खेती और किसानों का गला घोट रहा जलवायु परिवर्तन

Mithilesh DharMithilesh Dhar   30 Jan 2018 7:29 PM GMT

खेती और किसानों का गला घोट रहा जलवायु परिवर्तनकृषि क्षेत्र पर संकट के बादल

मध्य प्रदेश के रीवा जिले में रहने वाले 46 वर्षीय किसान पुष्पेंद्र सिंह पहले 10 एकड़ में सोयाबीन की खेती करते थे। हर साल इस फसल से दो लाख रुपए तक की कमाई आराम से हो जाती थी। लेकिन पुष्पेंद्र पिछले दो वर्षों से केवल पांच एकड़ में ही सोयाबीन की खेती कर रहे हैं। पुष्पेंद्र ऐसा क्यों कर रहे हैं, इस बारे में वे कहते हैं " मैँ लगभग 20 वर्षों से खेती कर रहा हूं। हमारे विंध्य क्षेत्र में सोयाबीन को पीला सोना कहा जाता था। लेकिन ये बात पुरानी हो गयी है। पिछले कुछ वर्षों से हर साल अक्टूबर से नवंबर के बीच ओलावृष्टि और और बारिश हो रही है। पूरी की पूरी फसल चौपट हो जाती है। ऐसे में अब हम सोयाबीन की खेती कम कर रहे हैं, हमारे क्षेत्र में सोयाबीन का रकबा तेजी से घट रहा है।"

इसी वर्ष यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के शोधकर्ताओं ने एक स्टडी में पाया है कि भारत में जो हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, उसके पीछे कुछ और नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन एक बड़ा कारण है पिछले 30 सालों में भारत में 59,000 किसानों ने आत्महत्या की है।

रीवा जैसे हालात इस समय पूरे देश में है। जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों को नुकसान हो रहा है। किसानों की आय घट रही है। इसका उल्लेख सोमवार को बजट सत्र के दौरान वित्त मंत्री ने आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 की रिपोर्ट में भी किया। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण खेती से होने वाली आय में 15 से 25 फीसदी तक कमी आने की आशंका जताई जा रही है। आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है, "जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतरसरकारी समिति (आईपीसीसी) की ओर से तापमान को लेकर लगाए गए अनुमानों के आधार पर भारत में खेती से होने वाली आय में औसतन 15 से 18 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। हालांकि यह गिरावट असिंचित भूमि वाले इलाके में 20 से 25 फीसदी रह सकती है।"

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इन हालातों पर चिंता व्यक्त करते हुए पर्यारवणविद और कृषि मामलों के जानकार विक्रांत तोंगड़े कहते हैं "ये बात बिल्कुल सही है जलवायु परिवर्तन के कारण किसानों की आय घट रही है और घटेगी ही। इसके लिए सरकार की नीतियां तो जिम्मेदार हैं ही, कहीं न कहीं किसान भी जिम्मेदार है। जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता तो मनमोहन सरकार में ही जताई गयी थी। लेकिन सरकार इन पर ध्यान नहीं देती। इस मुद्दे पर हम सबको सोचना चाहिए। क्योंकि जब किसान फसल पैदा नहीं करेगा तो शहरी लोग खाएंगे क्या।"

हालांकि सर्वेक्षण में यह भी जिक्र है कि सिंचाई की सुविधाओं में विस्तार और ऊर्जा व उर्वरक में अलक्षित सब्सिडी के बदले प्रत्यक्ष आय सहायता प्रदान कर जलवायु परिवर्तन के असर को कम किया जा सकता है। सर्वेक्षण के मुताबिक, खेती के वर्तमान आय स्तर पर किसानों की औसत आय 3,600 रुपए प्रति व्यक्ति घट सकती है। गौरतलब है कि कृषि की देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 16 फीसदी हिस्सेदारी है। साथ ही, इस क्षेत्र में 49 फीसदी लोगों को रोजगार मिल रहा है। सर्वेक्षण के मुताबिक, खेती की उपज घटने से महंगाई बढ़ सकती है और किसानों को तबाही का सामना करना पड़ सकता है। देश में 14.10 करोड़ हेक्टेयर में से 7.32 करोड़ हेक्टेयर यानी 52 फीसदी कृषि भूमि असिंचित हैं।

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भारत में पिछले साल कृषि विकास कमजोर रहा है। सरकार के आंकड़ो के मुताबिक 2017-18 कृषि विकास दर 2.8 फीसदी रह सकती है। पीएम मोदी ने देश के किसानों की आय दोगुना करने के उपायों का ऐलान किया है। लेकिन पिछले साल देश भर में किसानों को उनकी फसल की वाजिब कीमत न मिलने से आंदोलन हुए थे। पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी की वजह से किसानों की आय में गिरावट देखने को मिली है।

