किसी देश की शिक्षा प्रणाली के लिहाज से कोविड-19 महामारी सदी की सबसे बड़ी त्रासदी सिद्ध हुई है। इस दौरान दुनिया भर के देशों में स्कूल भी लंबी अवधि तक बंद रहे हैं। यूनेस्को के आंकड़े बताते हैं कि भारत के 32 करोड़ छात्रों को पांचवें सबसे लंबे लॉकडाउन से गुजरना पड़ा है।
स्कूल और प्रारंभिक बचपन के दौरान शिक्षा-पोषण और देखभाल मुहैया कराने वाले आइसीडीएस (ECCE) केन्द्र बच्चों को सिर्फ शिक्षित ही नहीं करते, बल्कि वे उनके लिए सामाजिक होना सीखने की जगह भी हैं। वे उन्हें पौष्टिक भोजन प्रदान करते हैं। उन्हें सामाजिक और मनोवैज्ञानिक सहायता प्रदान करते हैं। गरीब, वंचित और कमजोर वर्ग समूहों को सामाजिक सुरक्षा देते हैं। जाहिर है बंद पड़े स्कूल बच्चों को सिर्फ पढ़ने-सीखने और औपचारिक शिक्षा हासिल करने के मौके से ही वंचित नहीं कर रहे, बल्कि बच्चों और युवाओं का जो नुकसान हो रहा है उसकी कभी भरपाई नहीं हो सकती।
ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट के अनुसार, कोरोना की पहली लहर के बाद, अतिरिक्त सहायता नहीं मिलने की स्थिति में भारत के ग्रामीण इलाकों के 64% बच्चों की पढ़ाई बीच में ही छूट जाने की आशंका थी। इस महामारी के प्रारंभ में जब ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हुई थी तब ग्रामीण क्षेत्र में 15% से भी कम घरों में इन्टरनेट की सुविधा थी; अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के 96% घरों में कंप्यूटर नहीं था। एक सर्वे में अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले 80% माता-पिता और प्राइवेट स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ाने वाले 59% अभिभावकों का कहना था कि महामारी के दौरान बच्चों की पढ़ाई बिलकुल ठीक से नहीं हुई।
पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद, मनोरंजन समेत सामाजिक संवाद तक हर चीज के लगातार बंद रहने और आस-पास में एक भयपूर्ण माहौल के निरंतर बने रहने का नतीजा मनोवैज्ञानिक आघात के रूप में हुआ। जो पहले से ही कमजोर और असुरक्षित थे उनका मनोवैज्ञानिक सहारा छिन गया। उन्हें कक्षा में पढ़ाई न होने की स्वाभाविक कमी महसूस हुई और सीखने के अवसर खो जाने का अहसास हुआ। पिछले साल की तुलना में 92% बच्चे किसी एक भाषा विशेष की क्षमता खो चुके हैं, अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के एक सर्वे में यह बात सामने आयी है।
एक अनुमान के अनुसार स्कूल लॉकडाउन की वजह से भारत को भविष्य में होने वाली 400 बिलियन डॉलर की कमाई का नुकसान उठाना होगा। शिक्षा तो आवश्यक बजट की कमी से हमेशा ही जूझती रही है, लेकिन जब शिक्षा व्यवस्था को महामारी के दौरान अतिरिक्त कोविड पैकेज और सहायता की सबसे अधिक जरूरत थी, तब भी वर्ष 2021-22 में शिक्षा के राष्ट्रीय बजट में भारी कटौती की गई।
स्कूलों में सामान्य स्थिति कब लौटेगी, अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। प्रारंभिक बचपन देखभाल एवं शिक्षा केंद्र (ईसीसीई) और क्रेच सामान्य हालात लौटने तक अनिश्चित समय के लिए बंद हैं। गौरतलब है कि जून, 2021 में 723 जिलों में से 125 जिलों में कोविड के मामले नहीं थे। तब से 80% नए मामले सिर्फ 90 जिलों से दर्ज किए गए हैं ।
