मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौतों से चौंकिए मत, भारत में हर दो मिनट में तीन नवजात की मौत

मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौतों से चौंकिए मत, भारत में हर दो मिनट में तीन नवजात की मौत

पांच वर्ष से कम उम्र के मरने वाले बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है। निमोनिया, डायरिया, सेप्सिस और मेलेरिया आदि बीमारी जिसका इलाज हो सकता है, उससे बच्चे सबसे ज्यादा मर रहे हैं।

Mithilesh Dhar

Mithilesh Dhar   21 Jun 2019 1:26 PM GMT

भारत में इतने बच्चों का मरना कोई नई बात नहीं है, आंकड़ों पर नजर डालेंगे तो पता चलेगा दुनिया में सबसे ज्यादा बच्चों की मौतें भारत में होती हैं।

बिहार के मुजफ्फरपुर में सैकड़ों परिवारों की खुशियां छीनने से पहले ये बीमारी यूपी के गोरखपुर में 2017 में 100 से ज्यादा बच्चों की जान ले चुकी है। इससे पहले 2014 और 2012 में मुजफ्फरपुर में ही एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम सैकड़ों बच्चों की जान ले चुका है।

वर्ष 2018 में वर्ल्ड बैंक, यूनिसेफ और यूनाइटेड नेशंस की रिपोर्ट में कहा गया था कि अस्वच्छता, कुपोषण और दूषित पानी की वजह से भारत में हर साल 8,02,000 मासूम दम तोड़ देते हैं। भारत में शिशु मृत्यु दर 1,000 जन्म पर 44 फीसदी है। वर्ष 2017 में पांच वर्ष से कम के बच्चों की मृत्यु दर प्रति 1,000 पर 39 थी। रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर दो मिनट में तीन नवजात शिशु दम तोड़ देता है।

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बिहार के मुजफ्फरपुर के श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में दिमागी बुखार से पीड़ित एक बच्चा। फोटो: चन्द्रकान्त मिश्रा

ज्यादातर गरीब घरों के ग्रामीण बच्चे

मुजफ्फरपुर में जिन बच्चों की मौत हुई, उनमें से ज्यादातर गरीब घरों के ग्रामीण बच्चे हैं। इनमें से भी ज्यादातर कुपोषित हैं। यूएन की रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि समय पर प्राथमिक उपचार का न मिल पाना भी भारत में मासूमों की हो रही मौतों के लिए जिम्मेदार है।

बिहार पटना के जिला अस्पताल के सिविल सर्जन डॉ. परमानन्द चौधरी 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "चमकी बुखार होने का सटीक कारण अभी तक पता नहीं लग सका है, लेकिन बच्चों के सुपोषित एवं स्वस्थ रहने से इस रोग के होने की संभावना में कमी देखी गयी है। संपोषित बच्चा इस खतरनाक रोग से सुरक्षित रहता है।"

"रोग होने की स्थिति में स्वस्थ होने की सम्भावना किसी कुपोषित बच्चे के अनुपात में कई गुना अधिक होती है। गरीब और दूर दराज क्षेत्र के बच्चे, जिन्हें पर्याप्त पोषण नहीं मिल रहा हो, उन्हें इस रोग का खतरा सर्वाधिक रहता है," डॉ. चौधरी आगे कहते हैं।

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बिहार के मुजफ्फरपुर के श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में दिमागी बुखार से पीड़ित एक बच्ची। फोटो: चन्द्रकान्त मिश्रा

कुपोषण के मामले में भारत दुनियाा में पहले पायदान पर

कुपोषण के मामले में भारत दुनिया में पहले पायदान पर है। वैश्विक पोषण रिपोर्ट-2018 के अनुसार विश्व में स्टंटिड (कुपोषण के कारण अविकसित रह जाने वाले) बच्चों में 31 फीसदी भारत के हैं। इससे आप कुपोषण की भयावहता का अनुमान लगा सकते हैं। इस मामले में हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान भी हमसे चार गुना पीछे है।

बच्चों पर काम करने वाली एनजीओ सेव दी चिल्ड्रेन ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 (एनएफएचएस-4) के जो आंकड़े उपलब्ध कराएं हैं उसके अनुसार, 6 से 23 महीने की आयु के 10 भारतीय शिशुओं में से केवल 1 को पर्याप्त आहार मिलता है। नतीजा यह है कि पांच साल से कम उम्र के 35.7 फीसदी बच्चों का वजन सामान्य से कम है। वहीं यूनिसेफ के अनुसार, पहले वर्ष में स्तनपान पांच साल से कम उम्र के बच्चों में करीब-करीब पांचवें हिस्से (1/5) की मौतों को रोक सकती है।

