क्या सच में एमएसपी बढ़ने से किसानों को फसल की अच्छी कीमत मिलती है? सरल शब्दों में पूरी गणित समझ लीजिए

सरकार जब भी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाती है तो दावा करती है कि इससे किसानों को बड़ा फायदा होने वाला है। इससे उनकी आय बढ़ जायेगी, लेकिन क्या ये दावे सच हैं? क्या एमएसपी से किसानों को फायदा हो रहा है/होता है? इस खबर में इन्हीं दावों की पड़ताल है।

Mithilesh DharMithilesh Dhar   19 Jun 2020 2:00 PM GMT

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क्या सच में एमएसपी बढ़ने से किसानों को फसल की अच्छी कीमत मिलती है? सरल शब्दों में पूरी गणित समझ लीजिए

लॉकडाउन के बीच किसानों को राहत देने के लिए केंद्र सरकार ने दो जून 2020 को 14 खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी कर दी। देश के कृषि मंत्री ने इस फैसले को ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि इससे देश के किसानों को बहुत फायदा होगा। इसके ठीक एक हफ्ते बाद मध्य प्रदेश के हजारों मक्का किसानों ने एमएसपी की मांग को लेकर सत्याग्रह आंदोलन किया, उपवास रखा। अक्टूबर 2019 में भी सरकार ने रबी फसलों की एमएसपी में बढ़ोतरी की थी।

जब सरकार लगातार एमएसपी की दरों में बढ़ोतरी कर रही है तो किसान आंदोलन क्यों कर रहे हैं? जबकि सरकार हर बार इसे किसान हित में बड़ा फैसला बताती है, लेकिन क्या इससे देशभर के किसानों को फायदा होता है? क्या सच में एमएसपी बढ़ने से किसानों को उनकी उपज की अच्छी कीमत मिलती है?

पहले सरल शब्दों में समझिये एमएसपी है क्या और यह तय कैसे होता है

1- एमएसपी का इतिहास

आजादी के बाद से ही देश के किसानों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। किसानों को उनकी मेहनत और लागत के बदले फसल की कीमत बहुत कम मिल रही थी। कृषि जिंसों की खरीद-बिक्री राज्यों के अनुसार ही हो रही थी। जब अनाज कम पैदा होता तो कीमतों में खूब बढ़ोतरी हो जाती, ज्यादा होता तो गिरावट। इसमें सुधार के लिए वर्ष 1957 में केंद्र सरकार ने खाद्य-अन्न जांच समिति (Food-grains Enquiry committee) का गठन किया। इस समिति ने कई सुझाव दिये लिए उससे फायदा नहीं हुआ। तब सरकार ने अनाजों की कीमत तय करने के बारे में सोचा।

इसके लिए वर्ष 1964 में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने सचिव लक्ष्मी कांत झा (एलके झा) के नेतृत्व में खाद्य और कृषि मंत्रालय (अब ये दोनों मंत्रालय अलग-अलग काम करते हैं) ने खाद्य-अनाज मूल्य समिति (Food-grain Price Committee) का गठन किया। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का मत था कि किसानों को उनकी उपज के बदले कम से कम इतने पैसे मिलें कि उनका नुकसान ना हो। तब देश के कृषि मंत्री थे चिदंबरम सुब्रमण्यम।

यह भी पढ़ें- धान की एमएसपी में 53 रुपए की बढ़ोतरी, 14 खरीफ फसलों के लिए एमएसपी तय

खाद्य-अनाज मूल्य समिति में एलके झा के साथ टीपी सिंह (सदस्यए योजना आयोग), बीएन आधारकर (आर्थिक मामलों के अतिरिक्त सचिव, वित्त मंत्रालय), एमएल दंतवाला (आर्थिक कार्य विभाग ) और एससी चौधरी (आर्थिक और सांख्यिकीय सलाहकार, खाद्य और कृषि मंत्रालय) भी शामिल थे।

डॉ बीवी दूतिया (उप आर्थिक और सांख्यिकीय सलाहकार, खाद्य और कृषि मंत्रालय) को इस कमिटी का सचिव नियुक्त किया गया। कमिटी ने 24 दिसंबर 1964 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 24 दिसंबर 1964 को इस पर मुहर लगा दी, लेकिन कितनी फसलों को इसके दायरे में लाया जायेगा, यह तय होना अभी बाकी था।