जाहिर है, अब भारत को बच्चों के भविष्य की खातिर शिक्षा को अनलॉक करने के बारे में संजीदगी से फैसला लेने की जरूरत है। यह समय आ गया है कि भारत की राजसत्ता देश के बच्चों के प्रति, उनके अधिकारों की रक्षा और जवाबदेही के प्रति अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को समझे। अब समय है कि सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को बेहतर और मजबूत बनाते हुए अगली पीढ़ी के शिक्षा के अधिकार को वास्तविक मायनों में पूरा करके देश को संकट की इस घड़ी से उबारा जाए।
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए जरूरी है कि देश भर में पूर्ण या आंशिक रूप से भी वास्तविक और ऑफलाइन पढ़ाई के लिए सभी बच्चों को स्कूल वापस लाने को प्राथमिकता दी जाए।
स्कूलों का पुनः खोलना, सुरक्षित और समावेशी होना सुनिश्चित किया जाए। बच्चों, शिक्षकों और साथ ही, माता-पिता, अभिभावकों और समुदायों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए सभी प्रकार के सुरक्षा उपाय किए जाएँ।
छात्रों के शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और मनो-सामाजिक कल्याण के लिए अनिवार्य रूप से उनकी यथोचित सहायता की जाए। जो खतरे में हैं, उनकी रक्षा के लिए सामुदायिक तंत्र को सुचारु रूप से सक्रिय किया जाए और बच्चों को शोषण, बालश्रम, बाल विवाह और तस्करी सहित सभी प्रकार की हिंसा से बचाने के उपाय किए जाएं।
इस संकट के समय में बच्चों को सिखाने के लिए प्रभावी परिवेश-निर्माण की पहल करते हुए समग्र शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया जाए। छात्रों के सीखने का आकलन किया जाए। बेहतर तरीके से सिखाने और बच्चों की पहुँच सुनिश्चित करने के लिए सीखने की उपयुक्त सामग्री के साथ प्रभावी और न्यूनतम तकनीक आधारित और जरूरी होने पर समावेशी तकनीक का उपयोग किया जाए।
शिक्षा के के क्षेत्र में निजी या गैर-सरकारी संस्थानों, कॉरपोरेट घरानों और पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप पर विश्वास करने और उनके दखल को बढ़ावा देने की बजाय सरकार अपनी क्षमता को बढ़ा कर सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करे और शिक्षा के अधिकार का जमीनी स्तर पर पूर्ण क्रियान्वयन सुनिश्चित करे।
शिक्षा अधिकार कानून के मानदंडों के मुताबिक भारी संख्या में खाली पड़े शिक्षकों के सभी पदों पर गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण प्राप्त, पूर्णकालिक और नियमित वेतनभोगी शिक्षकों की तत्काल नियुक्ति सुनिश्चित की जाए। शिक्षकों के लंबित वेतन और भत्ते तुरंत प्रभाव से भुगतान किए जाएं। किसी भी रूप में शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण पर रोक लगाई जाए।
डिजिटल विभाजन के कारण शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती नई गैर बराबरी और पहले से ही मौजूद सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक एवं अन्य स्तरों पर व्याप्त असमानताओं को ध्यान में रखते हुए शैक्षिक समानता के सुदृद प्रयास किए जाएं। दलित, आदिवासी, विकलांग बच्चे, लड़कियां प्रवासी मजदूरों के बच्चों और कोविड के कारण अनाथ हुए बच्चों की नई श्रेणी समेत भारत के गरीब तथा हाशिये के समूहों से आनेवाले बच्चों की शैक्षिक जरूरतों को पूरा करने की स्पष्ट रणनीति विकसित करके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जाए ताकि उन्हें शिक्षा का बुनियादी हक हासिल हो सके।
स्कूल पुनः खोलने के लिए शिक्षकों और अन्य शिक्षाकर्मियों को सुरक्षित रहने का प्रशिक्षण दिया जाए, उनकी मदद की जाए तथा उनकी भलाई, स्वास्थ्य और आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।
