गाँव की यादें : हो-हल्ला कर खेतों के चक्कर लगाना और बचपन की शैतानियां
Shrinkhala Pandey 30 Jan 2018 1:12 PM GMT
गाँव की ताज़ी सुबह और वहां का माहौल शहर में रहने वाले लोगों को अपनी ओर खींचता है। हम भले ही अपने गाँवों से बहुत दूर चले आए हों, लेकिन हमारा गाँव से जुड़ाव कभी कम नहीं होता। गाँव कनेक्शन की सीरीज़ ' मेरा गाँव कनेक्शन ' के नौवें भाग में चलते हैं उत्तर प्रदेश के गोंडा ज़िले के धमसड़ा गाँव में।
गाँव बायोडाटा -
गाँव- धमसड़ा गाँव
ज़िला - गोंडा
राज्य - उत्तर प्रदेश
नज़दीकी शहर - करनैलगंज, गोंडा
गूगल अर्थ पर धमसड़ा गाँव -
धमसड़ा गाँव -
उत्तर प्रदेश के गोंडा ज़िले की करनैलगंज तहसील में छोटा सा गाँव है धमसड़ा। भारतीय जनगणना 2011 के अनुसार इस गाँव की अबादी 1,005 है। गाँव में रहने वाले लोगों की आय का प्रमुख साधन कृषि है। यहां पर गेहूं-धान जैसी पारंपरिक फसलों की खेती होती है। इसके साथ साथ गाँव के पास कई स्कूल और इंटर कॉलेज हैं , जिससे यहां की साक्षरता दर तेज़ी से बढ़ रही है। गाँव की साक्षरता दर 71.03 प्रतिशत है।
गाँव की यादें -
सीरीज़ के नौवें हिस्से में अपने गाँव धमसड़ा में बीते बचपन की यादों को बता रही हैं श्रृंखला पाण्डेय ।
आज भी याद हैं, वो गुल्लक, मिट्टी की बैलगाड़ी, कपड़े की बनी गुड़िया और चकिया खेल
गाँव की मिट्टी, गाँव के घर, गाँव के लोग और गाँव का खाना आज भी जब याद आता है, तो मैं 18 साल पीछे चली जाती हूं। जब हम बचपन में गर्मियों की छुट्टियों में गाँव जाया करते थे। हम सभी भाई बहन और गाँव के बच्चे तरह तरह के खेल खेलते थे। मुझे आज भी याद है कैसे हम दूर खेतों में निकल जाते थे किसी के पेड़ से आम तोड़ने, तो कभी अमरख। गाँव के बड़े-बड़े बगीचों में तब दोपहर को चारपाईयां डाल दी जाती थीं और वहीं पर पूरी महफिल जमती थी। हम वहीं खाते पीते थे और खूब सारी मस्ती भी करते थे। चोर सिपाही बादशाह, कभी सिकड़ी तो कभी गेंद-ताड़ी जैसे कई खेल हम मर्ज़ी के हिसाब से चुन लेते थे और खेलते-खेलते शाम हो जाती थी।
सुबह और शाम दोनों ही समय गाँव ज्यादा सुंदर दिखता है। शाम को छत पर चढ़कर हम मोर देखते थे, जो तेज़ तेज़ आवाजें निकालकर खेतों में घूमा करते थे और सुबह की ठंडी ठंडी हवा में जो सुकून था वो आजकल एसी चलने पर भी नहीं होता था। मैंने पहली बार साइकिल चलाना अपने गाँव से ही सीखा था। कभी अगर आसपास मेला लगता था, तो हम सब तुरंत वहां झुंड में पहुंच जाते थे और वहां से कई तरह के खिलौने, गुल्लक, कपड़े की बनी गुड़िया, मिट्टी की बैलगाड़ी, चकिया जैसी चीजें खरीद कर लाते थे। उसके बाद घर की छत पर या बाहर मिट्टी का घर बनाकर खेलते थे, उस खेल का नाम हमने खाना पकाना रखा था। गाँव में दूर दूर तक फैलें गेहूं के खेत थें, जहां पर मैं अपने पापा के साथ जाती थी। पापा मुझे अपनी खेती-बाड़ी से जुड़ी बाते बताते थे। उन्हें खेती का बहुत शौक था।
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मेरे गाँव के बगल वाले घर में एक काकी रहती थीं, जिन्हें हम पूरे गाँव के बच्चे प्यार से काकी अम्मा कहकर बुलाते थे। हर चौथे पांचवे दिन वो बहुत सारी दही हांडी में रखकर घंटों मथती थीं और खूब सारा मक्खन निकालती थी। हम बच्चे लाइन से हाथ फैलाकर उनके आगे बैठ जाया करते थे कि वो हमें भी मक्खन खाने का दें। रात को चाची चूल्हे पर खाना बनाती थीं,तो हम भी उनके साथ बैठ जाते थे , ये देखने के लिए कि वो इतना सारा खाना कैसे अकेले चूल्हे पर बना लेती हैं। चाची खाने के साथ हमें खेत से तोड़े हुए प्याज, टमाटर व खीरे का सलाद काट कर देती थीं। मुझे दही शुरु से ही बहुत पसंद था, तो वो हमेशा खाने के साथ मुझे दही भी देती थीं। घर पर बने घी की दाल और रोटियों का स्वाद किसी रेस्टोरेंट से ज़्यादा अच्छा लगता था। रात में हम सब सोने के लिए लाइन से छत पर गद्दे बिछाते थे, खाना खाने के बाद हम बारी बारी से कहानियां सुनाते थे और उसके बाद सो जाते थे।
श्रृंखला पाण्डेय की तरह अगर आपके मन में भी अपने गाँव से जुड़ी यादें हैं, तो उन्हें हमारे साथ साझा करें- [email protected] पर। आख़िर यही तो है हम सबका गाँव कनेक्शन
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