमांत किसान हैं। "हम तमाम मुश्किलों से जूझ रहे हैं। न केवल हम बारिश के रहमोकरम पर हैं बल्कि अधिकांश किसान बहुत गरीब हैं, उनके खेत बहुत छोटे हैं और आधुनिक खेती के साधनों तक उनकी पहुंच नहीं है।" जम्मू जिले के डोमाना गांव के मनमोहन सिंह जम्वाल कहते हैं। जम्मू क्षेत्र में लघु सिंचाई की परंपरा रही है। यहां पुराने समय से नहरें सिंचाई व्यवस्था का जरूरी अंग रही हैं। रुड़की स्थित राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान की रिपोर्ट के मुताबिक, नहरें इसलिए कारगर थीं क्योंकि पूरा समाज इनके प्रबंधन पर ध्यान देता था। लेकिन आजादी के बाद जब से सरकार ने यह व्यवस्था संभाली है नहरों का हाल बुरा हो गया है।

शिवालिक पर्वत सूखा ग्रस्त कंडी इलाके के उत्तर में और सिरोवाल इसके दक्षिण में हैं।

रविंदर सिंह कहते हैं, "जम्मू के लोअर कंडी क्षेत्र में रनबीर नहर व प्रताप नहर हैं। लेकिन कंडी का एक बड़ा हिस्सा सिंचाई विहीन है। ये नहरें जनवरी शुरू होते-होते सूख जाती हैं, इनमें अप्रैल में बैसाखी के समय ही पानी छोड़ा जाता है। लेकिन अब दिसंबर में बारिश दुर्लभ है, बारिश अनियमित हो गई है।"

मनमोहन सिंह के मुताबिक, पारंपरिक रूप से कंडी के सभी गांवों में बड़े तालाब हुआ करते थे, ये पीने के पानी का एकमात्र जरिया हुआ करते थे। ये तालाब ऐसी जगह पर खोदे जाते थे कि स्थानीय झरनों से बहने वाला पानी इन तालाबों में गिरता रहता था। वह कहते हैं, "स्थानीय लोग इन तालाबों की देखरेख के लिए एक आदमी को नियुक्त करते थे। तालाब के पानी का इस्तेमाल करने के लिए कड़े नियम होते थे।" लेकिन 1960 के दशक के बाद जब से पाइप से पानी की सप्लाई होने लगी इन तालाबों की उपेक्षा होने लगी। लोगों ने इन पर अतिक्रमण कर लिया। सन 2000 के आंकड़ों के अनुसार कंडी इलाके में 406 तालाब थे।

सिंचाई की कमी के अलावा कंडी इलाके की मिट्टियों की क्वॉलिटी बहुत खराब है। जम्मू-कश्मीर के कृषि विभाग के मृदा सर्वेक्षण संगठन के मुताबिक, कंडी इलाके में 11 किस्म की मिट्टियां हैं। इनमें से अधिकांश में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम और जैव पदार्थों की कमी है।

बारिश की बढ़ती अनिश्चितता से बढ़ी किसानों की परेशानी

भारतीय मौसम विभाग ने जम्मू-कश्मीर समेत देश भर में 1951 से 2010 के बीच हुई बारिश के आंकड़ों का विश्लेषण किया था। इसमें पता चला कि जम्मू-कश्मीर में बारिश में प्रति वर्ष 2.13 मिलीमीटर की बढ़ोतरी की प्रवृत्ति दिखी है। पर दिलचस्प तौर पर महीने वार बारिश के आंकड़े देखने पर पता चला कि जनवरी और जुलाई महीने को छोड़ कर शेष 10 महीनों में बारिश में कमी आई है।

पिछले खरीफ के मौसम में, असमय भारी बारिश की वजह से रविंदर सिंह की मक्का की फसल का 75 प्रतिशत बर्बाद हो गया था। इस बारे में बात करते हुए रविंदर कहते हैं, "चूंकि हम लोग कंडी क्षेत्र में रहते हैं इसलिए हमें गेहूं की रबी की फसल से भी कोई उम्मीद नहीं है।" रविंदर के मुताबिक, इलाके के 95 फीसदी लोग पूरी तरह से खेती पर निर्भर हैं और अपने परिवार का पेट भरने के लिए अनाज उगाते हैं।

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किसान शिकायत करते हैं कि कंडी में खेती करना इस कदर नुकसान का सौदा बन चुका है कि बहुत से भूस्वामी अपनी जमीन खेती के लिए बिहार और यूपी से आए भूमिहीनों को किराए पर देने लगे हैं। रविंदर ने बताया, "हम दूसरे प्रांतों से आए भूमिहीन किसानों को 400-500 रुपए प्रति कनाल (1/8 एकड़) के हिसाब से छह महीनों के लिए अपनी जमीन किराए पर दे देते हैं।"

अरविंद प्रकाश बताते हैं कि बारिश लगातार अनियमित होती जा रही है, बार-बार सूखे के दौर भी आ रहे हैं। इन सब बातों का सीधा असर फसलों पर पड़ता है। उदाहरण के लिए, मक्का कंडी इलाके की मुख्य खरीफ फसल है, यह नमी के प्रति बेहद संवेदनशील है। "मक्के के पौधे को विकास के अलग-अलग चरणों में पानी की जरूरत होती है। अगर 10 से 12 दिन का सूखा पड़ जाए तो फसल उत्पादन में काफी गिरावट आ जाती है।" अरविंद प्रकाश समझाते हैं।

जम्मू जिले के डोमाना गांव के मनमोहन सिंह के अनुसार, पारंपरिक रूप से, कंडी के सभी गांवों में बड़े तालाब होते थे, जो पीने के पानी का एकमात्र स्रोत थे। फोटो: निधि जम्वाल