एलके झा समिति की रिपोर्ट में मुहर। तारीख थी 16 अक्टूबर, 1965

वर्ष 1965 में 19 अक्टूबर को भारत सरकार के तत्कालीन सचिव बी शिवरामन ने कमिटी के प्रस्ताव पर अंतिम मुहर लगाई। इसके बाद वर्ष 1966-67 में पहली बार गेहूं और धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय किया गया। कीमत तय करने के लिए केंद्र सरकार ने कृषि मूल्य आयोग का गठन किया जिसका नाम वर्ष 1985 में बदलकर कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP सीएसीपी) हो गया।

मतलब कुल मिलाकर किसानों के हितों की रक्षा करने के लिए देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था लागू की गई। अगर कभी फसलों की कीमत बाजार के हिसाब से गिर भी जाती है, तब भी केंद्र सरकार तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही किसानों से फसल खरीदती है ताकि किसानों को नुकसान से बचाया जा सके।

किसी फसल की एमएसपी पूरे देश में एक ही होती है और इसके तहत अभी 23 फसलों की खरीद की जा रही है। कृषि मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन कृषि लागत और मूल्य आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर एमएसपी तय की जाती है।

एलके झा की कमिटी की सिफारिश पर ही वर्ष 1965 में भारतीय खाद्य निगम (Food Corporation of India- FCI) का गठन किया गया। सरकार किसानों से खरीदा अनाज एफसीआई और नाफेड (National Agricultural Cooperative Marketing Federation of India) के पास भंडार करती है जहां से अनाज सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत गरीबों को वितरित किया जाता है।

2- कीमत तय कैसे होती है?

वर्ष 2009 से कृषि लागत और मूल्य आयोग एमएसपी के निर्धारण में लागत, मांग, आपूर्ति की स्थिति, मूल्यों में परिवर्तन, मंडी मूल्यों का रुख, अलग-अलग लागत और अन्तराष्ट्रीय बाजार के मूल्यों के आधार पर किसी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करता है।

कृषि मंत्रालय यह भी कहता है कि खेती के उत्पादन लागत के निर्धारण में नकदी खर्च ही नहीं बल्की खेत और परिवार के श्रम का खर्च (बाजार के अनुसार) भी शामिल होता है, मतलब खेतिहर मजदूरी दर की लागत का ख्याल भी एमएसपी तय करने समय रखा जाता है।

एमएसपी का आकलन करने के लिए सीएसीपी खेती की लागत को तीन भागों में बांटता है। ए2, ए2+एफएल और सी2। ए2 में फसल उत्पादन के लिए किसानों द्वारा किए गए सभी तरह के नकदी खर्च जैसे- बीज, खाद, ईंधन और सिंचाई आदि की लागत शामिल होती है जबकि ए2+एफएल में नकद खर्च के साथ पारिवारि श्रम यानी फसल उत्पादन लागत में किसान परिवार का अनुमानित मेहनताना भी जोड़ा जाता है।

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वहीं सी2 में खेती के व्यवसायिक मॉडल को अपनाया जाता है। इसमें कुल नकद लागत और किसान के पारिवारिक पारिश्रामिक के अलावा खेत की जमीन का किराया और कुल कृषि पूंजी पर लगने वाला ब्याज भी शामिल किया जाता है। फरवरी 2018 में केंद्र सरकार की ओर से बजट पेश करते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि अब किसानों को उनकी फसल का जो दाम मिलेगा वह उनकी लागत का कम से कम डेढ़ गुना ज्यादा होगा।

सीएसीपी की रिपोर्ट देखेंगे तो पता चलता है कि अभी फसल की लागत पर जो एमएसपी तय किया जा रहा है वह ए2+एफएल है। वर्ष 2004 में प्रो. एमएस स्वामीनाथन की अगुवाई में राष्ट्रीय किसान आयोग के नाम से जो कमेटी बनी थी उसने अक्टूबर 2006 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। रिपोर्ट में किसानों को सी2 लागत पर फसल की कीमत देने की वकालत की गई थी, जबकि ऐसा हो नहीं रहा।

क्या एमएसपी से किसानों को फायदा हो रहा है ?

