भारत की 1.38 अरब आबादी में से लगभग 9 फीसदी आबादी आदिवासियों की है। आमतौर पर ये हमेशा हाशिए पर ही रहते हैं। ये मीडिया की सुर्खियों तभी बनते हैं, जब कोई बड़ा नेता इनके यहां जाता है या जब कोई अंतरराष्ट्रीय डिप्लोमेट अपनी यात्रा दौरान आदिवासी नृत्य देखना चाहता हो।
ऐसे में अनुमान लगाना मुश्किल है कि आदिवासी क्षेत्रों को कोविड-19 महामारी ने कितना प्रभावित किया है, जो ज्यादातर जंगलों या पहाड़ी इलाकों में बिनी उचित किसी बुनियादी ढांचे के या ऐसी जगह पर हैं, जहां सड़क तक नहीं है। इतना ही नहीं इन जगहों से करीबी पीएचसी (प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र) भी कई किलोमीटर दूर हो सकता है।
पूर्वी महाराष्ट्र का गढ़चिरौली दस लाख से अधिक आबादी वाला एक आदिवासी जिला है। दूसरी लहर में वायरस इन आदिवासी क्षेत्रों में पहुंच चुका है और कई आदिवासी मर रहे हैं।
“मार्च 2020 और मार्च 2021 के बीच गढ़चिरौली में कोरोना के लगभग 10,000 मामले थे, लेकिन पिछले एक महीने में (अप्रैल 2021) आदिवासी जिले में लगभग इतने ही मामले सामने आए हैं, ” डॉक्टर और सार्वजनिक स्वास्थ्य शोधकर्ता योगेश कालकोंडे ने गांव कनेक्शन को बताया।
कालकोंडे, गढ़चिरौली में काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन SEARCH (सोसाइटी फॉर एजुकेशन, एक्शन एंड रिसर्च इन कम्युनिटी हेल्थ) में काम करते हैं। वह SEARCH के एक ग्रामीण अस्पताल में डॉक्टर भी हैं, जो आदिवासी समुदायों के साथ काम करता है।
चिंताजनक बात यह है कि वायरस आदिवासी क्षेत्रों में पहुंच गया है और दूसरी लहर में यह तेजी से फैल रहा है।-योगेश कालकोंडे, डॉ और स्वास्थ्य शोधकर्ता
कालकोंडे ने कहा, “अधिक चिंताजनक बात यह है कि वायरस आदिवासी क्षेत्रों में पहुंच गया है और दूसरी लहर में यह तेजी से फैल रहा है।”
आधिकारिक डेटा और स्थानीय समाचारों से पता चलता है कि पिछले साल मार्च से इस साल के बीच गढ़चिरौली में वायरस के कारण लगभग 100 मौतें हुईं। हालांकि पिछले एक महीने (अप्रैल) में जिले में कोरोना ने 100 लोगों की जान ले ली, जो खतरे की घंटी है।
कुछ ही दिनों पहले ओडिशा से ऐसी खबरें आईं, जहां विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूहों (पीवीटीजी) के लोग कोरोना पॉजिटिव मिले। द हिंदू की 14 मई की रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में अपनी एकांत जीवन शैली के लिए जानी जाने वाली एकांत बोंडा जनजाति के दो सहित आठ अलग-अलग आदिवासी समूहों के 21 आदिवासी कोरोना संक्रमित पाए गए। बोंडा के अलावा डोंगरिया कोंध के सदस्य, कुटिया कोंधा दीदिया और सौरा जनजाति के लोग भी कोरोना से संक्रमित पाए गए। ऐसे में यह आशंका है कि साप्ताहिक हाट बाजारों से यह वायरस फैला है।
पिछले महीने ऐसी खबरें आई थीं कि कैसे गुजरात के आदिवासी बहुल जिलों से बड़ी संख्या में कोविड के मरीज सूरत के न्यू सिविल अस्पताल में पहुंच रहे हैं। उनमें से ज्यादातर भरूच, नर्मदा, तापी और डांग जिलों से आए थे।
पिछले साल पहली लहर में आदिवासी इलाकों में स्थिति इतनी विकट नहीं थी। जनजातीय मामलों के मंत्रालय के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), दिल्ली द्वारा पिछले सितंबर में किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि 25 प्रतिशत या अधिक आदिवासी आबादी वाले 117 जिलों में कोरोना का कोई बड़ा प्रकोप नहीं था। इसमें लगभग तीन प्रतिशत आदिवासी आबादी इस वायरस से संक्रमित पाई गई थी।
