जब उत्तराखंड के दूर दराज के गांवों में कोविड-19 पहुंच गया

सभी मुश्किलों को पार करते हुए कलाप ट्रस्ट ने जिला प्रशासन के साथ मिलकर काम किया और टोंस घाटी के मोरी में पांच बेड का ऑक्सीजन सपोर्ट से लैस कोविड केयर सेंटर बनाया। साथ ही गांवों के लिए लंगर भी लगाया। और ये सब काम सिर्फ 96 घंटों में किया गया।
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हम तैयार नहीं थे, हमने कभी नहीं सोचा था कि देश के सुदूर छोर पर बसे हमारे दूरदराज के इलाके में भी कोविड-19 अपना भयानक रूप दिखाएगा। हम पश्चिमोत्तर उत्तराखंड में जमीन के एक छोटे से हिस्से में रहते हैं और यहीं काम करते हैं। यह क्षेत्र एक तरफ हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के साथ जुड़ा है, तो दूसरी तरफ हिमालय की ऊंची चोटियां इसे घेरे हुए हैं।

हिमालय की इन चोटियों पर स्थित ग्लेशियर झीलों से दो नदियां सुपिन और रुपिन निकलती हैं। जब ये नदियां ऊपरी टोंस घाटी से गुजरती हैं तो टोंस नदी का रूप ले लेती हैं।

ऊपरी टौंस घाटी में 37 गांव बसे हैं जो एक पशु अभ्यारण्य के भीतर है, ये लोग इस इलाके में तेंदुओं और स्लॉथ भालुओं के साथ साथ हिरणों के साथ आराम से रह रहे हैं। यहां किसी वायरस के लिए कोई जगह नहीं है। यहां सिर्फ दूर-दूर तक फैले पहाड़, घास के मैदान और गहरी घाटियों के बीच बहती सर्पीली धाराएं हैं। शांत, सुंदर और सुरक्षित जगह।

कलप ट्रस्ट की कोशिश थी कि जल्द से जल्द ऐसा सेंटर बनाया जाए, जहां कोविड रोगियों को देखा जा सके।

कोविड के कुछ मामलों से लेकर एक मौत तक

पिछले साल कोविड-19 महामारी ने इन हिस्सों में आर्थिक तबाही मचाई थी, ये इलाके गर्मी के महीनों में यहां आने वाले पर्यटकों पर ही निर्भर हैं। बावजूद इसके यहां कोविड-19 के सिर्फ मुट्ठीभर मामले सामने आए।

एक महीने पहले तक (मई की शुरुआत में) जब देश के बाकी हिस्सों में ऑक्सीजन और वेंटीलेटर के लिए मदद के संदेश भेजे जा रहे थे, तब भी हमें यहां मास्क पहनने की ज्यादा आदत नहीं थी।

लेकिन मई के पहले सप्ताह में, एक 32 वर्षीय युवक की कोविड की जटिलताओं के कारण मौत हो गई। यह यहां पर फैलने वाली त्रासदी का पहला संकेत था। अचानक सभी ने, यहां तक कि छोटे बच्चों तक ने मास्क पहनना शुरू कर दिया।

युवक की मौत के बमुश्किल दो हफ्ते बाद 37 में से 16 गांव कन्टेनमेंट जोन घोषित कर दिए गए और हर दिन यहां 100 से अधिक नए मामले दर्ज किए जा रहे थे।

चरमराती स्वास्थ्य सुविधाएं

ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे की कमी है, इस बात को सभी जानते हैं। लेकिन पिछले महीने इन इलाकों में जैसी बेबसी महसूस हुई, जो पहले कभी नहीं हुई।

ऊपरी टोंस घाटी के 37 गांवों (और उसके आसपास के इलाकों) के लिए सिर्फ एक प्राथमिक स्वास्थ केंद्र था और वह भी खस्ताहाल. इसमें एक अकेला एमबीबीएस डॉक्टर था। भीषण महामारी से निपटने के लिए जरूरी उपकरण तक नहीं थे।

भौगोलिक स्थिति, टेस्टिंग और गरीबी से जुड़ी चुनौतियां

यह संकट तीन कारणों से और जटिल हो गया, चुनौतीपूर्ण भौगोलिक परिस्थिति, कम टेस्टिंग और गरीबी। ऊपरी टौंस घाटी के सिर्फ 18 गांव सड़क से जुड़े हैं। बाकी गांवों तक कच्चे रास्तों से होते हुए पैदल या फिर खच्चर के सहारे ही पहुंचा जा सकता है।

दूरदराज के इन गांवों में अगर कोई बीमार पड़ता है तो उसे मुख्य सड़क तक लाना भी एक चुनौती है। इसमें कई घंटे लगते हैं। यहीं नहीं, कम से कम चार लोग बीमार इंसान को स्ट्रेचर की तरह एक कुर्सी पर बिठा कर लाते हैं।

ऊपरी टोंस घाटी में केवल 18 गांव सड़क मार्ग से जुड़े हुए हैं। बाकी कच्चे रास्ते जिन पर आदमी और खच्चर चलते हैं।

कोविड-19 टेस्टिंग टीमों से दूरदराज के ज्यादा गांवों में जाने के लिए कहना भी काफी मुश्किल होता है। यही कारण है कि अक्सर पूरा गांव बुखार की चपेट में होने की रिपोर्टों के बावजूद वहां कोई टेस्ट नहीं हो पाता।

इसके अलावा टेस्टिंग का बहुत विरोध भी होता है। बहुत से ग्रामीणों को डर रहता है कि टेस्ट में कुछ आ गया तो आसपास के लोग उनका बहिष्कार कर देंगे। इसके अलावा उन्हें खेत और अपने मवेशी भी संभालने होते हैं।

हम उस क्षेत्र की बात कर रहे हैं जहां 80 प्रतिशत परिवार गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं। पिछले साल पर्यटन ठप होने से कई और परिवार इस रेखा के नजदीक आ गए। क्योंकि पर्यटन ही उनकी आमदनी का बुनियादी जरिया रहा है।

जो लोग बीमारों को अस्पताल ले जाना भी चाहते हैं उनके सामने पैसे की तंगी आ जाती है। उन्हें एंबुलेंस बुलाकर 200 किलोमीटर दूर देहरादून या ऋषिकेश जाना पड़ता है जहां सरकारी अस्पतालों में वेंटिलेटर और आईसीयू जैसी सुविधाएं मौजूद हैं।

कलाप ट्रस्ट ने जिला प्रशासन के साथ मिलकर गांवों में लंगर लगाने का काम किया.