भले ही इस नीति को किसानों को फायदे के लिए लागू किया गया हो, लेकिन इससे किसानों को फायदा हो रहा है कि नहीं, यह जानना भी जरूरी है। जब-जब सरकारों ने एमएसपी की कीमतों में बढ़ोतरी की, तब-तब उन्होंने यही दावा किया कि इससे देश के किसानों को बहुत फायदा पहुंचने वाला है, लेकिन इसमें सच कितना है, इसे एक दम ताजा मामले से समझते हैं। सरकार की घोषित दरों के अनुसार देश में इस समय देश में मक्के की न्यूनतम कीमत होनी चाहिए 1850 रुपए प्रति कुंतल, लेकिन किसानों को मिल कितना रहा है, इसे हम किसान सतीश राय से समझते हैं।

सतीश मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में रहते हैं और इन्होंने कम कीमत को लेकर अभी सत्याग्रह भी किया था। वे गांव कनेक्शन को फोन पनर बताते हैं, "सरकार ने मक्के एमएसपी 1850 रुपए घोषित की है, जबकि मध्य प्रदेश की मंडियों में मक्का 900 रुपए से लेकर 1000 रुपए कुंतल तक बिक रही है, किसानों को प्रति कुंतल 900 से 1000 रुपए तक घाटा हो रहा है। इसीलिए मजबूरी में हम लोगों को ये आंदोलन (किसान सत्याग्रह) करना पड़ा।"

सरकार द्वारा तय की गई सभी फसलों की एमएसपी। सोर्स- सीएसीपी

केंद्र सरकार के अनुसार मक्के की कीमत किसानों को कम से कम मिलनी चाहिए 1,850 रुपए, लेकिन मिल रही 900 से 1,000 रुपए प्रति कुंतल, जबकि फसलों की कीमत और लागत तय करने वाली कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की रिपोर्ट की बात करेंगे तो देश के प्रति कुंतल मक्के की खेती में लागत 1,213 रुपए आती है। इसका मतलब यह हुआ कि एमएसपी तो छोड़िए, जो सरकार की बताई लागत है, किसानों को उस पर 200-300 रुपए का नुकसान उठाना पड़ रहा है, मुनाफे की तो बात ही छोड़िए।

सतीश राय भी यही कहते हैं, "सरकार के ही आंकड़ों पर चलें तो किसानों को लागत पर ही 213 से 313 रुपए प्रति कुंतल (1213 रुपए लागत ) का घाटा हो रहा है और एमएसपी पर जाएं तो 800-900 रुपए। एक मोटे अनुमान के अनुसार अकेले शिवनी जिले में 4 लाख 35 हजार एकड़ में मक्का बुवाई हुई थी। जिसमें जिले के किसानों को एसएसपी न मिलने पर करीब 600 करोड़ रुपए का घाटा हुआ है।"


ऐसा नहीं है कि बस मक्के की कीमत ही किसानों को कम मिल रही है।

आंध्र प्रदेश, अनंतपुर के गांव पुतलुर के किसान मुरली धर 20 मार्च 2020 को जब ताड़ीपत्री मंडी पहुंचे तो चना की कीमत 3,000 से 3,200 रुपए प्रति कुंतल के बीच थी। वे ट्रैक्टर से लगभग 25 कुंतल चना लेकर मंडी पहुंचे थे, लेकिन उन्होंने आधा चना ही बेचा।

ऐसा उन्होंने क्यों किया, इस बारे में वे बताते हैं, "हमें कम से कम सरकारी रेट मिल जाये तो हम उतने में ही खुश हो लेते हैं, लेकिन मुझे तो एक कुंतल के बदले 3,100 रुपए मिल रहा था। अब इतना नुकसान सहकर चना कैसे बेचता, लेकिन इतनी मेहनत करके उपज मंडी लाया था तो बिना पैसे वापस नहीं जा सकता था। इसलिए आधा बेच दिया, आधा रोक लिया है, जब कीमत सही होगी तब बेचूंगा।"

मुरली धर को एक कुंतल के बदले मिला 3,100 रुपए जबकि सरकार ने चने का एमएसपी 4,875 रुपए प्रति कुंतल तय किया है। मतलब एमएसपी के हिसाब से प्रति कुंतल के पीछे नुकसान हुआ 1,775 रुपए।


यह किसी एक किसान की बात नहीं है। कई रिपोर्टस में बताया जा चुका है कि किसानों को एमएसपी का फायदा नहीं मिल पाता।

आर्थिक सहयोग विकास संगठन और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (OECD-ICAIR) की एक रिपोर्ट के अनुसार 2000 से 2017 के बीच किसानों को उत्पाद का सही मूल्य न मिल पाने के कारण 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।

