किसानों के सामने आत्महत्या का सबसे मुख्य कारण है कर्ज : देविंदर शर्मा

हाल में आई एनसीआरबी यानी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट में सामने आया कि साल 2019 में 10,281 किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए यानी हर दिन 28 किसानों ने मौत को गले लगा लिया। लेकिन क्यों?

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देश में रोज 28 किसान और खेतिहर मजदूर आत्महत्या कर रहे हैं, जबकि 89 दिहाड़ी मजदूर जान देने को मजबूर हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो से सामने आये आंकड़ें यही गवाही दे रहे हैं। आखिर क्यों देश को अपने हाथों की मेहनत और खून-पसीने से सींचने वाले लोग जान दे रहे हैं, गाँव कनेक्शन के गांव कैफे में इसी मुद्दे पर चर्चा हुई, इस ख़ास चर्चा में शामिल हुए देश के प्रसिद्ध निर्यात नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा, उन्हीं के शब्दों में पढ़िए कि क्या हैं उनकी राय ...

नीलेश मिसरा : क्यों किसान को अपनी जान देनी पड़ती है? एनसीआरबी के जो आंकड़ें आये हैं, उस पर आपके क्या विचार हैं और पीछे की क्या कहानी है?

देविंदर शर्मा : यह दुर्भाग्य है इस देश का और अब तो एनसीआरबी (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) भी कहता है, 25 सालों में कई सरकारें बदलीं, कई प्रधानमंत्री बदले, लेकिन किसानों के लिए कृषि संकट और उनकी आत्महत्याओं का दौर वैसे ही चल रहा है।

यह क्यों हो रहा है, क्योंकि एक किसान को अपने देश में फसल का इतना कम रेट मिलता है, और हर साल फसल के साथ अगर किसान को थोड़ा सा भी झटका लगता है, चाहे वो क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) की वजह से हो, या और कोई कारण हो, किसान को आत्महत्या का रास्ता चुनना पड़ता है।

मैं एक उदहारण से बताता हूँ कि 1970 में गेहूं का दाम 76 रुपये प्रति कुंतल था, जो 2015 में यानी 45 साल में बढ़कर 1450 रुपये प्रति कुंतल हो गया, और यह सिर्फ 19 गुना की बढ़ोत्तरी थी, अगर हम कृषि की बजाए अन्य क्षेत्र की ओर देखते हैं, तो इसी 45 सालों में जैसे सरकारी मुलाजिम की सैलरी 120 से 150 गुना बढती है, जो प्रोफेसर हैं उनकी बेसिक सैलरी और भत्ते 150 से 170 गुना के बीच बढ़ता है, स्कूल शिक्षकों की सैलरी देखें तो वो उसी अनुपात में 280 से 320 गुना बढ़ती है, और किसान की आय सिर्फ 19 गुना बढती है।

देश के प्रसिद्ध निर्यात नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा

ऐसे में मुझे बताइए कि अगर बाकी क्षेत्र की भी अगर सिर्फ 19 गुना बढ़ोत्तरी होती इस 45 साल के अवधि में तो मेरा मानना है कि बहुत सारे लोग आत्महत्या कर चुके होते, या वो नौकरी छोड़ चुके होते, कहना का मतलब यह है कि हमने जान-बूझ कर खेती-किसानी को कमजोर बनाकर रखा है और जब हम इस दायरे में किसान को लगातार रखते हैं तो लाजमी है कि किसान के पास आत्महत्या के अलावा रास्ता नहीं बचता है, जब भी किसान को आजीविका के लिए दिक्कत आती है, तो उसके पास एक ही रास्ता बचता है आत्महत्या, और हम यह सालों बाद भी समझ नहीं पा रहे हैं, इनके पीछे के कारणों को।

किसी सज्जन ने कहा था कि अगर एक साल में 12,000 वकील आत्महत्या करें तो क्या होगा, अगर एक साल में 12,000 व्यापारी आत्महत्या करें तो क्या होगा, अगर एक साल में 12,000 डॉक्टर आत्महत्या करें तो क्या होगा, और जब 12,000 किसान आत्महत्या करते हैं तो किसी कानों में जूं नहीं रेंगती, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, यह देश का दुर्भाग्य है।

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नीलेश मिसरा : ऐसी कौन सी मुश्किलें हैं जो देश के किसान को मजबूर करती हैं किसी बैंक के या साहूकार के दरवाजे जाने के लिए ?