स्वास्थ्य मुददे पर काम करने वाली वरिष्ठ पत्रकार पत्रलेखा चटर्जी बताती हैं, "अगर आप मुजफ्फरपुर घटना पर गौर करेंगे तो पीड़ित या मरने वाले बच्चों में गरीब तबका सबसे ज्यादा है। गरीबी के कारण उन्हें सही पोषण नहीं मिलता।"

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बिहार के मुजफ्फरपुर के श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में दिमागी बुखार से पीड़ित अपने बच्चे के साथ एक मां। फोटो: चन्द्रकान्त मिश्रा

मांओं का कुपोषित होना बड़ा कारण

पत्रलेखा यह भी कहती हैं कि इसके लिए मांओं का कुपोषित होना भी बहुत बड़ा कारण है। हमारे यहां गर्भवती महिलाओं पर ठीक से ध्यान नहीं दिया जाता, नतीजा यह होता है कि जन्म के बाद बच्चे और मां दोनों कमजोर होते हैं। बच्चों के स्वास्थ्य पर इसका विपरीत असर पड़ता है। रोगों से लड़ने की उनकी शक्ति कम हो जाती है। भारत सरकार ने पोषण योजना शुरू तो की है, लेकिन उसको दिखने में अभी समय लगेगा।

वैश्विक पोषण रिपोर्ट-2018 में कहा गया है कि भारत की 51 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया की शिकार हैं। इसका मां और बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। रिपोर्ट में कुपोषण से निपटने के लिए प्रभावी उपाय करने की बात कही गई ताकि गरीबी और जलवायु परिवर्तन की समस्याओं से प्रभावी तरीके से निपटा जा सके।

उत्तर प्रदेश में चाइल्ड हेल्थ और वाटर सेनिटेशन पर काम करने वाली संस्था वात्सल्य के अंजनी सिंह 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "बात अगर मैं उत्तर प्रदेश की करूं तो प्राइमरी हेल्थ सेवाएं ही बीमार हैं। जागरुकता की बेहद कमी है। घर में जो खाना बड़ों के लिए बनता है वही बच्चों लिए, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। बच्चों को उनकी जरूरत के हिसाब से खाना मिलना चाहिए।"

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बिहार के मुजफ्फरपुर के श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में अपने बच्चे को खोने के बाद परिसर में बिलख बिलख कर रोती एक महिला। फोटो: चन्द्रकान्त मिश्रा

'बच्चों की मौजूदा स्थिति में बदलाव मुश्किल है'

अंजनी सिंह अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, "बच्चों का स्वास्थ्य कैसे सुधरे, उन्हें स्वच्छता के लिए कैसे जागरूक किया जाए, इसके लिए आंगनबाड़ी केंद्र है, लेकिन ये केंद्र काम ही नहीं करते। सुपरवाइजर आपको केंद्र पर जल्दी नहीं मिलेंगे। रही बात पोषण की तो जो पोषाहार बच्चों को दिया जा रहा है, उसमें थोड़ी सुधार तो है, लेकिन अभी नाकाफी है। सफाई की उचित व्यव्स्था नहीं होती, स्कूलों में शौचालय हैं तो लेकिन हैंडवाश नहीं है। जब तक इन मुद्दों पर काम नहीं होगा, बच्चों की मौजूदा स्थिति में बदलाव मुश्किल है।"

पिछले 18 सितंबर को जब ये रिपोर्ट जारी हो रही थी कि भारत में हर साल 8,02,000 दम तोड़ देते हैं, तब इस मौके पर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की सहायक निदेशक प्रिंसेस नोनो साईमेलेला (परिवार, महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य मामले) ने जो कहा वो हमारी सही स्थिति के बारे में बताता है। अपने बयान में उन्होंने कहा, "करोड़ों नवजात और बच्चों को हम साफ पानी, स्वच्छता और उचित आहार न मिलने के कारण मरने नहीं दे सकते, ये बहुत चिंताजनक है।"

रिपोर्ट में बताया गया है कि पांच वर्ष से कम उम्र के मरने वाले बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है। निमोनिया, डायरिया, सेप्सिस और मेलेरिया आदि बीमारी जिसका इलाज हो सकता है, उससे बच्चे सबसे ज्यादा मर रहे हैं।

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बिहार के मुजफ्फरपुर के श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में ज्यादातर बच्चे ग्रामीण परिक्षेत्र से। फोटो: चन्द्रकान्त मिश्रा