वर्ष 2015 में भारतीय खाद्य निगम (FCI) के पुनर्गठन का सुझाव देने के लिए बनी शांता कुमार समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि एमएसपी का लाभ सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता जिसका सीधा मतलब है कि देश के 94 फीसदी किसान एमएसपी के फायदे से दूर रहते हैं। सरकार के अनुसार देश में किसानों की संख्या 14.5 करोड़ है, इस लिहाज से 6 फीसदी किसान मतलब कुल संख्या 87 लाख हुई।

शांता कुमार समिति की रिपोर्ट का एक छोटा सा हिस्सा।

वहीं वर्ष 2016 में एमएसपी पर नीति आयोग की भी एक चौंकाने वाली रिपोर्ट आई थी जिसके अनुसार 81 फीसदी किसानों को यह मालूम था कि सरकार कई फसलों के पर एमएसपी देती है, लेकिन बुवाई सीजन से पहले सही कीमत से 10 फीसदी किसान ही वाकिफ थे। ऐसे में सवाल यह भी है उठता है कि जब उचित मूल्य के लिए बनी सबसे बड़ी व्यवस्था से ही किसान दूर हैं तो उन्हें सही कीमत मिले भी कैसे।

वर्ष 2019 में गांव कनेक्शन ने जब देश के 19 राज्यों के 18,267 लोगों के बीच हुए अपने सर्वे में किसानों से पूछा कि आपकी नजर में आज खेती के लिए सबसे बड़ी समस्या क्या है तो 43.6 फीसदी किसानों ने कहा कि उनके लिए सबसे बड़ी समस्या सही कीमत का न मिलना है। ये कुल संख्या के 4,649 लोग हैं।

एक तय कीमत भी किसानों के लिए मुसीबत

केंद्र सरकार किसी भी फसल की जो कीमत तय करती है, वह पूरे देश में एक ही होती है। किसानों को एमएसपी का फायदा नहीं हो पा रहा, यह भी इसकी एक बड़ी वजह है, कारण कि लागत तो हर प्रदेश में किसी एक फसल की अलग-अलग आती है। इसे उदाहरण से समझ सकते हैं।

सीएसीपी को ही आधार मानकर बात करें तो वर्ष 2016-17 में कर्नाटक के किसानों ने जब एक हेक्टेयर में मक्के की खेती की तो उनका कुल खर्च लगभग 28,220 रुपए आया जबकि बिहार के किसानों का इतने ही क्षेत्र में खेती के लिए लगभग 32,262 रुपए, झारखंड के किसानों का 24,716 और महाराष्ट्र के किसानों का 51,408 रुपए खर्च हुआ, जबकि मक्के पर केंद्र सरकार ने 1760 रुपए एमएसपी देती है। मक्के की एमएसपी को अभी बढ़ाकर 1,850 रुपए कर दिया गया है।

लागत के अलावा उत्पादन भी अलग-अलग है। देश में वर्ष 2017-18 के दौरान एक हेक्टेयर में औसतन 33 कुंतल मक्के की पैदावार हुई थी, लेकिन उत्पादन में राज्यवार अलग-अलग है। तमिलनाडु में एक हेक्टेयर में 65.5 कुंतल जबकि आंध्र प्रदेश में इतने ही क्षेत्र में 68.2 कुंतल मक्का पैदा हुआ। बिहार में यही उत्पादन 36.4 कुंतल प्रति हेक्टेयर रहा।

लागत अलग-अलग क्यों है, इसकी बड़ी वजह मजदूरी दर भी है जो हर प्रदेश में अलग-अलग है। आंध्र प्रदेश में एक दिन की कृषि मजदूरी दर 312 रुपए है (जनवरी 2018 के अनुसार) जबकि अमस में यही दर 277, बिहार में 264, गुजरात में 236, हरियाणा में 367, हिमाचल प्रदेश में 439, कर्नाटक में 321, केरल में 691, मध्य प्रदेश में 298, ओडिशा में 226, पंजाब में 349, राजस्थान में 267, तमिलनाडु में 424, उत्तर प्रदेश में 243 और पंजाब में 275 रुपए है जबकि अखिल भारतीय औसत कृषि मजदूरी दर मात्र 283 रुपए है।


