प्रयागराज: किस हाल में हैं सफाईकर्मी, जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्मयोगी कहा था

तीन साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रयागराज में सफाईकर्मियों के पैर धोकर उन्हें कर्मयोगी कहा था, इन तीन साल में क्या इन सफाईकर्मियों की जिंदगी में कोई बदलाव आया?

Aman GuptaAman Gupta   5 Feb 2022 6:40 AM GMT

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प्रयागराज: किस हाल में हैं सफाईकर्मी, जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्मयोगी कहा था

ठेके पर काम कर रहे इन सफाई कर्मियों को प्रशासन की तरफ से केवल पैसा मिलता है। रहने और खाने की व्यवस्था इन्हें खुद करनी पड़ती है। फोटो: अमन गुप्ता

प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)। 24, फरवरी 2019, को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में आयोजित कुंभ मेले के दौरान सफाई कर्मचारियों के पैर धोकर उन्हें 'कर्मयोगी' कहा था। इस दौरान प्रधानमंत्री ने सफाई कर्मचारियों के बारे में बोलते हुए कहा था, "ये सही मायने में कर्मयोगी हैं जो दिन रात सेवा में लगे हैं।"

तीन साल बाद बीत जाने के बाद प्रयागराज में हर साल की तरह इस बार भी माघ मेला चल रहा है, इन तीन वर्षों में सफाई कर्मियों के जीवन में क्या बदलाव आए हैं। सफाई कर्मचारी हर बार की तरह इस बार भी 'ड्यूटी 'कर रहे हैं। लेकिन वे कर्मयोगी की बजाय बस सफाईकर्मी दिख और लग रहे हैं, जो रोजी-रोटी के लिए ये काम कर रहे हैं।

फतेहपुर जिले असोथर ब्लॉक के 60 वर्षीय भुल्लू भी उन्हीं सफाई कर्मचारियों में से एक हैं, जो हर साल की तरह अपने घर से लगभग 127 किमी दूर प्रयागराज में आयोजित माघ मेला में अपने काम में लगे हैं।

अपने काम में लगे भुल्लू गाँव कनेक्शन से कहते हैं, "कोई कुछ भी कहे, लेकिन हमें तो वही करना है, जो करते आ रहे हैं।" सफाई का काम करने के लिए इतनी दूर आने की वजह पूछने पर भुल्लू कहते हैं, "हमारे जैसे लोगों के पास नौकरी तो है नहीं, गांव में भी लगातार काम नहीं मिलता। यहां कम से कम तीन महीने काम रहेगा, जिसमें हर महीने तनख्वाह मिलेगी। कुछ न करने से अच्छा है कि जहां जो मिल रहा है कर लें।"

पुरुष कर्मी तो जैसे-तैसे गुजारा कर लेते हैं, लेकिन महिला सफाईकर्मियों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। फोटो: अमन गुप्ता

हर साल लगने वाले इस मेले को आम तौर पर माघ मेले के नाम से ही जाना जाता है, लेकिन हर बारहवें साल लगने वाले मेले को कुंभ और छह साल पर लगने वाले मेले को अर्धकुंभ कहा जाता है। हालांकि, सरकार ने नाम बदलकर अर्धकुंभ को पूर्ण कुंभ और पूर्ण कुंभ को महाकुंभ कर दिया था।

मेले में सफाईकर्मी के तौर पर काम करने वाले ज्यादातर लोग फतेहपुर, कौशांबी, चित्रकूट, मिर्जापुर जैसे आसपास के जिलों से आए हैं। वहां से इन्हें ठेके के जरिए भर्ती किया गया है। चित्रकूट जिले के रैपुरा गांव के चंदन (30 वर्ष) अपने भाई के साथ काम करने के लिए यहां आए हुए हैं। गांव कनेक्शन से बात करते हुए चंदन बताते हैं, "पिछले पांच साल से माघ मेले में काम करने के लिए यहां आ रहे हैं। तीन महीने का काम एक जगह मिल जाता है, जिसमें गांव के मुकाबले पैसा भी ज्यादा मिलता है।" कितना पैसा मिल जाता है, यह पूछने पर चंदन कहते हैं, "इस साल कितना मिलेगा, यह तो अभी पता नहीं है, लेकिन दस हजार के आसपास मिलना चाहिए।"

कौशांबी से आए लखनलाल (45 वर्ष) कहते हैं, "पैसा तो अपने गाँव-शहर से ज्यादा मिलता है, लेकिन बचत कम होती है। बाहर से आए कर्मचारियों को रहने और खाने की व्यवस्था अपने-आप करनी पड़ती है। खाने का इंतजाम तो मेला परिसर में लगे लंगर-भंडारों से हो जाता है, लेकिन बाकी के खर्चे के लिए पैसे नहीं होते।"