बच्चों के लिए भारत सबसे असुरक्षित देश

बच्चों के लिए भारत सबसे असुरक्षित देश है। हम बच्चों को बचाने के मामले में नाइजीरिया, पाकिस्तान और कांगो जैसे देशों से भी पीछे हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि नाइजीरिया में हर साल 466,000, पाकिस्तान में 330,000 और कांगो में 233,000 बच्चे विभिन्न कारणों से दम तोड़ देते हैं।

नवजातों की मौत के मामले में हमारे देश में काफी काम हुए हैं, लेकिन आज भी बच्चों की मौत के मामले में हमारा देश सबसे ऊपर है। सरकार की तमाम प्रयासों के बावजूद अब भी हमारे देश में करीब 20 हजार नवजात बच्चे जन्म के पहले सप्ताह के दौरान ही दम तोड़ देते हैं।

- डॉ. ओमकार यादव, बाल रोग विशेषज्ञ, राम मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय लखनऊ

वर्ष 2017 में भारत में 605,000 नवजातों की मौत हो जाती है, जबकि 5 से 14 वर्ष के बीच मरने वाले बच्चों की संख्या 152,000 है और 15 से 18 वर्ष के बीच यह आंकड़ा 45000 है। ये आंकड़े उस देश के हैं जो विश्व शक्ति बनने की राह पर बढ़ रहा है।

एक दूसरा पहलू यह भी है कि भारत में पिछले पांच वर्षों के दौरान बच्चों की मौत की दर में कमी तो आई तो लेकिन स्थिति अभी भी चिंताजनक है। वर्ष 2016 में 8,67,000 बच्चों की मौत हुई थी, 2017 में थोड़े सुधार के साथ यह आंकड़ा 802,000 तक पहुंचा। रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में शिशु मृत्यु दर 1,000 जन्म पर 44 फीसदी है। 2017 में पांच वर्ष से कम के बच्चों की मृत्यु दर प्रति 1,000 पर 39 थी। रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर दो मिनट में तीन नवजात शिशु दम तोड़ देता है।

बिहार के मुजफ्फरपुर के श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में दिमागी बुखार से पीड़ित बच्चों का इलाज करतीं डॉक्टर और नर्स। फोटो: चन्द्रकान्त मिश्रा

20 हजार बच्चे पहले सप्ताह में ही तोड़ देते हैं दम

राम मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय लखनऊ, यूपी, के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. ओमकार यादव 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "नवजातों की मौत के मामले में हमारे देश में काफी काम हुए हैं, लेकिन आज भी इस मामले में हमारा देश सबसे ऊपर है। सरकार की तमाम प्रयासों के बावजूद अब भी हमारे देश में करीब 20 हजार नवजात बच्चे जन्म के पहले सप्ताह के दौरान ही दम तोड़ देते हैं।"

"खासकर सुदूर ग्रामीण इलाकों में बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के साथ ही साक्षरता दर कम होने की वजह से लोगों में जागरुकता की भी कमी है। इन वजहों से ही नवजातों की मृत्यु दर पर अंकुश लगाने में कामयाबी नहीं मिल पा रही है," वह आगे कहते हैं।

वैश्विक पोषण रिपोर्ट 2018 की मानें तो दुनिया में सबसे ज्यादा बच्चे भारत में ही रहते हैं। शून्य से 18 वर्ष के इन बच्चों की संख्या 43 करोड़ से ज्यादा है। रिपोर्ट में बताया है कि भारत के 21 फीसदी बच्चों का वजन उनकी लंबाई के अनुसार कम है। जबकि 38.4 फीसदी बच्चे ऐसे हैं जिनकी लंबाई उनकी उम्र से कम है। वहं 35.7 फीसदी बच्चे अंडरवेट हैं।

स्थिति में बदलाव कैसे हो इस पर पत्रलेखा चटर्जी कहती हैं, "दरअसल, हमारे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य का जो संदेश है, वह ज्यादातर लोगों के पास पहुंच ही नहीं पाता। जब तक फ्रंट लाइन वर्कर आशा, एएनएम और आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को सक्रिय नहीं किया जाएगा, तब तक सरकार की किसी भी स्वास्थ्य योजना का लाभ ग्रामीण तबके को नहीं मिल सकता है। इसके लिए सरकार को चाहिए कि इनके वेतन में बढ़ोतरी करें, क्योंकि इन्हें बहुत कम वेतन मिलता है और काम बहुत लिया जाता है।"


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