इसे समझने के लिए हमने कृषि लागत और मूल्य आयोग के सहायक निदेशक सूबे सिंह से भी बात की। वे कहते है, "केंद्र सरकार औसत खर्च को आधार मानकर ही एमएसपी तय करती है। यह राज्य का भी मामला है, ऐसे में प्रदेश सरकारों को अपने अनुसार एमएसपी बढ़ाने का भी अधिकार है, वे बढ़ा सकती हैं।"

सहायक निदेशक के अनुसार यह राज्य का भी मामला है, लेकिन जब प्रदेश सरकार जब फसलों पर बोनस देने की बात करती है तो आयोग इसे विकृति कहता है। खरीफ 2019-20 की रिपोर्ट में इसका उल्लेख भी है।

रिपोर्ट में लिखा है, "कुछ राज्य सरकारें पिछले कुछ वर्षों के दौरान विशेष रूप से धान के लिए न्यूनतम समर्थन पर बोनस दे रही हैं, जिससे बाजार में विकृतियां पैदा होती हैं, इससे प्राइवेट सेक्टर को नुकसान होता है। वर्ष 2017-18 और 2018-19 के दौरान, केरल, तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने धान के लिए बोनस घोषित किया। उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ ने 2018-19 में धान के लिए 750 रुपए प्रति कुंतल का बोनस घोषित किया, जो एमएसपी का लगभग 43 प्रतिशत है। इसी तरह, केरल ने 2018-19 में धान ग्रेड ए के लिए 760 रुपए प्रति कुंतल और धान सामान्य के लिए 780 रुपए प्रति कुंतल के बोनस का भुगतान किया।"

रिपोर्ट में आगे उल्लेख है, "छत्तीसगढ़ में चावल की सरकारी खरीद एनएफएसए (राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम) और अन्य योजनाओं के तहत आवश्यकता से बहुत अधिक है। इसलिए, राज्य को अतिरिक्त भंडार का निपटान करना मुश्किल होगा। एमएसपी पर बोनस फसल संतुलन को प्रभावित करता है। आयोग ने अपनी पहले की अनुशंसा को फिर से दोहराया है कि इस तरह के बोनस/प्रोत्साहन को रोका जाना चाहिए, खासकर जिन राज्यों में चावल का उत्पादन ज्यादा होता है।"

सीएसीपी की रिपोर्ट में बोनस को विकृति कहा गया है।

इस पर कृषि मामलों के जानकार देविंदर शर्मा कहते हैं, "केंद्र सरकार एमएसपी का अधिकार अपने पास इसलिए रखती है क्योंकि यह उन्हें ही तय करना होता है कि कितना स्टॉक रखना है, बाजार में कितना उपलब्ध करना है, यह सब फैसले केंद्र को ही करना होता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि हम इसे राज्यों के हिसाब से लागू नहीं कर सकते। अब अगर मान लीजिए कि पंजाब में गेहूं की लागत 2500 रुपए आती है तो एफसीआई (भारतीय खाद्य निगम) किसानों को 2500 रुपए ही भुगतान करे और अगर बिहार में यही लागत 1500 रुपए आती है तो सरकार 1500 रुपए दे, लेकिन ऐसा इसलिए भी नहीं होता क्योंकि इसका विरोध करने वाले लोग हैं ही नहीं। किसानों को सभी बातें पता नहीं होती और सरकार का काम आसानी से हो जाता है।"

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"केंद्र सरकार नहीं चाहती कि ऐसा हो। अगर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ सरकार ने बोनस देने का ऐलान किया तो केंद्र ने यह बोल दिया कि हम उपज नहीं खरीदेंगे। इसका मतलब तो यही हुआ ना कि आप नहीं चाहते कि राज्य सरकारें ऐसा कर पाएं। पूरी पॉलिसी में बदलाव की जरूरत है लेकिन सरकार इसे इसलिए नहीं होने देगी कि क्योंकि अर्थशास्त्रियों की सोच होती है कि खाने की वस्तुएं सस्ती होनी चाहिए। इससे यह होता है कि एक तो महंगाई दर नियंत्रित होती है और इंडस्ट्री को कच्चा माल सस्ती दरों पर दिया जा सकता है।" वे आगे कहते हैं।

