हर साल तापमान बढ़ने से घट सकता है औद्योगिक उत्पादन, राजस्व पर भी नकारात्मक असर की आशंका: शोध
बढ़ते तापमान का असर फसलों की उत्पादकता पर पड़ने वाले प्रतीकूल प्रभाव को पहले ही सिद्ध किया जा चुका है। इस शोध से पता चलता है कि इसका असर अन्य आर्थिक गतिविधियों के ऊपर भी पड़ता है, जिसका सीधा कारण मजदूरों की घटती उत्पादकता है।
गाँव कनेक्शन 26 March 2021 1:00 PM GMT

औद्योगिक उत्पादन कम होने से कामगारों पर भी पड़ सकता है असर. (फोटो साभार- https://www.flickr.com)
तापमान बढ़ने का सीधा असर औद्योगिक उत्पादन की मात्रा पर पड़ सकता है। हालिया एक शोध में पता चला है कि गर्मी के महीनों में कामगारों के काम करने की क्षमता में कमी देखी जा रही है, साथ ही औद्योगिक इकाइयों में उनकी उपस्थिति कम होती जा रही है। इसका सीधा असर उत्पादन पर पड़ रहा है। भारत के 58,000 से अधिक कारखानों में शोधकर्ताओं ने श्रमिक उत्पादन और राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे उत्पादन का कई सालों तक अध्ययन किया। यह कंपनी स्तर और राष्ट्रीय स्तर, दोनों पर किया गया। शोधकर्ताओं ने पाया कि हर साल एक डिग्री तक तापमान बढ़ने से राजस्व दो प्रतिशत तक कम हो सकती है। इसका सबसे अधिक नुकसान उन औद्योगिक इकाइयों को ज्यादा हो सकता है, जिनके यहां ज्यादा मजदूर काम करते हैं।
शोध करने वाली संस्था शिकागो विश्वविद्यालय में ऊर्जा नीति संस्थान के दक्षिण एशिया निदेशक डॉ अनंत सुदर्शन कहते हैं, "निचली फसल की पैदावार पर उच्च तापमान का प्रभाव पहले ही साबित हो चुका है। यह शोध बताता है कि बढ़ते तापमान मानव श्रम की उत्पादकता को कम करके अन्य क्षेत्रों में आर्थिक उत्पादन को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं। नुकसान बड़ा तब और हो जाता है जब गर्म दिनों की संख्या बढ़ती जा रही है।
बढ़ते तापमान का असर फसलों की उत्पादकता पर पड़ने वाले प्रतीकूल प्रभाव को पहले ही सिद्ध किया जा चुका है। इस शोध से पता चलता है कि इसका असर अन्य आर्थिक गतिविधियों के ऊपर भी पड़ता है, जिसका सीधा कारण मजदूरों की घटती उत्पादकता है। अगर भारत को विनिर्माण के क्षेत्र में अपने सस्ते श्रम का इस्तेमाल करके महाशक्ति बनना है, तो इस क्षेत्र में कड़ी मेहनत करने की आवश्यकता है ताकि हम एक गर्म दुनिया के लिए कैसे खुद को अनुकूल कर सके।"
डॉ. सुदर्शन ने इस अध्ययन में भारतीय सांख्यिकी संस्थान, दिल्ली के ई. सोमनाथन, दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की रोहिणी सोमनाथन और चैपल हिल में यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलिना की मीनू तिवारी ने भी अपनी भूमिका निभाई है, हालांकि शोध का केंद्र भारतीय विनिर्माण संयंत्रों (उद्योगों, कारखानाओं) पर अधिक है, लेकिन शोधकर्ताओं का तर्क है, इसका सीधा असर बाकि सेवाओं पर भी पड़ता है। क्योंकि गर्मी से तनाव एक वैश्विक समस्या है। ऐसे किसी भी क्षेत्र के लिए जहां शारीरिक श्रम महत्वपूर्ण है, उस क्षेत्र पर भी यह बराबर लागू होता है। जैसे कंस्ट्रक्शन या सेवा से जुड़ा कोई भी क्षेत्र, इन पर गर्मी से तनाव का असर पड़ता है।
कई सालों तक हुए इस अध्ययन से संकेत मिलता है कि कार्यस्थल में अगर जलवायु नियंत्रण की सुविधा है, तो उत्पादकता में कमी की समस्या तो दूर होती है, लेकिन कर्मचारियों के छुट्टियों पर असर नहीं होता है। संभवत: इसलिए क्योंकि श्रमिक घर और बाहर उच्च तापमान के संपर्क में रहते हैं क्योंकि जलवायु नियंत्रण करना महंगा होता है, इसलिए इसका सीमित इस्तेमाल किया जाता है। ई. सोमनाथन बताते हैं, "हम देखते हैं कि जलवायु नियंत्रण के अभाव में, श्रमिक उत्पादकता गर्म दिनों में कम हो जाती है। हम श्रमिकों को कारखानाओं या कार्यस्थलों में एयर कंडीशन, कूलर आदि की सुविधा मुहैया नहीं करा पाते हैं। जब आप विनिर्माण उद्योगों में जलवायु नियंत्रण प्रौद्योगिकियों (एसी, कूलर आदि) का सीमित रूप से इस्तेमाल करते हैं, तब आप जानते हैं कि हमलोग एक जटिल समस्या से समझौता कर रहे होते हैं।"
तो भविष्य कैसा दिखता है? सोमनाथन कहते हैं, "यह पूरी तरह से संभव है कि औद्योगिक क्षेत्र मानव श्रम शक्ति के इस्तेमाल के बजाय मशीन आधारित श्रम पर फोकस करे, हालांकि इससे वेतन के असमानता पर बहुत ही नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।"
इसी तरह की चिंता की बात करते हुए सुदर्शन कहते हैं, "हमारे डेटा में जो रुझान हमें दिखाई देते हैं, उससे हमें लगता है कि विकासशील देशों के गर्म देशों को व्यापक 'हीट टैक्स' का सामना करना पड़ सकता है। यह उनके विनिर्माण क्षेत्रों की प्रतिस्पर्धा को नुकसान पहुंचा सकता है और गरीब मजदूरों की मजदूरी को भी नुकसान पहुंचा सकता है। श्रमिकों को परिवेश के तापमान से बचाने के लिए कम लागत वाली प्रौद्योगिकियों में अनुसंधान का महत्वपूर्ण सामाजिक मूल्य हो सकता है।"
खबर epic.uchicago.in से साभार
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