लेकिन दूसरी लहर में ऐसा लगता है कि वायरस ने आदिवासी इलाकों में बड़े पैमाने पर हमला किया है और एक महीने में कोरोना से 100 मौतें देखने वाला गढ़चिरौली अकेला नहीं है। यह बहुत चिंता की बात है क्योंकि इन आदिवासी क्षेत्रों में मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओं का भी अभाव है और कोविड- 19 प्रोटोकॉल को लेकर जागरूक करना और टीकाकरण इन दूरदराज की जगहों में एक बड़ी चुनौती है।
“हम गांवों में जो देख रहे हैं वह डर है। अन्य ग्रामीणों की तरह आदिवासी लोग कोरोना का टेस्ट नहीं करवाना चाहते हैं या अस्पताल में भर्ती नहीं होना चाहते हैं, ” कालकोंडे ने कहा।
“जब हमें आदिवासी क्षेत्रों से कोरोना टेस्ट और टीकाकरण को लेकर ऐसा संदेश मिलता हैं, तो हमें यह तथ्य नहीं भूलना चाहिए कि विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों के आधार पर आदिवासी आबादी का अपना सामाजिक व्यवहार होता है, जिसे सरकार या शहरी लोगों द्वारा अच्छी तरह से समझा नहीं जाता या उसका सम्मान नहीं किया जाता है,” उन्होंने आगे कहा।
उदाहरण के लिए मौत को लेकर आदिवासी समुदायों के अपने सामाजिक रीति-रिवाज हैं। अस्पताल में अकेले मरना उनके लिए हतोत्साहित करने वाला हो सकता है। यही वजह है कि कोरोना के टेस्ट या टीकाकरण करवाने में हिचकिचाहट होती है।
“इन आदिवासी समुदायों में बच्चों के टीकाकरण के लिए संदेश देने में दशकों लग गए। वे किताबों में लिखी बातों से ज्यादा सामने होने वाले अनुभवों पर भरोसा करते हैं,” कालकोंडे ने कहा।
सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का दावा है कि वायरस के जनजातीय क्षेत्रों में फैलने पर दो स्तरों पर काम होना चाहिए, अल्पकालिक और दीर्घकालिक। व्यवहार बदलना एक लंबी प्रक्रिया है और इसमें काफी समय लग सकता हैं, लेकिन जान के नुकसान को कम करने के लिए कुछ त्वरित और अल्पकालिक उपाय किए जाने की जरूरत है।
कालकोंडे कहते हैं, “कम समय में हमें जनजातीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्सा उपकरण ऑक्सीमीटर वितरित करके और 50 किलोमीटर या उससे अधिक के दायरे में ऑक्सीजन सुविधाएं बनाकर जीवन बचाने के लिए प्रौद्योगिकी के उपयोग पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। ऑक्सीजन कंसंट्रेटर जैसे कम तकनीकी समाधान समय की जरूरत है।”
इसके अलावा स्थानीय आदिवासी नेताओं (आदिवासी समुदाय अपने नेताओं को सरकारी अधिकारियों या बाहर के डॉक्टरों की तुलना में अधिक सुनते हैं) के माध्यम से आदिवासी आबादी को कोरोना के लक्षणों के बारे में जागरूक करने की आवश्यकता है, ताकि अगर किसी को सांस लेने में कठिनाई हो, बुखार हो या कमजोरी, उस व्यक्ति को तुरंत नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र ले जा सके। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के चिकित्सा कर्मचारियों को ऑक्सीजन कंसंट्रेटर को चलाने और जिला अस्पतालों में नॉन-इनवेसिव वेंटिलेटर का उपयोग करने के लिए जल्द प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है।