पिछले वर्षों युक्तिसंगतता/रेशनलाइजेशन के नाम पर विलय या बंद किए गए स्कूलों को पुनः खोला जाए। आवश्यकतानुरूप नए स्कूल खोले जाएँ ताकि शारीरिक दूरी का ख्याल रखते हुए बच्चों के छोटे समूहों को सुचारु रूप से पढ़ाया जा सके। स्कूलों को बंद करने पर रोक लगाई जाए।
महामारी के दौरान निजी स्कूलों को फीस बढाने से रोका जाए। निजी (प्राइवेट) स्कूलों को अधिक शुल्क वसूलने, शोषण और बच्चों के स्कूल से बाहर करने पर रोक लगाने के लिए एक व्यापक नियामक ढांचा विकसित कर उसे सख्ती से लागू किया जाए।
सभी बच्चों खासकर हाशिए के समूहों के बच्चे की शिक्षा की निरंतरता को सुनिश्चित करने के लिए बजटीय आवटन को कम-से-कम सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 6% तक बढ़ाया जाए।
भविष्य के संकट की तैयारी सुनिश्चित करने के लिए आपात स्थिति में शिक्षा (एजुकेशन इन इमेर्जेंसीज़) की दीर्घकालिक नीति विकसित की जाए।
कोरोना काल में बच्चों की शिक्षा की चुनौतीपूर्ण स्थिति पर आरटीई फोरम का सांसदों के साथ वर्चुअल संवाद
संसद के मानसून सत्र समापन के पहले 12 अगस्त, 2021 को बच्चों की स्कूली शिक्षा एवं कोविड-19 की चुनौतियां के संदर्भ में राइट टू एजुकेशन फोरम की ओर से सांसदों के साथ एक वर्चुअल संवाद कार्यक्रम का आयोजन किया गया।
इस कार्यक्रम में देश के विभिन्न हिस्सों से आरटीई फोरम के राज्य संयोजक व प्रतिनिधियों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों, शिक्षकों, जमीनी कार्यकर्ताओं समेत विभिन्न नेटवर्क और सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने भागीदारी की।
फोरम द्वारा पेश 13 सूत्री मांगों के मद्देनजर सांसदों ने एक स्वर से अफसोस जताया कि जब शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करने के लिए अतिरिक्त वित्तीय जरूरत थी, तब वर्ष 2021 में शिक्षा के राष्ट्रीय बजट में भारी कटौती की गई। कोरोना की पहली लहर के बाद अतिरिक्त सहायता नहीं मिलने की स्थिति में भारत के ग्रामीण इलाकों के 64% बच्चों की पढ़ाई बीच में ही छूट जाने की आशंका को लेकर उन्होंने गहरी चिंता जताई।
कार्यक्रम के दौरान देश भर से जुड़े आरटीई फोरम के राज्य प्रतिनिधियों और विभिन्न सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों ने भी अपनी राय व्यक्त की और शिक्षा के बढ़ते निजीकरण और व्यवसायीकरण पर रोक लगाने की मांग की। उन्होंने कहा कि सबके लिए गुणवत्तापूर्ण, समावेशी शिक्षा और बच्चों के समग्र विकास की बुनियादी अवधारणा आज ध्वस्त होने के कगार पर खड़ी है। ऐसे में गरीब एवं कमजोर वर्गों तथा हाशिये के समूहों, जिनमें लड़कियां, विकलांग, दलित, आदिवासी समेत कोविड के कारण अनाथ हुए बच्चों की नई श्रेणी तथा प्रवासी मजदूरों के बच्चे शामिल हैं, की शैक्षिक जरूरतों को पूरा करने और औपचारिक शिक्षा व स्कूलों से उन्हें जोड़े रखने के लिए सुस्पष्ट रणनीति बनाने और उस पर अमल की सख्त जरूरत है। उन्होंने याद दिलाया कि आपदाग्रस्त एवं मुश्किल हालातों से जूझते इलाकों में बच्चों की शिक्षा की हालत पहले भी काफी खराब रही है। कोरोना महामारी के दौरान यह खतरा और भी गंभीर रूप से देखने में आया है। इस संदर्भ में भविष्य में ऐसे किसी संकट से निबटने की तैयारी के लिए आपात स्थिति में शिक्षा की दीर्घकालिक नीति विकसित करना एक अहम व बुनियादी जरूरत है।