देविंदर शर्मा : किसी के पास इतनी आय नहीं है तो उसके पास क्या चारा है कि वो कर्ज लें, चाहे बैंक से लें, चाहे साहूकार से लें, और फिर कर्जे पर कर्जा, कर्जे पर कर्जा, एक कर्जा चुकाने के लिए दूसरा कर्जा लेता है, और फिर तीसरा कर्जा, यानी वो कर्जे में धंसता चला जाता है, और कर्जे के चक्रव्यूह से निकलना उसके लिए मुश्किल हो जाता है, यही हम मानते हैं कि किसानों के सामने सबसे मुख्य आत्महत्या का कारण कर्जा है।

कर्जा इसलिए मुख्य कारण है क्योंकि किसान की आय नहीं है, अगर उसकी आम लोगों की तरह इनकम होती तो वो भी हमारी तरह होता, उसके पास भी विकल्प होता कि वो कर्जा ले या न ले, क्योंकि हमने एक किसान को आय से कम किया है तो कर्जे के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं है, इसके बहुत सारे आंकड़ें हैं और कई सारी रिपोर्ट्स आ चुकी हैं।

दूसरी बात यह है कि जब वो साहूकार से या किसी बैंक से कर्ज लेता है तो अक्सर हम मानते हैं कि जब वो साहूकार से कर्ज लेता है तो किसान का बहुत शोषण होता है, लेकिन 2015 में आई एक रिपोर्ट में बताया गया कि 80 प्रतिशत जो सुसाइड केस हैं उनमें बैंक के लिए कर्ज हैं, तो यह हम न बोलें कि हम सिर्फ साहूकार को ही दोष देते हैं, बैंक भी उतना ही जिम्मेदार है।

बैंक से किसान के कर्जे का जो विषय है, उसे बहुत ही गहरायी से देखना चाहिए, समझना चाहिए, क्योंकि किसान अगर बैंक को कर्जा नहीं दे पाता है तो बैंक आएगा और उसकी सम्पति ले जाता है, ट्रेक्टर ले जाएगा, ऐसे में गाँव में जो एक किसान का तिरस्कार होता है, गाँव में उसकी भागीदारी टूट जाती है, तो कर्ज के कारण गाँव में तिरस्कार की वजह से भी वो आत्महत्या करता है।

कहने का मतलब है कि चाहे वो बैंक हो या साहूकार हो, हम किसानों की ऐसी स्थिति में क्यों ढकेलना चाहते हैं कि एक किसान कर्जे के ऊपर कर्जा लेता रहे।

अभी देखिये हर साल सरकार का एक टारगेट होता है कि हमने पिछले साल 15 लाख करोड़ रुपये का कर्जा दिया है, मेरा यह कहना है कि किसान को कर्जा नहीं चाहिए, उसको आय चाहिए, हम उसको आय क्यों नहीं देते, और कर्जे में जीना ... चाहे वो अमेरिका हो या हिन्दुस्तान का किसान हो, कर्ज में जीना कोई जीना नहीं है, एक किसान कर्जे में होता है और कर्जे में मर जाता है, हमें किसान को इससे मुक्त करना है।

तीसरी बात यह है कि सरकारी आंकड़ों में जिसके पास जमीन है वही किसान देखा जाता है, उसके बच्चे हों, पत्नी हो किसान की, वो उस केटेगरी में नहीं आते।

अभी हाल में ही पंजाब में एक किसान ने सुसाइड किया, उसमें तीन पुश्तों से एक ही परिवार में पांच लोगों ने आत्महत्या कर ली, आप देखिये कि पीढ़ी दर पीढ़ी यह लगातार चलता रहा, क्या हम उसे समझ नहीं सकते कि उन जैसे सारे किसान को कर्ज के चक्रव्यूह से निकाल कर बाहर लेकर आयें, यह जो सोच है कि किसान कर्जे में ही जीवित रहेगा, और किसान को और सस्ता कर्जा देना चाहिए, चाहे उसमें ब्याज आप तीन कर दीजिये, चार कर दीजिये, पांच प्रतिशत कर दीजिये, यह गलत है।