कलाप फंड रेजर

जब हमने, यानी कलाप ट्रस्ट ने 16 मई 2021 को कोविड-19 सर्ज रिलीफ फंड रेजर अभियान शुरू किया तो हमारा इरादा ऊपरी टौंस घाटी में पॉज़िटिव मरीजों के लिए जरूरी सुविधाओं की कमी को दूर करना था। हम एक ऐसा स्वास्थ्य केंद्र बनना चाहते थे, जहां मरीजों का जल्द से जल्द इलाज हो और उन्हें दूर न जाना पड़े।

ऑक्सीजन कंसनट्रेटरों की व्यवस्था करना सबसे बड़ी चुनौती थी। जब हमने चार ऑक्सीजन कंस्ट्रक्टर जुटा लिए, तो अगली चुनौती उन्हें सख्त लॉकडाउन के बीच एनसीआर से देहरादून और ऊपरी टौंस घाटी तक लाने की थी।

हम सिर्फ उत्तरकाशी जिला प्रशासन की मदद से ऐसा कर सकते थे। हमने प्रशासन से संपर्क किया और मिलकर काम करने को कहा। उनके पास प्रशिक्षित मेडिकल स्टाफ था। उनके पास एक ऐसी जगह थी जहां कोविड-19 केयर सेंटर बनाया जा सकता था और उनके पास कंस्ट्रक्टरों को लाने के लिए जरूरी अनुमति देने का अधिकार था. हमारे पास उपकरण खरीदने और उन्हें लगाने के लिए (ऑनलाइन फंड रेजिंग के जरिए जमा) फंड था।

96 घंटे के अंदर हमने मोरी के इंटरमीडिएट कॉलेज के एक कमरे में पांच बिस्तरों वाला ऑक्सीजन सपोर्ट कोविड केयर सेंटर तैयार कर दिया। यह जगह पूरी टौंस घाटी में एकमात्र सार्वजनिक स्वास्थ्य केन्द्र से सटी हुई थी। हम एनसीआर और देहरादून से ऑक्सीजन कंसनट्रेटर और होस्पिटल बैड, सभी तरह की दवांए और चिकित्सा उपकरण लेकर आए।

कलाप ट्रस्ट ने पांच बेड का कोविड सेंटर तैयार कर दिया।

कोविड लंगर

हमने महसूस किया कि कोविड केयर सेंटर में दूर-दूर से मरीज इलाज के लिए आएं, इसके लिए जरूरी था कि उन्हें यहां भोजन भी दिया जाए। तालाबंदी के चलते खाने पीने की सभी दुकानें बंद थीं।

हमारा अगला कदम था मरीजों, उनके साथ आने वाले लोगों और काम के बोझ तले दबे कोविड केयर सेंटर के स्वास्थ्य कर्मचारियों को ताजा और पौष्टिक भोजन देने के लिए लंगर शुरू करना।

उसी समय हमने महसूस किया कि केंद्र में भर्ती हर मरीज के साथ गांव में 50 लोग भी तो आइसोलेट होते हैं। उनके लिए भी भोजन का प्रबंध करना जरूरी है। हमने राम पंचायत लंगर लगाने के लिए 37 गांव के सभी प्रधानों के साथ काम किया और आइसोलेटेड लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था की। इससे यह भी सुनिश्चित हुआ कि कोविड-19 मरीजों के घर में चूल्हा ना जले।

गांव के सभी लोग लकड़ी की आग से ही खाना पकाते हैं। इससे निकलने वाला धुआं फेफड़ों के लिए नुकसानदायक है। अच्छा पोषण और धुआं रहित घर, यही दो चीजें हैं जो गांव के कोविड-19 मरीजों के लिए जरूरी हैं। हमने इन्हीं पर जोर दिया, ताकि रिकवरी रेट में सुधार आ सके। हमें लगता है कि इससे हमें काफी कामयाबी मिली।

कोविड के दौरान क्या करें और क्या न करें, इसकी जानकारी घर-घर पहुंचाने के लिए हमने हर गांव में पर्चे बांटे। साथ ही हमने लोगों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि जिन लोगों की तबियत ठीक नहीं है, उन्हें कोविड केयर सेंटर में लेकर आएं।

पर्चे क्यों? नेटवर्क न होने के कारण यहां फोन बेकार हैं। यदि हम बैठकर सबसे मुश्किल चुनौतियों से लेकर सबसे आसान चुनौतियों की सूची बनाएं तो नेटवर्क की समस्या सबसे ऊपर होगी।

शुभ्रा चटर्जी एक लेखिका/ निर्देशक हैं। खानपान संस्कृति पर आलेख लिखने के लिए पूरे भारत में भ्रमण करती रहती हैं। वे मुंबई और टोंस घाटी आती-जाती रहती हैं। वह www.tonsvalley.shop की सह-संस्थापक भी हैं। ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं।

खबर को अंग्रेजी में यहां पढ़ें

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