सर्दियों में होने वाली बारिश अगर देरी से होती है तो गेहूं की बुवाई खिसक कर जनवरी में चली जाती है। चूंकि, गेहूं को बैसाखी के समय काटा जाता है, इसलिए ऐसी फसल के दाने मुरझाए से होते हैं, फसल उत्पादन में भी कमी आती है। दलहन और तिलहन के उत्पादन में भी कमी आ रही है, इसलिए अधिकांश किसान अब सिर्फ मक्के और गेहूं की खेती करने लगे हैं।

कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि कंडी के किसानों में जरूरत के हिसाब से खुद को ढालने की क्षमता है। पिछली कई सदियों के दौरान उन्होंने शुष्क खेती की असंख्य तकनीकें विकसित कर ली हैं। इन तकनीकों को पुनर्जीवित कर जलवायु परिवर्तन से लड़ने में किसानों की मदद की जा सकती है।

साल 2000-2001 में कृषि विज्ञान केंद्र ने कंडी में एक सर्वे करके इन पारंपरिक तकनीकों को दर्ज किया। मसलन, मक्का और अदरक की सहफसली खेती में सूखी पत्तियों, खेतों से निकलने वाले अपशिष्ट और फसलों के अवशेष को जानवरों के पैरों के नीचे बिछा दिया जाता है। बाद में इन्हें खेतों में डाला जाता है जिससे भूमि उपजाऊ बनती है और मिट्टी की नमी बनी रहती है।

इसी तरह अखनूर तालुका के कंडी क्षेत्र के कई किसान अपने खेतों में राख छिड़कते थे। इससे मिट्टी में पोटाश की कमी की पूर्ति हो जाती थी। इससे कीटों के हमले रोकने में भी मदद मिलती थी। पानी और मिट्टी के संरक्षण के लिए किसान सीढ़ीदार खेत बनाते थे। पारंपरिक तालाबों की रक्षा की जाती थी जिससे पीने के पानी की जरूरत पूरी होती थी, भूजल का पुनर्नवीकरण होता था जिससे सिंचाई की कम जरूरत होती थी।

शेरे कश्मीर यूनिवर्सिटी के पूर्व असोसिएट डीन आरडी गुप्ता एक लेख में लिखते हैं, "हरित क्रांति के पहले शिवालिक पर्वत श्रृंखला में रहने वाले पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और जम्मू क्षेत्र के किसान दाल उगाया करते थे। कंडी इलाके के कुछ क्षेत्रों में चना, मोठ और कुल्थ उगाया जाता था। पर अब इनमें से किसी की भी खेती नहीं होती।" वह कहते हैं कि किसान अगर दाल उगाएगा तो खेती में विविधता आएगी और जोखिम भी कम होगा। इसके अलावा दलहन फसलों को उगाने से खेती की जमीन में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ती है।

अरविंद प्रकाश कंडी इलाके में शुष्क खेती को बढ़ावा देने और जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करने के लिए किसानों को कुछ सुझाव देते हैं। मिट्टी और पारिस्थितिक का संतुलन बनाए रखने के लिए फसल विविधीकरण और मिश्रित कृषि करनी होगी। वह चेतावनी देते हैं, "वर्तमान में अधिकांश किसान मक्का और गेहूं उगाते हैं। ये दोनों ही अनाज हैं और मिट्टी से एक ही जैसे पोषक तत्व खींचते हैं। इस तरह पहले से ही बंजर हो चुकी मिट्टी से खनिज तत्व खत्म होते जाते हैं।" इसके अलावा फसल विविधीकरण से कीटों से होने वाले हमले भी नियंत्रित होते हैं।

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अरविंद प्रकाश कृषि वानिकी पर जोर देते हुए कहते हैं कि किसान अपने खेतों की सीमाओं पर स्थानीय पेड़ लगाएं। इन पेड़ों से उन्हें पशुओं के लिए चारा और ईंधन के लकड़ी मिलेगी। इसके अलावा ये मिट्टी का कटाव भी रोकेंगे। मिट्टी और पानी के संरक्षण के लिए वे तीसरे सुझाव में कहते हैं कि किसानों को मेड़ों के जरिए अपने खेतों को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटना चाहिए इससे बारिश का पानी बहकर बर्बाद नहीं होगा। इस संग्रहित पानी का इस्तेमाल बाद में सिंचाई के लिए किया जा सकता है। इसके अलावा हरे चारे का इस्तेमाल करने से मिट्टी की नमी बरकरार रहेगी। गांव के तालाब और पोखरों का संरक्षण और उनका प्रबंधन जरूरी है। लघु सिंचाई और वर्षाजल संरक्षण को भी लागू करने की जरूरत है।

इसी तरह कंडी में दलहन और तिलहन की फिर से खेती करने की जरूरत है क्योंकि ये दोनों ही सूखा ग्रस्त इलाके में भी हो सकती हैं। लेकिन इसके साथ ही अरविंद प्रकाश यह भी जोड़ते हैं, "इन दोनों फसलों पर कीटों के हमलों का जोखिम बना रहता है और पहले से ही संसाधन विहीन कंडी के किसानों के पास इससे निबटने का कोई तरीका नहीं है।"

(निधि जम्वाल मुंबई में स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार है। अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान (IWMI) के नेतृत्व में DFID-वित्त पोषित इनफॉर्मिंग चेंज इन द इंडस बेसिन प्रोजेक्ट के तहत एक फैलोशिप के माध्यम से इस लेख के लिए समर्थन प्रदान किया गया। व्यक्त किए गए विचार पूरी तरह से लेखिका के हैं और किसी भी तरह से IWMI या DFID को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं।)

     

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