मान लीजिये एक गांव की महिला है, उसके पास कुछ नहीं है, तो चलो खेती नहीं तो वह बकरी पालन करना चाहती है। बकरी खरीदने के लिए भी उसको जो 10,000 या 7,000 रुपये चाहिए तो वह एमएफआई (micro finance institution) के पास जाती है, तो वे उस महिला को 25 या 26 प्रतिशत ब्याज पर 10,000 रुपए कर्ज देते हैं और अगर आपको एक नैनो फैक्ट्री सेट अप करनी है गुजरात में, तो सरकार 520 करोड़ रुपए कर्ज देती है टाटा कंपनी को 0.1 % ब्याज पर, ऐसे में किसी कंपनी को 0.1% ब्याज पर कर्ज मिलता है वह भी 20 सालों के लिए, और एक गरीब महिला को 10,000 का कर्ज मिलता है सिर्फ 1 साल के लिए।

मेरा कहना यह है कि अगर उस गरीब महिला को बकरी खरीदने के लिए 0.1% के हिसाब से कर्ज मिलता तो साल के अंत में वह भी नैनो कार खरीद सकती थी। कहने का मतलब यह है कि जितना गरीब आदमी है, किसान है, मजदूर है, उसको हम कर्जे के नीचे दबाते हैं, हम कहते हैं कि इस वर्ग को कर्ज चाहिए और बाकी क्षेत्र के लोगों को इनकम चाहिए, हमें यह विरोधाभास हटाना होगा, एक मजदूर को इनकम देनी है, किसान को इनकम देनी है और इतनी आय देनी है कि कम से कम अपनी आराम से अपनी आजीविका चला सके।


किसान आत्महत्या पर एनसीआरबी की रिपोर्ट क्या कहती है

2019 में रोजाना 28 किसानों और 89 दिहाड़ी मजदूरों ने आत्महत्या की है। वर्ष 2019 में 10281 किसानों और खेतिहर मजदूरों ने जान दी है। साल 2018 की तुलना में साल 2019 में किसानों की आत्महत्या में गिरावट आई है। साल 2018 में 10357 किसानों ने आत्महत्या की थी, जबकि 2019 में 10281 किसानों ने जान दी है। तुलनात्मक अध्यक्ष करने पर पता चलता कि किसान (खेत के मालिक और लीज पर जमीन लेने वाले) की आत्महत्या के मामलों 10 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। साल 2016 में 11379 किसानों ने आत्महत्या की थी।

लेकिन इसी दौरान मजदूरों की आत्महत्या की दर बढ़ गई है। साल 2019 में 32559 दिहाड़ी मजूदरों ने आत्महत्या की जो 2018 में जान देने वाले 30132 कामगारों के मुकाबले 08 फीसदी ज्यादा है। रिपोर्ट ये भी कहती है कि साल 2019 में जिन 10281 किसानों ने जान दी है, उनमें 5957 किसान और 4324 कृषि मजदूर शामिल हैं। साल 2019 में हुई कुल आत्महत्या में कृषि की हिस्सेदारी 7.4 फीसदी है। जिन किसानों ने साल 2019 में जान दी है उनमें 394 महिला की हैं, जबकि मजदूरों की बात करें तो 574 महिला कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की है।

गांव कैफे के इस शो मेहमान थे,

खाद्य एवं निर्यात नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा के साथ इस शो में भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत, आशा किसान स्वराज की सह संयोजक कविथा कुरुग्रंथी, महाराष्ट्र से आरटीआई एक्टिविस्ट और सामाजिक कार्यकर्ता शकील अहमद शेख, साथ ही गांव कनेक्शन के एसोसिएट एडिटर अरविंद शुक्ला..पूरा वीडियो आप यहां देखिए.

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