पैसा कब से नहीं मिला, यह पूछने पर वे बताते हैं, "जब हमें भर्ती किया जा रहा था, तब हर पन्द्रह दिन में पैसा मिलने की बात कही गई थी, लेकिन अभी तक मिला नहीं है और पता भी नहीं कि कब तक मिलेगा। जब पैसा मिलेगा, तभी पता चलेगा कि कितना पैसा मिल रहा है।"

ठेके पर काम कर रहे इन सफाई कर्मियों को प्रशासन की तरफ से केवल पैसा मिलता है, रहने और खाने की व्यवस्था इन्हें खुद करनी पड़ती है। मेला प्रशासन माघ मेले के दौरान संगम के आसपास के पूरे क्षेत्र में आधुनिक सुविधाओं वाला एक अस्थाई शहर-सा बसा देता है, जो ढाई से तीन महीने तक बना रहता है। इसमें हर तरह के लोगों के रहने की व्यवस्था होती है, सिवाय सफाई कर्मियों के, जिन्हें प्रधानमंत्री कर्मयोगी कहते हैं।

महिला सफाई कर्मियों की मुश्किलें अलग हैं

पुरुष कर्मी तो जैसे-तैसे गुजारा कर लेते हैं, लेकिन महिला सफाईकर्मियों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। 16 साल की रिंकी (बदला हुआ नाम) भी उन्हीं में से एक हैं। रिंकी गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "हम लोगों की सबसे बड़ी समस्या यहां रहने की है, क्योंकि यहां रहने की व्यवस्था खुद करनी पड़ती है। हमारी मजबूरी है कि मेला क्षेत्र से बहुत दूर रह नहीं सकते, क्योंकि ड्यूटी का पता नहीं होता कि कब कहां लगेगी। पास में कोई जगह नहीं है, जहां कमरा लेकर रह सकें। यहां टेंट में रहकर पूरे समय ठंड से जूझते हैं। हम लोग पुरुषों की तरह कहीं कहीं भी कुछ भी (शौच आदि) कर नहीं सकते। न उनकी तरह रह सकते हैं। ऐसे में हमारे लिए ज्यादा मुश्किल होती है।"

कोरोना के बीच काम- दिसंबर से अब तक मिला केवल एक मॉस्क

अस्थाई तौर पर करने वाले ये सफाई कर्मी क्या कोविड प्रोटोकाल का पालन कर पा रहे हैं? इसके जवाब में नाम न छापने के शर्त पर एक सफाई कर्मचारी बताते हैं, "हमें भर्ती करते समय कहा गया था कि कोरोना से बचाव करना है, जिसके लिए जरूरी हैंड सेनेटाइजर, मास्क और ग्लव्स दिए जाएंगे और उन्हें समय-समय पर बदलते रहना होगा। ज्यादातर लोग दिसंबर के आखिर और जनवरी की शुरुआत में यहां आए थे। तबसे लेकर अब तक केवल एक बार एक मास्क दिया गया है। सेनेटाइजर अभी तक नहीं मिला। स्वास्थ्य विभाग की तरफ से केवल एक जैकेट दी गई है, जो रेनकोट के कपड़े की बनी है।"


वो आगे कहते हैं, "ऐसे में हम खुद की और दूसरों की सुरक्षा कैसे करें? दिनभर कूड़ा बीनना, झाड़ू लगानी पड़ती है, ऐसे में कपड़े का हमारा मास्क कैसे साफ रह पाएंगे? केवल एक मास्क से कैसे काम चलेगा? हमारी तो तनख्वाह भी इतनी नहीं है कि हम ज़रूरत के हिसाब से खुद मास्क खरीदकर इस्तेमाल करें।'

मेला क्षेत्र में 2000 सफाई कर्मी, 348 रुपए मजदूरी

मेला क्षेत्र के स्वास्थ्य विभाग के प्रभारी निरीक्षक गिरीश त्रिपाठी ने गांव कनेक्शन से बात करते हुए कहा, 'पूरे मेला क्षेत्र में दो हजार के लगभग सफाई कर्मियों की नियुक्ति की गई है, जो नगर निगम के कर्मचारियों से अलग है। पिछले साल के मुकाबले इस साल सफाईकर्मियों के वेतन में 23 रुपए की बढ़ोतरी की गई है। इस बार इनका वेतन 348 रुपए होगा।"