"कई बार मैंने मांग की कि किसानों की आय कम से कम 18000 रुपए महीने होनी चाहिए, इस पर कुछ लोगों ने कहा कि अगर ऐसा होगा तो महंगाई बढ़ जायेगी। अब इससे बचने का तरीका यह भी है कि अगर सरकार 1900 रुपए में गेहूं खरीद रही तो वह उसे उसी दर पर खरीदे और लागत में जो अंतर आ रहा है उसे सरकार किसानों के जनधन खाते में भेज दे ताकि महंगाई पर इसका असर न पड़े।" देविंदर शर्मा कहते हैं।


सीएसीएपी ने खरीफ सीजन 2020-21 को लेकर अपनी वेबसाइट पर रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसमें वर्ष 2019-20 की पूरी जानकारी है। केंद्र सरकार ने अभी वर्ष 2020-21 के लिए 14 खरीफ फसलों की एमएसपी में बढ़ोतरी की है।

रिपोर्ट में राज्यवार अलग-अलग फसलों की जानकारी दी गई है। इसके अनुसार हम अगर धान की बात करें तो बाजार में धान की कीमत असम में 17 फीसदी, छत्तीसगढ़ में 10 फीसदी, तमिलनाडु में 7 फीसदी, तेलंगाना में 4 फीसदी उत्तर प्रदेश में 6 फीसदी और पश्चिम बंगाल में 2 फीसदी से ज्यादा कम रही सरकार की तय एमएसपी के अनुसार। ये एक उदाहरण मात्र है।

होना क्या चाहिए, जानकारों से समझते हैं

गांव कनेक्शन के सर्वे (वर्ष 2019) में यह सामने आया कि फसल खरीद की जो भी प्रक्रिया अभी चल रही है, किसान उससे नाराज हैं। सर्वे में शामिल 18,267 लोगों में से 62.2 फीसदी किसान ने कहा कि वे चाहते हैं कि उनकी फसल की कीमत पर उनका अधिकार होना चाहिए, इसे तय करने का अधिकार उनके पास हो।


इस बारे में देविंदर शर्मा कहते हैं, "मुझे लगता है कि अब समय आ गया है जब हमें मूल्य नीति से आय नीति की ओर बढ़ना चाहिए। 2009-10 और 2011-12 के बीच गेहूं का एमएसपी 125 फीसदी अधिक था, जौ का 110 पर्सेंट ज्यादा था और चने का 105 फीसदी ज्यादा था। इसलिए अब सवाल उठता है कि जब सरकार कहती है कि वह किसानों को अधिक लाभ पहुंचा रही है तो इसमें खास बात क्या है।"

वे आगे कहते हैं, "यही काम तो इससे पहले की यूपीए सरकार भी कर रही थी और उसके बारे में उसने कभी बड़े-बड़े दावे भी नहीं किए। मुझे पूरा भरोसा है कि अगर मैं किसानों से पूछूं तो वे खरीद मूल्य में बढ़ोतरी के सरकार के दावे को भी खारिज कर देंगे क्योंकि वह कहीं भी फसल की वास्तविक लागत के आसपास तक नहीं बैठता। मान लीजिये कि सरकार अपने वादे के अनुसार एमएसपी दे भी देती है तो क्या हो जाएगा? सरकार अभी की तय एमएसपी पर तो किसानों से फसल खरीद नहीं पा रही है, जबकि सबको पता है कि छह फीसदी किसान ही फसल एमएसपी पर बेच पाते हैं।"

200 से ज्यादा किसान संगठनों की समिति किसान संघर्ष समन्वय समिति के संयोजक वीएम सिंह कहते हैं, "संसद को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाना चाहिए, ताकि तय रेट से कोई कारोबारी किसान की फसल खरीद न सके, और खरीदे तो उसे जेल हो, साथ ही किसानों को फसल बुवाई से पहले बताया जाए कि उनकी फसल किस दर पर बिकेगी।"

किसान कांग्रेस मध्य प्रदेश के कार्यवाहक अध्यक्ष केदार सिरोही का कहना है, "यह भी याद रखा जाना चाहिए कि देश के केवल 6 फीसदी किसानों को ही उनकी फसल पर एमएसपी मिल पाता है। बाकी किसानों की फसल बिचौलियों, साहूकरों और दूसरे दलालों के पास जाती है। वित्त मंत्री ने यह भी साफ नहीं किया है कि 94 फीसदी किसानों को एमएसपी दिलवाने के लिए क्या इंतजाम किए जाएंगे। उनकी खरीद को सरकारी खरीद केंद्रों में पहुंचाना कैसे सुनिश्चित होगा, यह सबसे बड़ा सवाल है।

  

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