सोमवार को आयी सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार मझोले किसान परिवार के लिए औसत कृषि आय 3600 रुपए सालाना से अधिक बैठती है। समीक्षा में मोटे अनाज केंद्रित कृषि नीति की समीक्षा का आह्वान करते हुए कहा है कि जलवायु परिवर्तन के असर को कम से कम करने के लिए महत्वपूर्ण बदलावों की जरूरत है। इसमें कहा गया है सिंचाई जल की कमी तथा भूमिगत जल स्तर में गिरावट के बीच भारत को सिंचित क्षेत्र का दायरा बढ़ाना होगा। इस समय लगभग 45 प्रतिशत कृषि भूमि सिंचित है। गंगा का मैदानी इलाका, गुजरात व मध्य प्रदेश के अनेक हिस्से अच्छी तरह से सिंचित हैं।

स्वराज इंडिया के संस्थापक सदस्य और किसान नेता योगेंद्र यादव कहते हैं "किसानों की आय घट रही है या घटने वाली है, इसके लिए जितना जिम्मेदार सरकार की नीतियां है, उतना ही जिम्मेदार जलवायु परिवर्तन है। हमें इस ओर और पहले ध्यान देना चाहिए था। जलवायु परिवर्तन से बचने के लिए अगर दूसरे विकल्पों पर ध्यान नहीं दिया गया तो कृषि पर संकट और बढ़ जाएगा।"

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कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ व झारखंड के अनेक इलाके अभी भी सिंचाई सुविधाओं से वंचित हैं और जलवायु परिवर्तन की चपेट में आ सकते हैं। समीक्षा में फव्वारा व बूंद-बूंद सिंचाई जैसे प्रौद्योगिकियों के इस्तेमाल बढ़ाने पर जोर दिया गया है। इसमें कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से किसानों के लिए अनिश्चितता बढ़ेगी इसलिए प्रभावी फसल बीमा की जरूरत है। देश में 1970 से 2010 के बीच तापमान में बढ़ोतरी हुई है। खरीफ सीजन में तापमान 0.45 डिग्री सेल्सियस और रबी सीजन में 0.63 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। बारिश के वार्षिक औसत में भी गिरावट आई है। औसत बारिश में 86 मिमी. की कमी आई है।

राजस्थान के दौंसा जिले के गांव कुंडल निवासी कमलेश कुमार (37) कहते हैं " मेरे पास 14 एकड़ जमीन है। मैं जबसे जानने लायक बना हूं तब से खेती कर रहा हूं। मेरे क्षेत्र में गेहूं, सरसों और जौ की खेती होती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ठंड बहुत पड़ रही है। ऐसे में सरसों की फसल को काफी नुकसान हो रहा है। सरसों से किसानों का मोह भंग हो रहा है। पहले मैं 80 से 90 हजार रुपए हर साल बचा लेता था, लेकिन उत्पादन प्रभावित होने के कारण आय घटती जा रही है।"

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जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कृषि क्षेत्रों में दो मुख्य रूपों में दिखाई पड़ता है। क्षेत्र आधारित व फसल आधारित अर्थात विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न फसलों पर अथवा एक ही क्षेत्र की हर एक फसल पर प्रभाव पड़ सकता है। विभिन्न अनुसंधान संस्थाओं द्वारा अनुमान लगाया गया है कि 2050 तक तापमान में अधिकतम 3.16 डिग्री तापमान में वृद्धि तथा वर्षा में अधिकतम 10.51 सेंटीमीटर तक की कमी आ सकती है।

देश भर में किसानों की दुर्दशा का मंजर आये दिन टीवी अखबारों में देखने को मिलता रहता है। एक सर्वेंक्षण में सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपमेंट सोसायटी ने पिछले वर्ष एक रिपोर्ट जारी की थी जिसके अनुसार 61 फीसदी किसान आज खेती करना छोड़ दें अगर उन्हें शहरों में कोई नौकरी मिल जाए। आज माध्यम और निम्न वर्ग के किसानों को खेती से होने वाली आमदनी से उनकी मामूली जरूरतें भी पूरी नहीं हो पातीं।

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जनगणना से उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार किसानों की संख्या में लगतार कमी आई है। वर्ष 1991 में देश में जहां 11 करोड़ किसान थे, वहीं 2001 में उनकी संख्या घटकर 10.3 करोड़ रह गई जबकि 2011 में यह आंकड़ा और सिकुड़कर 9.58 करोड़ हो गया। इसका अर्थ यही है कि रोजाना 2,000 से ज्यादा किसानों का खेती से मोहभंग हो रहा है।

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