बाहर से आए कर्मियों की दैनिक जरूरतें बिना पैसे के कैसे पूरी होंगी? इस सवाल पर गिरीश त्रिपाठी कहते हैं, 'हम लोग हर पन्द्रह दिन में वेतन देते हैं, लेकिन अभी तक भर्ती होती जा रही है। इस वजह से अभी बिल नहीं बना पाए हैं, जिस कारण लेट हो रहा है।' सफाई कर्मियों की सुरक्षा के सवाल पर वे कहते हैं कि उन्हें मास्क, सैनेटाइजर और एक ड्रेस ( ट्रेक सूट) मिलती है, जिसमें मेले के आयोजन का साल और स्वास्थ्य विभाग का लोगो छपा होता है। रात में इन लोगों को तापने के लिए लकड़ियों का प्रबंध स्वास्थ्य विभाग करता है।"

28 साल के राम विशाल मिर्जापुर से काम करने के लिए यहां आए हुए हैं। वे कहते हैं , "अधिकारी जो दावे कर रहे हैं वे सब झूठे हैं। जब से हम लोग आए हैं, केवल एक बार जब पहले दिन यहां आए थे तभी कोरोना टेस्ट कराया गया था। उसके बाद से ऐसे ही चल रहा है। हम लोगों को केवल एक बार मास्क दिया गया था सैनेटाइजर दिया ही नहीं गया है, अधिकारी लोग जिस ड्रेस की बात कर रहे हैं उसमें भी केवल जैकेट भर है जो किसी भी हाल में सर्दी से नहीं बचा सकती। हम लोग दिन भर इतने लोगों के बीच में रहते हैं, जाने कितने लोग सर्दी-जुकाम और बुखार से जूझ रहे हैं। इस सबके के बाद भी काम कर रहे हैं? हम लोग और करें भी तो क्या? अगर हम बताते हैं कि हमको लक्षण हैं, तो काम बंद करवा दिया जाएगा और काम बंद हुआ तो पैसा भी नहीं मिलेगा और अगर पैसा ही न मिले, तो यहां आने का फायदा क्या? बिना काम और पैसे के ही रहना था, तो घर क्या बुरा था?"

मेला प्रशासन से जुड़े एक अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि पूरे मेले के आयोजन के लिए सरकार की तरफ से 59 करोड़ रुपए का बजट घोषित किया गया है। इस बजट में हमको अस्थाई निर्माण, बिजली की व्यवस्था , साफ सफाई जैसी बुनियादी सुविधाओं को पूरा करना है जो इतने कम बजट में संभव नहीं है।

उत्तर प्रदेश के नगरीय निकायों में करीब 45000 के लगभग सफाई कर्मचारी संविदा पर काम कर रहे हैं, वहीं डेढ़ लाख के करीब सफाई कर्मी आउटसोर्स पर काम कर रहे हैं। फोटो: दिवेंद्र सिंह

प्रदेश में संविदा में काम करते हैं 45000 सफाई कर्मचारी

स्थाई संविदा ठेका सफाई कर्मचारी संघ के प्रदेश महासचिव मनोज कुमार धानुक गांव कनेक्शन से बात करते हुए बताते हैं कि प्रदेश के नगरीय निकायों में करीब 45000 के लगभग सफाई कर्मचारी संविदा पर काम कर रहे हैं, वहीं डेढ़ लाख के करीब सफाई कर्मी आउटसोर्स पर काम कर रहे हैं।

अलग अलग व्यवस्था के जरिए एक ही काम कर रहे सफाई कर्मचारियों को वेतन सुविधाएं भी अलग अलग मिलती हैं। इसमें सबसे कम वेतन ठेके पर काम कर रहे कर्मियों को मिलता है जिनको 336 रुपए प्रतिदिन मानदेय मिलता है। इसमें से दस प्रतिशत पीएफ कट जाता है। इस तरह ठेके पर काम कर रहे कर्मियों को नौ हजार के आसपास वेतन मिलता है। संविदा कर्मियों का भी मूल वेतन सात हजार रुपए है जिसमें भत्ते लगने के बाद यह 20600 रुपए मिलता है। इस वजह से उनकी स्थिति ठेके पर काम कर रहे सफाई कर्मियों से थोड़ी सी बेहतर है। वहीं सरकारी कर्मियों के वेतन की शुरुआत अठारह हजार रुपए से शुरू होता है जिसमें भत्ते लगने के बाद इनकी सैलरी ठीक ठाक बढ़ जाती है।

"हमारी मांग है कि ठेके पर काम कर रहे कर्मियों को संविदा पर और संविदा पर काम कर रहे कर्मियों को नियमित किया जाए जिससे वेतन विसंगतियों के अंतर को कम किया जा सके, "मनोज कुमार धानुक ने आगे कहा।

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